Friday, March 14, 2025
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मनोज झा को मुफ्तखोरी पर आपत्ति क्यों?

मुफ्तखोरी जैसी बीमारी हमारे देश में काफी बढ़ चुकी है! संसद में मनोज झा की ताजा तकरीर खूब सुर्खियां बटोर रही हैं। इसमें उन्होंने सरकारों की तरफ से आम लोगों के लिए चलाई जा रही मुफ्त योजनाओं को मुफ्तखोरी या फ्रीबीज कहने पर आपत्ति जताई। उनकी दलील है कि लोककल्याणकारी राज्य होने के नाते ये सरकारों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व है। इसलिए मुफ्त शब्द इस्तेमाल न किया जाए। वो कहते हैं – ये लोगों को नीचा दिखाने का प्रयास है। मुफ्त का ये राशन, मुफ्त की ये दवाई.. ये क्या चल रहा है। मैंने कहा था आप वेलफेयर स्टेट हैं, अब तक, थैंकफुली। चूंकि आप वेलफेयर स्टेट हैं इसलिए मुफ्त शब्द का इस्तेमाल बंद कर दीजिए। आप एक बड़ी आबादी को अपमानित करते हैं। नागरिकों के अपमान का अधिकार आपको नहीं है। आप देते क्या हैं – अनाज, वैक्सीन। ये आपका उत्तरदायित्व है। राज्य सरकारें भी ऐसा कर रही हैं। करोड़ों के इश्तेहार छपवाकर बताया जा रहा है कि हम ये दे रहे हैं, वो दे रहे हैं। कमाल है। वृद्धावस्था पेंशन, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा कानून, अंत्योदय, गरीब कल्याण या तमाम तरह की सब्सिडी तो समझ में आती है लेकिन कोई कहे कि मुफ्त स्कूटी, टेलीविजन, लैपटॉप को मुफ्तखोरी न कहा जाए तो क्या कहा जाए।

शायद इसीलिए तो मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा है। चीफ जस्टिस एनवी रमना की अगुआई वाली पीठ ने इसे सीरियस मामला बताते हुए केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। साथ ही सुझाव भी दिया है कि इसको लेकर वित्त आयोग सिफारिश कर सकती है। आप पूछेंगे इतनी चिंता क्यों है? तो इसलिए कि मुफ्तखोरी का लालच देकर चुनाव जीतने के चक्कर में राज्यों पर आज 6.5 लाख करोड़ का कर्ज है। और श्रीलंका का हाल मनोज झा जानते होंगे।

गले में गमछा लपेट लालू प्रसाद यादव के सामाजिक न्याय वाले सिद्धांत को मनोज झा और विस्तार दे सकते हैं पर गरीबी के दर्द को भावुक तरीके से उठाकर इकॉनमी के दर्द को नजरअंदाज नहीं कर सकते। इसलिए अगर मनोज झा को मुफ्तखोरी या फ्रीबीज पर आपत्ति है तो मुझे भी उनकी इस दलील पर आपत्ति है। ये जानते हुए कि वेलफेयर स्टेट की परिकल्पना हमारे संविधान के नीति निर्देशक तत्वों का हिस्सा हैं।

सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन का अधिकार।

भौतिक संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण को सामान्य जन की भलाई के लिये व्यवस्थित करना।

कुछ ही व्यक्तियों के पास धन को संकेंद्रित होने से बचाना।

पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान कार्य के लिये समान वेतन।

श्रमिकों की शक्ति और स्वास्थ्य की सुरक्षा

बच्चों के बचपन एवं युवाओं का शोषण न होने देना ।

अब इसमें कहां लिखा है कि जनता को मुफ्त बिजली, पानी, गाड़ी का वादा करना चाहिए। इसकी कल्पना तो 1976 में इमरजेंसी के दौरान 42 वें संशोधन के जरिए समाजवादी शब्द संविधान में जोड़े जाने के दौरान भी नहीं हुई थी। इसलिए मुफ्तखोरी और जनता की देखभाल में फर्क है। मुफ्त वैक्सीन और कोरोना के दौरान अनाज देकर सरकार ने साबित किया कि वो जनता के प्रति कितनी संजीदा है। ये जरूरतमंदों के लिए ही था। इसमें और मुफ्त स्कूटी देने के वादे में जमीन आसमान का फर्क है झा जी। सामाजिक-आर्थिक-राजनीति न्याय के लिए आरक्षण के अलावा कई तरह की योजनाएं तो चल ही रही हैं। इसके वैधानिक आयाम भी हैं। अब इसके आगे का रास्ता तो मुफ्तखोरी ही कहलाएगा। और ये गलत परिपाटी है। हमें अपने नौजवानों को इनेबलर यानी खुद आगे बढ़ने के लिए तैयार करना चाहिए। उनके कौशल विकास के लिए जो करना हो करिए न। पर अगर हमने उन्हें मुफ्तखोरी का अफीम चटा दिया तो इसके भयंकर परिणाम होंगे। हमें लोगों को पंगु के बदले पावरफुल बनाने की जरूरत है। अगर मुफ्तखोरी जारी रही तो नुकसान उसी तबके को होगा जिसकी भलाई की चर्चा मनोज झा कर रहे थे।

खजाना भरा हो तो मान सकते हैं कि फ्री में कुछ जनता जनार्दन को दे दिया जाए। सच्चाई तो उलट है। हमारे कई राज्यों की वित्तीय हालत नाजुक है। फिस्कल रेस्पॉन्सिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट एक्ट के मुताबिक राज्य सरकार तय सीमा से ज्यादा कर्ज नहीं ले सकते। रिजर्व बैंक ने तय किया है कि ग्रॉस फिस्कल डेफिसिट और जीडपी का अनुपात तीन ये इससे ज्यादा हो जाए तो मान लीजिए संकट गहरा है। इस साल की रिपोर्ट में अपने 10 राज्यों की हालत खराब है। पंजाब तो कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए भी कर्ज लेता है। इसकी जीडीपी के 53 परसेंट से ज्यादा इसका कर्ज है। बिहार-झारखंड-आंध्र प्रदेश की हालत भी 35 परसेंट के आस-पास रेड जोन में है। ऐसी हालत में भला कोई नेता मुफ्तखोरी को वेलफेयर बताकर चुप रहने की बात कैसे कर सकता है?

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