पसमांदा मुस्लिम मिशन में बीजेपी सफल होगी या नहीं, यह सबसे बड़ा सवाल है! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर भारतीय जनता पार्टी ने पसमांदा मुसलमानों पर डोरे डालने शुरू कर दिए। इसी वर्ष जुलाई में हैदराबाद में आयोजित बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री ने पसमांदा मुसलमानों को पार्टी से जोड़ने का सुझाव दिया था। उसके बाद भाजपा इस मिशन में जुट गई। अलग-अलग स्तर पर पसमांदा मुसलमानों के सम्मेलन आयोजित किए जाने लगे। खासकर भाजपा का अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ इसकी रणनीति बनाने और उसे जमीन पर उतारने में जुट गया है। लेकिन क्या यह इतना आसान है? क्या मुसलमानों का पिछड़ा वर्ग बीजेपी से जुड़ने को तैयार हो जाएगा? बीजेपी को लगता है कि आठ वर्षों से पीएम मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की गरीब हितैषी योजनाएं बिना भेदभाव के गरीब मुसलमानों तक भी पहुंच रहा है। विभिन्न सर्वेक्षणों में पिछड़े मुसलमानों का तबका दिल खोलकर स्वीकार भी करता है कि मोदी सरकार में उन्हें कई कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिला है। फिर भी सवाल अपनी जगह कायम है कि क्या योजनाओं का लाभ देने के लिए मोदी सरकार की तारीफ करने वाले पसमांदा मुसलमान बीजेपी को वोट भी देने लगेंगे? भारत माता के महान सपूत और संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के विचार तो बीजेपी का इस सपने पर कुठाराघात ही करते हैं। डॉ. आंबेडकर ने 1940-41 में जो बातें कही थीं, उन्हें बीजेपी के लिए पसमांदा मिशन की भविष्यवाणी के तौर पर देखा जा सकता है।
डॉ. आंबेडकर ने कई गंभीर विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं। जब मुसलमानों ने भारत विभाजन और पाकिस्तान निर्माण की मांग की तब उस दौर के माहौल पर बाबा साहेब ने बहुत ही तथ्यात्मक पुस्तक ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ लिखी। इसी पुस्तक में ‘सामाजिक निष्क्रियता’ शीर्षक वाले अध्याय में बाबा साहेब ने मुसलमानों की मानसिकता का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है, ‘मुसलमान सोचते हैं क हिंदुओं और मुसलमानों को सतत संघर्षरत रहना चाहिए। हिंदू मुसलमानों पर अपना प्रभुत्व स्थापति करने और मुसलमान अपनी शासक होने की ऐतिहासिक हैसियत बनाए रखने का प्रयास करता है। इस संघर्ष में शक्तिशाली ही विजयी होगा और अपना शक्तिशाली होना सुनिश्चित करने के लिए उन्हें हर ऐसी चीज का दमन करना अथवा उसे बट्टे-खाते में डाल देना होगा जो उनकी एकजुटता में दरार डालती है।’
यह तो महज झलक है। पसमांदा मुसलमानों की सोच पर बाबा साहेब ने जो कहा, उसका जिक्र आगे करेंगे। पहले जान लें कि उन्होंने मुस्लिम समाज का वर्गीकरण पर क्या कहा। डॉ. आंबेडकर लिखते हैं, ‘मुसलमान दो मुख्य सामाजिक विभक्त मानते हैं- 1. अशरफ अथवा शरफ और 2. अजलफ। अशरफ से तात्पर्य ‘कुलीन’ और इसमें विदेशियों के वंशज तथा ऊंची जाति के धर्मांतरित हिंदू शामिल हैं। व्यावसायिक वर्ग और निचली जातियों के धर्मांतरित शेष अन्य मुसलमान अजलफ अर्थात नीच, अथवा निकृष्ट व्यक्ति माने जाते हैं। उन्हें कमीना अथवा इतर कमीना या रासिल, जो रिजाल का भ्रष्ट रूप है, ‘बेकार’ कहा जाता है। कुछ स्थानों पर एक तीसरा वर्ग ‘अरजल’ भी है जिसमें आने वाले व्यक्ति सबसे नीच समझे जाते हैं। उनेक साथ कोई भी अन्य मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है।’
बाबा साहेब कहते हैं कि जनगणना-अधीक्षक ने मुस्लिम सामाजिक व्यवस्था के एक और पक्ष का भी उल्लेख किया है। यह है ‘पंचायत प्रणाली’ का प्रचलन। डॉ. आंबेडकर ने सेंसस सुपरिन्टेंडेंट के हवाले से कहा, ‘पंचायत का प्राधिकार सामाजिक तथा व्यापार संबंधी मामलों तक व्याप्त है… अन्य समुदायों के लोगों से विवाह एक ऐसा अपराध है जिस पर शासी निकाय कार्रवाई करता है। परिणामतः ये वर्ग भी हिंदू जातियों के समान ही प्रायः कठोर संगोती हैं, अंतर-विवाह पर रोक ऊंची जातियों से लेकर नीची जातियों तक लागू है। उदाहरणतः कोई धूमा अपनी ही जाति अर्थात धूमा में ही विवाह कर सकता है। यदि इस नियम की अवहेलना की जाती है तो ऐसा करने वाले को तत्काल पंचायत के समक्ष पेश किया जाता है। एक जाति का कोई भी व्यक्ति आसानी से किसी दूसरी जाति में प्रवेश नहीं ले पाता और उसे अपनी जाति का नाम कायम रखना पड़ता है जिसमें उसने जन्म लिया है। अपना विशिष्ट पेशा त्यागकर जीवन-यापन के लिए कोई अन्य साधन अपना लेने पर भी उसे उसी समुदाय का सदस्य माना जाता है जिसमें कि उसने जन्म लिया था… हजारों जुलाहे कसाई का धंधा अचानक अपना चुके हैं किंतु वे अब भी जुलाहे ही कहे जाते हैं।’
अब बात बीजेपी के पसमांदा मिशन की। डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि पिछड़े मुसलमान अपने शोषक मुसलमानों के खिलाफ आवाज नहीं उठाते ताकि हिंदुओं के खिलाफ उनका संघर्ष कमजोर नहीं पड़ जाए। वो लिखते हैं, ‘मुस्लिम राजनीतिज्ञ जीवन के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को अपनी राजनीति का आधार नहीं मानते क्योंकि उनके लिए इसका अर्थ हिंदुओं के विरुद्ध अपने संघर्ष में अपने समुदाय को कमजोर करना ही है। गरीब मुसलमान धनियों से इंसाफ पाने के लिए गरीब हिंदुओं के साथ नहीं मिलेंगे। मुस्लिम जोतदार जमींदारों के अन्याय को रोकने के लिए अपनी ही श्रेणी के हिंदुओं के साथ एकजुट नहीं होंगे। पूंजीवाद के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में मुस्लिम श्रमिक हिंदू श्रमिकों के साथ शामिल नहीं होंगे। क्यों? इसलिए क्योंकि शामिल होने पर निश्चय है।’
वो आगे कहते हैं, ‘गरीब मुसलमान यह भी तो सोचता है कि धनी के खिलाफ गरीबों के शंघर्ष में शामिल है तो उसे एक धनी मुसलमान से भी टकराना होगा। मुस्लिम जोतदार यह महसूस करते हैं कि यदि वे जमींदारों के खिलाफ अभियान में आगे बढ़ें उन्हें एक मुस्लिम जमींदार के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ सकता है। मुसलमान मजदूर भी यही सोचता है कि पूंजीपति के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में वह मुस्लिम मिल-मालिक की भावनाओं को आघात पहुंचाएगा। वह इस बारे में सजग है कि किसी धनी मुस्लिम, मुस्लिम जमींदार अथवा मुस्लिम मिल-मालिक को आघात पहुंचाना मुस्लिम समुदाय को हानि पहुंचाना है और ऐसा करने का तात्पर्य हिंदू समुदाय के विरुद्ध मुसलमानों के संघर्ष को कमजोर करना होगा।’
तो क्या बीजेपी के पास पसमांदा मुसलमानों को मनाने का कोई रास्ता नहीं है? डॉ. आंबेडकर ने इसका सीधा जवाब तो नहीं दिया, लेकिन उनके विचारों का संकेत तो समझा ही जा सकता है। बाबा साहेब मुसलमानों में किसी भी तरह के सुधार को लेकर अड़ियलपन पर खुलकर बात करते हैं। वो लिखते हैं, ‘यदि अन्य देशों में मुसलमानों ने अपने समाज को सुधारने का काम शुरू किया है और भारत के मुसलमान ऐसा करने से इनकार करते हैं तो उसका कारण यह है कि अन्य देशों में मुसलमानों का प्रतिद्वंद्वी समुदायों से कोई सांप्रदायिक और राजनीतिक संघर्ष नहीं है लेकिन भारत के मुसलमानों की स्थिति इससे बिल्कुल भिन्न है।’
स्वाभाविक है जब मुसलमानों की सारी सोच हिंदुओं के खिलाफ संघर्ष के ईर्द-गिर्द ही घूमती है, उनकी सारी योजनाओं का केंद्र बिंदु हिंदू विरोध ही होता है तो फिर बीजेपी के साथ पसमांदा मुसलमानों की जुड़ने की संभावनाओं का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। लेकिन क्या 1940 के मुसलमान और आज के मुसलमानों में अंतर नहीं है? तब पाकिस्तान की मांग को लेकर पूरे भारत में हिंदू-मुसलमानों के बीच अविश्वास और विरोध का भाव उफान पर था। अब तो पाकिस्तान बने 75 वर्ष हो गए। क्या भारतीय मुसलमानों ने इन वर्षों में आगे कदम नहीं बढ़ाया है? क्या आज भी भारत का मुसलमान उसी सोच से ग्रसित है जो 1940 में उसे जकड़ी हुई थी? अपने आसपास और देश-दुनिया के माहौल पर गौर कीजिए, हर सवाल का जवाब मिलता जाएगा।