वर्तमान में सरकार और न्यायालय में लगातार टकराव होता जा रहा है! प्रजातंत्र में शासन का जिक्र होने पर हम तीन मुख्य अंगों के बारे में पढ़ते हैं- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। ये तीनों मिलकर शासन का कार्य करते हैं। कभी-कभार ऐसा मौका आता है जब किसी फैसले या मामले में दो अंग आमने सामने आ जाते हैं। एक तरह के टकराव की स्थिति बन जाती है। चौथा स्तंभ मीडिया को माना जाता है। संविधान यह सुनिश्चित करता है कि ये सभी एक दूसरे से तालमेल बनाकर काम करें और संतुलन बना रहे। कुछ समय पहले टकराव की स्थिति तब बनी जब राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) गठित करने के लिए संसद से पहल हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को रद्द कर दिया। हाल में केंद्र सरकार के भीतर जब कलीजियम सिस्टम पर खुलकर बोला जाने लगा तो सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल के जरिए इस पर बयान देने से बचने की नसीहत दी। एक दिन पहले राजस्थान विधानसभा में अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन शुरू हुआ तो न्यायपालिका से टकराव एक बार फिर सामने आ गया। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने खरी-खरी बातें कहीं। ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि एनजेएसी अधिनियम क्या था और कलीजियम में क्या होता है जिस पर न्यायपालिका और विधायिका आमने सामने हैं।
दरअसल, जजों की नियुक्ति के लिए मोदी सरकार ने NJAC के रूप में एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था का प्रस्ताव रखा था। यह कलीजियम सिस्टम की जगह लेने वाला था। फिलहाल कलीजियम के तहत ही जजों की नियुक्ति हो रही है। नए सिस्टम में 6 सदस्यों को रखने का प्रस्ताव था। चीफ जस्टिस इस आयोग के प्रमुख होते और सुप्रीम कोर्ट के 2 सीनियर जज, कानून मंत्री और 2 जानीमानी हस्तियां सदस्य के रूप में शामिल होतीं।
अभी कलीजियम सिस्टम में चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों का एक समूह जजों की नियुक्ति और तबादले का फैसला करता है। उसकी सिफारिश पर सरकार मुहर लगाती है। यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि संविधान में कलीजियम व्यवस्था की चर्चा नहीं है। 1998 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ही यह अस्तित्व में आ गया। NJAC पर सुप्रीम कोर्ट राजी नहीं हुआ और उसने संसद के फैसले को ही रद्द कर दिया।
इस आयोग में जिन 2 हस्तियों को शामिल करने की बात थी, उस पर सुप्रीम कोर्ट को आपत्ति थी। ये चीफ जस्टिस, पीएम और लोकसभा में विपक्ष के नेता वाली समिति द्वारा नामित किए जाते। यह भी कहा गया था कि नामित किए जाने वाले व्यक्तियों में एक SC/ST/OBC/अल्पसंख्यक या महिला होगी। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की इस पहल को सिरे से नकार दिया तो भीतर ही भीतर टीस बरकरार है। यही नाराजगी राजस्थान विधानसभा में देखने को मिली।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम निरस्त करने को लेकर न्यायपालिका की आलोचना करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने खुलकर अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि संसद के बनाए कानून को किसी और संस्था की ओर से अमान्य ठहराना प्रजातंत्र के लिए ठीक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में एनजेएसी अधिनियम को निरस्त कर दिया था। धनखड़ ने कहा कि दुनिया में ऐसा कहीं नहीं हुआ है। लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए संसदीय संप्रभुता और स्वायत्तता सबसे ऊपर है।
उपराष्ट्रपति ने जोर देकर कहा कि लोकतंत्र तभी कायम रहता है जब विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका लोगों की आकांक्षाओं को साकार करने के लिए मिलकर काम करती हैं। उनका इशारा संसद के कामकाज में न्यायिक हस्तक्षेप की तरफ था। धनखड़ ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा, ‘…न्यायपालिका-विधायिका संबंधों पर हम ‘शुतुरमुर्ग’ जैसा रवैया नहीं अपना सकते। संसदीय संप्रभुता को कार्यपालिका या न्यायपालिका द्वारा कमजोर करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।’
मौका था राजस्थान विधानसभा में अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन का। उद्घाटन सत्र में धनखड़ ने संवैधानिक संस्थाओं के अपनी सीमाओं में रहकर संचालन करने की बात कही। उपराष्ट्रपति ने कहा, ‘…1973 में एक गलत परंपरा पड़ी, तब केशवानंद भारती के केस में सुप्रीम कोर्ट ने मूलभूत ढांचे का विचार रखा… संसद, संविधान में संशोधन कर सकती है लेकिन मूलभूत ढांचे में नहीं।’ उनका इशारा इस बात की ओर था कि इसका सहारा लेकर न्यायपालिका दखल देती है।
उपराष्ट्रपति ने यह बात ऐसे समय में कही है जब न्यायपालिका में उच्च पदों पर नियुक्ति के मुद्दे पर देशभर में बहस चल रही है। सरकार की ओर से मौजूदा कलीजियम प्रणाली पर सवाल उठाए जा रहे हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट इसका बचाव कर रहा है। धनखड़ ने कहा कि कोई भी संस्था लोगों के जनादेश को बेअसर करने के लिए पावर का इस्तेमाल नहीं कर सकती है। उन्होंने पीठासीन अधिकारियों से कहा कि लोगों की संप्रभुता की रक्षा करना संसद और विधायिकाओं का दायित्व है।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने भी न्यायपालिका के बारे में बड़ी बात कही। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका से संविधान में परिभाषित शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का पालन करने की उम्मीद की जाती है। स्पीकर ने कहा कि संवैधानिक संस्थाओं को एक्टिविज्म से बचना चाहिए। विधायिका और न्यायपालिका के संबंधों पर बिरला ने कहा कि विधानमंडलों ने न्यायपालिका की शक्तियों और अधिकारों का हमेशा सम्मान किया है। न्यायपालिका से भी अपेक्षा की जाती है कि वह संविधान से मिली शक्तियों का उपयोग करते समय सभी संस्थाओं के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का पालन करे।
उन्होंने कहा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही अपने अधिकार संविधान से प्राप्त करते हैं और तीनों के क्षेत्राधिकार का ध्यान रखते हुए आपसी सामंजस्य, विश्वास और सौहार्द के साथ कार्य करना चाहिए। उन्होंने न्यायपालिका को संवैधानिक मर्यादा के भीतर रहने की सलाह दी।
पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने अटॉर्नी जनरल के जरिए कलीजियम प्रणाली पर बयान देने से बचने की नसीहत दी थी। न्यायमूर्ति एस के कौल की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने 8 दिसंबर को अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से सरकार को इस बारे में सलाह देने के लिए कहा था। इस पर धनखड़ ने कहा, ‘…मैं विधायिका की शक्तियों को कमजोर करने में पक्षकार नहीं बन सकता… आज के समय में न्यायिक मंचों से एकतरफा और सार्वजनिक तेवर अच्छे नहीं हैं। इन संस्थानों को पता होना चाहिए कि उन्हें कैसे व्यवहार करना है।’
कुछ दिन पहले भी उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को रद्द कर दिया लेकिन संसद में कोई चर्चा नहीं हुई। यह एक बहुत गंभीर मसला है। धनखड़ ने तब कहा था कि संसद द्वारा पारित कानून लोगों की इच्छा को दर्शाता है, उसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया और दुनिया को ऐसे किसी भी कदम के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इस टकराव से साफ है कि यह कुछ-कुछ ‘वर्चस्व का मामला’ है। सरकार ने कानून बनाया, पर सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि सरकार ऐसा कर ही नहीं कर सकती। पहले जजों की नियुक्ति के मुद्दे पर बातें नहीं होती थीं लेकिन मोदी सरकार ने सिस्टम बदलना चाहा जो अदालत को नागवार गुजरा।