आखिर क्यों हो रही है इजराइल और ईरान में लड़ाई?

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यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर इजराइल और ईरान में लड़ाई क्यों हो रही है! नूरा कुश्ती फारसी मूल का एक टर्म है। यह गंगा के मैदानों में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाता है। फारस आज का ईरान है। मोटे तौर पर नूरा कुश्ती का मतलब ‘आपसी रजामंदी से की लड़ाई या लड़ने का दिखावा करना’ है। नूरा कुश्ती में शामिल पक्ष एक-दूसरे से अंदर ही अंदर मिले होते हैं लेकिन दर्शकों को भ्रम होता है कि उठा-पटक के सारे दांव-पेच सही हैं। अब जब ईरान ने इजरायल पर सैकड़ों ड्रोन और मिसाइल हमले किए तो दुनियाभर के फाइनैंशल मार्केट प्रार्थना कर रहे हैं कि पश्चिम एशिया में बड़ा उथल-पुथल न मचे और यह विभिन्न पक्षों के बीच नूरा कुश्ती ही हो। हमले के बाद अब तक की गतिविधियों से लग भी रहा है कि यह नूरा कुश्ती हो सकती है। शायद यही कारण है कि हमले के बाद सोमवार को तेल की कीमतों में गिरावट आ गई है। ईरान ने दुनिया के कई देशों को बता दिया था कि वह इजरायल पर हमला करने वाला है। आखिर भारत सहित कई देशों ने हमले के ठीक पहले इजरायल की यात्रा को लेकर एडवाइजरी जारी कर दी थी। हमले की पहले से इतनी पक्की जानकारी मिल गई थी कि इजरायल अपने स्कूल-कॉलेज आदि को बंद कर दिया था। शनिवार की रात जब हमले हुए तो न केवल इजरायल का एयर डिफेंस सिस्टम तैयार था, बल्कि क्षेत्र में मौजूद अमेरिकी, ब्रिटिश और फ्रांसीसी सेनाओं के साथ उसका समन्वय भी था। इतना ही नहीं, सऊदी अरब और जॉर्डन की हवाई सुरक्षा भी इजरायल के लिए उपलब्ध थी।

यह मॉडल नया नहीं है। इस साल की शुरुआत में ईरान और पाकिस्तान के बीच भी इसी तरह की झड़प हुई थी। बलूचिस्तान में कथित आतंकी शिविरों पर ईरानी मिसाइल हमलों के जवाब में पाकिस्तान ने ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान क्षेत्र में ठिकानों पर बमबारी की। दोनों पक्षों ने तुरंत ही जवाबी हमले को पीछे छोड़ते हुए तनाव कम करने के लिए कूटनीतिक बातचीत शुरू कर दी।

दुनिया बमुश्किल यूक्रेन और गाजा के दो युद्ध क्षेत्रों के प्रति खुद को सहज कर पाई। ऐसे में अगर ईरान-इजरायल के युद्ध से पश्चिम एशिया में नया बवाल खड़ा हुआ तो दुनिया निश्चित रूप से चिंतित होगी। यह चिंता फाइनैंशल मार्केट्स में दिखने भी लगी है। शुक्रवार को ईरानी हमलों की आशंका में जोखिम वाली संपत्तियों, शेयरों और क्रिप्टो करेंसियों में गिरावट आई, जबकि सोना और अमेरिकी डॉलर जैसी सुरक्षित संपत्तियों के भाव बढ़े। बड़े संघर्ष का वित्तीय बाजार पर निश्चित रूप से व्यापक असर हो सकता है, जिसमें तेल की कीमतों में उछाल सबसे ज्यादा प्रभावी हो सकती है। दुनियाभर को होने वाली ऑइल सप्लाई में पश्चिम एशिया का योगदान लगभग एक तिहाई है। इसमें रूस से होने वाली आपूर्ति का 15-20% हिस्सा भी जोड़ दें, जिसे पश्चिमी देशों से थोपे गए प्रतिबंधों का सामना करना पड़ रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ हफ्तों से तेल की कीमतें 90 डॉलर से ऊपर चल रही हैं।

वैश्विक स्तर पर मंहगाई नियंत्रण में आ गई है, भले ही केंद्रीय बैंकों की उम्मीद से धीमी गति से। तेल की ऊंची कीमतें इस प्रवृत्ति को और भी धीमा कर सकती हैं। यह वास्तव में संबंधित वेरियेबल्स, वैश्विक ब्याज दरों को बिगाड़ सकती है। जोखिम वाले एसेट्स, खास तौर पर इक्विटी, सालभर की तेजी के मध्य में हैं, जो कम से कम आंशिक रूप से नीतिगत दरों में कटौती की उम्मीदों पर आधारित है। खास तौर पर यूएस फेड से इंट्रेस्ट रेट में कटौती की काफी उम्मीद है। ब्याज दरों के घटने की इन उम्मीदों पर पानी फिरा तो रिस्क वाले ऐसेट्स के मौजूदा वैल्युएशनल लेवल्स पर सवाल उठेंगे। इसका खास असर इक्विटी पर देखने को मिलेगा।

दूसरा प्रतिकूल कारक ग्लोबल सप्लाई चेन पर पड़ने वाला प्रभाव है। अदन की खाड़ी/लाल सागर/अरब सागर के रूट पर हूती समुद्री लुटेरों से निपटने का भी टेंशन बना हुआ है। इससे दुनिया के सामूहिक नौसैनिक संसाधनों पर दबाव पड़ा है, अकेले भारतीय नौसेना ने इस प्रयास में एक दर्जन जहाज तैनात किए हैं।

क्षेत्र के दो बड़े देशों के बीच पूरा-पूरा युद्ध की नौबत से सप्लाई चेन बुरी तरह से बाधित होंगी, लागतें बढ़ेंगी और निश्चित रूप से वैश्विक महंगाई बढ़ेगी। ईरान ने बड़ा कदम उठाते हुए होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करने का फैसला किया तो इसका विनाशकारी परिणाम होगा। तेल की कीमतों में वृद्धि भारतीय अर्थव्यवस्था में आई खुशहाली को प्रभावित कर सकती है। तेल की ऊंची कीमतों से व्यापार घाटा बढ़ता है, मुद्रास्फीति बढ़ती है, रुपये पर दबाव बढ़ता है, विदेशी निवेश प्रवाह कम होता है और राजकोष पर दबाव पड़ता है। तेल की कीमतों में हर 10 डॉलर की वृद्धि से भारत के चालू खाता घाटे में लगभग 0.5% की वृद्धि होती है। खपत पहले से ही कमजोर है, इसलिए इसका अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े आधार निवेश, विशेष रूप से सार्वजनिक निवेश पर महत्वपूर्ण नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

अच्छी खबर यह है कि अतीत में भारत के कैपिटल मार्केट्स ने तेल की कीमतों पर लगने वाले झटकों के प्रति काफी लचीलापन दिखाया है। 2006 में लेबनान युद्ध (इजरायल और हिज्बुल्लाह के बीच) से लेकर 2012 में इजरायल के ऑपरेशन पिलर ऑफ डिफेंस (गाजा में) और 2014 में उसी थिएटर में एक और ऑपरेशन तक, जब तेल की कीमतें बढ़ीं तो भारतीय बाजारों पर कोई खास असर नहीं पड़ा।