दुनिया भर में जजों की संपत्ति का खुलासा होता है! भारत के लोकतंत्र होने को लेकर कोई संदेह नहीं हो सकता। लेकिन क्या भारत एक ‘परिपक्व’ लोकतंत्र है? चूंकि भारत में ‘सभाएं’ और ‘समितियां’ हजारों वर्षों से वजूद में रही हैं लिहाजा ज्यादातर लोग इस सवाल का जवाब हां में देंगे।
वैसे ‘परिपक्व’ विशेषण पर अलग-अलग लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज (एके गांगुली) ने कुछ दिन पहले कहा था कि भारत एक ‘परिपक्व’ लोकतंत्र है। सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा जज (जे. बी. पारदीवाला) ने तो अभी हाल ही में कहा है कि भारत ‘पूरी तरह परिपक्व’ लोकतंत्र नहीं है।
परिपक्व या अपरिपक्व? चूंकि लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है, यहां तक कि जजों की भी तो शायद यह सवाल ही अपरिपक्व है। लेकिन परिपक्वता की परिभाषा चाहे जो भी हो, इसका एक अनिवार्य तत्व है। वो है पारदर्शिता। और चूंकि भारत एक लोकतंत्र है तो इस लिहाज से नागरिकों को पारदर्शिता के साथ सूचनाएं मिलनी चाहिए।
यही वजह है कि पब्लिक सर्वेंट अपनी-अपनी संपत्तियों और देनदारियों का खुलासा करते हैं। मंत्री और सांसद (विधायकों के लिए अनिवार्य नहीं) भी ऐसा करते हैं। नौकरशाह (अखिल भारतीय सेवाएं) भी ऐसा करते हैं। लोकपाल ऐंड लोकायुक्त ऐक्ट (2013) में इसके प्रावधान हैं।
एक होती है नैतिकता और एक होता है कानून। नैतिकता कानून से भी ऊपर होती है। नैतिकता कहती है कि अगर कोई भी पब्लिक सर्वेंट है और उसे सरकारी खजाने से पैसा मिलता है, जनता के टैक्स का पैसा मिलता है तो उसे भी अपनी संपत्तियों और देनदारियों का खुलासा करना चाहिए। अगर कुछ छिपाने के लिए नहीं है तो खुलासे से हिचक क्यों होनी चाहिए?
क्या न्यायपालिका को सरकारी खजाने से फंड मिलता है?
यह सवाल तो उठना ही नहीं चाहिए। प्रिवेंशन ऑफ करप्शन ऐक्ट में ‘जजों’ को भी ‘पब्लिक सर्वेंट’ के दायरे में रखा गया है। नैतिकता का मतलब है कि संपत्ति का खुलासा स्वैच्छिक है जबकि कानूनन अनिवार्य।
जजों के लिए भी संपत्ति के खुलासे के लिए 2009 में संसद में एक बिल लाया गया था। उसका नाम था ‘द डेक्लेरेशन ऑफ असेट्स ऐंड लायबिलिटीज बाय सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट ऐंड सबऑर्डिनेट कोर्ट जजेज बिल, 2009’।
2009 में मुख्य सूचना आयुक्त (CIC) ने भी सोचा कि जजों को भी संपत्ति का खुलासा करना चाहिए। लेकिन, बाद के अदालती मामलों (सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट) ने इस पर ग्रहण लगा दिया। राइट टु इन्फॉर्मेशन ऐक्ट के तहत संपत्ति के खुलासे पर जजों को छूट हासिल है। विधेयक और सीआईसी दोनों ही नाकाम रहे। लिहाजा इन दलीलों पर विचार कीजिए जिनकी अक्सर बातें होती हैं।
संविधान के तहत जज स्पेशल हैं। पारदर्शिता और जवाबदेही के मानक उनपर लागू नहीं किए जा सकते। न्यायापालिका के बाहर का कोई शख्स शायद ही इस दलील को गंभीरता से ले।
संपत्ति और देनदारियों को लेकर सूचना जमा की जाएगी लेकिन उन्हें गोपनीय रखा जाएगा। उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता।
संपत्ति और देनदारियों का खुलासा स्वैच्छिक होगा। इसे अनिवार्य नहीं किया जा सकता।
चूंकि हमारा लोकतंत्र अभी परिपक्व नहीं है, इसलिए हम घूम-फिरकर दूसरे और तीसरे पॉइंट पर जाएंगे।
1997 में सुप्रीम कोर्ट ने शीर्ष अदालत के जजों के लिए संपत्ति का खुलासा अनिवार्य करने को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया। सभी तो नहीं लेकिन कुछ हाई कोर्ट के जज भी ऐसा करेंगे। खास बात ये है कि इसके लिए कोई स्पष्ट समयसीमा नहीं थी। पद ग्रहण करने के बाद ‘यथोचित समय’ तक खुलासा पर्याप्त होगा। यथोचित यानी संबंधित जज के विवेक के हिसाब से। उसके बाद संपत्ति के खुलासे से जुड़े घोषणापत्र को अपडेट करने की जरूरत नहीं है। ये तभी अपडेट की जाएगी जब संपत्ति का कोई ‘बड़ा सौदा’ हो। 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने एक और प्रस्ताव पारित किया। उसके तहत संपत्ति के खुलासे को अनिवार्य से बदलकर स्वैच्छिक कर दिया गया। हाई कोर्ट 2009 के सुप्रीम कोर्ट के प्रस्ताव का पालन करते हैं।
चूंकि स्वैच्छिक खुलासे में दी गई सूचना को सार्वजनिक किया जाएगा, इसलिए बहुत से जज इससे बचना ही चाहेंगे।
स्वैच्छिक खुलासे कितने कारगर साबित हुए हैं? 13 जुलाई तक, सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर सिर्फ 4 जजों- एनवी रमण, अरुण मिश्रा, एएम खानविलकर और अशोक भूषण की संपत्तियों के बारे में सूचनाएं हैं। इनमें से भी 2 पहले ही रिटायर हो चुके हैं। अगर हम इन सभी को 4 ही गिनें तब भी इसका मतलब है कि 32 जजों में से 4 जज यानी 12.5 प्रतिशत ने ही खुलासा किया। कानून के तहत संपत्ति के खुलासे को अनिवार्य बनाए बिना हम किस हद तक परिपक्व हैं, यह बताता है।
वैसे हमें सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की बात नहीं करनी चाहिए। देश में 25 हाई कोर्ट हैं। और शायद वे इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हों। लेकिन ऐसा सौभाग्य कहा।
सिर्फ 7 हाई कोर्ट के कुछ जजों ने ही अपनी संपत्तियों और देनदारियों का खुलासा किए हैं। इन सातों हाई कोर्ट में संपत्ति का घोषणापत्र जमा करने वाले जजों का प्रतिशत अलग-अलग है।
अगर 75 प्रतिशत जजों की तरफ से संपत्ति के खुलासे को परिपक्वता का पैमाना माना जाए तो सिर्फ 3 हाई कोर्ट ही इसके दायरे में आएंगे। ये तीन हैं- पंजाब ऐंड हरियाणा हाई कोर्ट, केरल हाई कोर्ट और हिमाचल हाई कोर्ट।
हाई प्रोफाइल दिल्ली हाई कोर्ट के 47 जजों में से सिर्फ 17 ने खुलासा किया है जो आधे के भी आस-पास नहीं हैं।
UNDOC की वेबसाइट बताती है, ‘महज एक दशक पहले तक न्यायिक शुचिता और भ्रष्टाचार पर लगाम के खातिर न्यायिक अधिकारियों के लिए उनकी संपत्तियों और दूसरे प्रासंगिक हितों व गतिविधियों का खुलासा करने से जुड़े नियम बनाने की बात होती तो उसे संदेह से देखा जाता।’जिन 161 देशों पर अध्ययन किया गया उनमें से आधे से ज्यादा देशों में जज और न्यायिक अधिकारी अनिवार्य रूप से अपनी संपत्तियों, अपने हितों का खुलासा करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट जजों के लिए आंकड़ा 60 प्रतिशत है।
उन 161 देशों में से 56 प्रतिशत में बाकी पब्लिक सर्वेंट्स की तरह जजों और न्यायिक अधिकारियों के लिए भी संपत्ति का खुलासा जरूरी है।इसलिए, आधी दुनिया के जज अपनी संपत्तियों, देनदारियों का खुलासा करते हैं। लेकिन भारत इस आधी दुनिया में नहीं है।