Friday, December 27, 2024
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70 साल बाद भाजपा के लिए क्यों पैदा हुआ खतरा?

70 साल बाद भाजपा के लिए खतरा पैदा हो चुका है! आजादी मिलने के बाद राज्यों की सीमाएं फिर से बदलीं। 1947 में स्वतंत्रता मिलने के समय भारत 500 से ज्यादा रियासतों में बंटा हुआ था। 1953 में राज्यों के फिर से गठन के लिए आयोग बना। इसका उद्देश्य शासन प्रबंधन में आसानी के लिए राज्यों की सीमाओं का नए सिरे से निर्धारण करना था। खास बात यह कि जाति या धर्म नहीं, भाषा राज्यों का आधार बनी। राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 ने इस काम को पूरा भी किया, लेकिन महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बॉर्डर पर जमीन के एक टुकड़े को लेकर विवाद खड़ा हो गया। साल और दशक बीतते गए लेकिन कोई हल नहीं निकला। सुप्रीम कोर्ट में आज सीमा विवाद से जुड़े इस मामले पर सुनवाई होनी है। आज सुप्रीम कोर्ट में भाजपा vs भाजपा की लड़ाई है। जी हां, दोनों राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी के अजीब धर्मसंकट की स्थिति पैदा हो गई है।भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बाद यह सीमा विवाद 1960 के दशक से बना हुआ है। दरअसल, महाराष्ट्र तत्कालीन ‘बॉम्बे प्रेसीडेंसी’ का हिस्सा रहे बेलगावी पर अपना दावा करता है क्योंकि यहां मराठी भाषा बोलने वालों की अच्छी खासी आबादी है। महाराष्ट्र ने कई मराठी भाषी गांवों पर भी दावा किया है जो वर्तमान में कर्नाटक का हिस्सा हैं। महाराष्ट्र का कहना है कि मराठी भाषी इलाकों को गलत तरीके से कन्नड़ बहुल कर्नाटक को दे दिया गया।

भाजपा के भीतर इस मुद्दे को सुलझाने के लिए गंभीर बैठकें शुरू हो गई हैं। कर्नाटक के सीएम बसवराज बोम्मई ने कल दिल्ली में भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा और कई वरिष्ठ वकीलों से बातचीत की। पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी सुप्रीम कोर्ट में दक्षिणी राज्य की तरफ से पेश होंगे। कर्नाटक का कहना है कि महाराष्ट्र की याचिका ही अवैध है क्योंकि किसी भी राज्य के मामले में पुनर्गठन की समीक्षा नहीं की गई है। महाराष्ट्र में भाजपा के समर्थन से एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री हैं। शिंदे जोर देकर कहते हैं कि शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे बेलगाम (बेलगावी) को महाराष्ट्र का हिस्सा बनाने की मांग के समर्थन में थे।

पहले बेलगाम बहुभाषी बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा था। विजयपुरा, बेलगावी, धारवाड़ और उत्तर कन्नड़ जैसे कर्नाटक के जिले पहले बॉम्बे प्रेसीडेंसी में ही थे। 1947 में आजादी मिलने के बाद बेलगाम बॉम्बे का हिस्सा बना। 1881 की जनगणना के अनुसार, बेलगाम में 64 फीसदी से ज्यादा लोग कन्नड़ भाषा बोलते थे और 26 प्रतिशत से ज्यादा मराठी।

हालांकि 1940 के आसपास मराठी भाषी नेताओं का बेलगाम में दबदबा हो गया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि जिले को प्रस्तावित संयुक्त महाराष्ट्र राज्य में शामिल किया जाए। विरोध के बावजूद राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 में बेलगाम और 10 तालुकाओं को बॉम्बे स्टेट से तत्कालीन मैसूर स्टेट में शामिल कर दिया गया। 1973 में मैसूर राज्य का नाम कर्नाटक पड़ा। इस ऐक्ट के जरिए राज्यों को भाषायी और प्रशासनिक आधार पर विभाजित किया गया।

बॉम्बे सरकार ने केंद्र से विरोध जताया। इसके बाद 1966 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश मेहर चंद महाजन की अध्यक्षता में महाजन आयोग बना। 1967 में आयोग ने विवादित क्षेत्र में महाराष्ट्र को 264 और कर्नाटक को 247 गांव दे दिए। हालांकि आयोग ने तय किया कि बेलगाम को कर्नाटक में ही बने रहना चाहिए। महाराष्ट्र ने इस रिपोर्ट को नहीं माना और कर्नाटक ने यथास्थिति की मांग की। महाराष्ट्र सरकार ने 2006 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की। इसमें उसने बेलगाम पर दावा ठोका। राज्य सरकार ने कहा, ‘कर्नाटक में रहने वाले मराठी भाषी लोगों में असुरक्षा की भावना है।’ बेलगाम जिला और बेलगाम शहर कर्नाटक का हिस्सा बना हुआ है। आज भी जब मुद्दा गरमाता है तो परिवहन सुविधाओं पर असर पड़ता है। बसों की आवाजाही दूसरे राज्य में रोक दी जाती है। ऐसे में यात्रियों को काफी दिक्कत होती है।

कहा जा रहा है कि सीमा से लगे महाराष्ट्र के 40 से अधिक गांवों के लोग कर्नाटक में आना चाहते हैं।इसमें उसने बेलगाम पर दावा ठोका। राज्य सरकार ने कहा, ‘कर्नाटक में रहने वाले मराठी भाषी लोगों में असुरक्षा की भावना है।’ बेलगाम जिला और बेलगाम शहर कर्नाटक का हिस्सा बना हुआ है। आज भी जब मुद्दा गरमाता है तो परिवहन सुविधाओं पर असर पड़ता है। बसों की आवाजाही दूसरे राज्य में रोक दी जाती है। ऐसे में यात्रियों को काफी दिक्कत होती है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने कहा कि इस पर कोई भी निर्णय राज्य के सभी राजनीतिक दलों और कानूनी विशेषज्ञों से परामर्श के बाद ही लिया जाएगा। नेता प्रतिपक्ष सिद्धारमैया ने कहा है कि महाराष्ट्र के उन गांवों को कर्नाटक में शामिल क्यों नहीं किया जाता है, जहां के लोग चाहते हैं? विवाद बना हुआ है। अब दोनों राज्यों की नजरें सुप्रीम कोर्ट पर हैं।

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