ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या काँग्रेस तेलंगाना में सरकार बना पाएगी या नहीं! तेलंगाना अलग राज्य बनने का पहला दशक खत्म होने के कगार पर है। इस बीच, दक्षिण भारत के इस प्रदेश की राजनीति में कुछ नाटकीय बदलाव देखे जा रहे हैं। एक साल के भीतर कांग्रेस और बीजेपी का स्थान बदल गया है। कांग्रेस जहां मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में दूसरे तो बीजेपी तीसरे स्थान पर जा पहुंची है। केसीआर की सत्ताधारी भारत राष्ट्र समिति बीआरएस का तेलंगाना की राजनीति में लंबे समय से दबदबा रहा है लेकिन तेजी से बढ़ती कांग्रेस के खिलाफ वह मुश्किल से ही अपनी पकड़ बनाए दिख रही है। तीन महीने पहले, पीपुल्स पल्स सर्वेक्षण ने बीआरएस को कांग्रेस से काफी आगे लगभग 9% का अंतर रखा था। हालांकि, सोमवार को एबीपी-सीवोटर सर्वेक्षण से पता चला कि कांग्रेस ने यह अंतर कम कर लिया है। इसमें कांग्रेस का वोट शेयर 39%, बीआरएस 38% और बीजेपी 3% दिखाया गया है। मोटे तौर पर, कांग्रेस को 2018 के चुनावों की तुलना में 10% वोट शेयर का बड़ा लाभ जबकि बीआरएस को नुकसान हुआ है।
तेलंगाना चुनावों का दिलचस्प सवाल यह नहीं है कि वहां सत्ता विरोधी रुझान है या नहीं बल्कि सवाल है कि कितना है क्योंकि पिछले दो वर्षों में हुए उपचुनावों में सत्ता विरोधी रुझान स्पष्ट रूप से देखा गया है। दिलचस्प सवाल यह है कि क्या बीआरएस संभावित नुकसान को कम कर सकती है और क्या कांग्रेस ऐसा अभियान चला सकती है जो इस छिपी हुई सत्ता विरोधी लहर को बीआरएस विरोधी लहर में बदल दे?
हम दो मुख्य राजनीतिक दलों की मौजूदा व्यापक रणनीतियों का विश्लेषण करके तेलंगाना के चुनावी युद्ध के मैदान का मुआयना कर सकते हैं। बीआरएस के लिए सत्ता की कुर्सी तक का रास्ता उसके नेतृत्व और सोशल इंजीनियरिंग की प्रमुख शक्तियों को भुनाने से होकर जाता है। वह पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व देकर प्रमुख अभिजात्य वर्ग को अपने साथ रखने की कोशिश करती है।
बीआरएस अपनी चुनावी जीत के लिए पिछड़े वर्ग के विभिन्न समूहों को उनकी जरूरतों के मुताबिक विशेष योजनाएं लागू करके लुभाती है। यह निचले तबके लिए उसकी सोशल इंजीनियरिंग का तरीका है। इसमें आदिवासियों के लिए आरक्षण में वृद्धि 6% से 10% और मुआवजे में ‘पोडू’ जमीन का बंटवारा, दलित परिवारों के लिए ₹10 लाख की वित्तीय अनुदान योजना दलित बंधु और कुछ पिछड़ी जातियों एवं गरीब अल्पसंख्यकों को ₹1 लाख की सहायता राशि शामिल है। ये सभी कल्याणकारी योजनाएं मुख्यमंत्री द्वारा व्यक्तिगत रूप से संचालित और उनकी पहचान से जुड़ी हैं जो पिछले एक साल में लागू की गई हैं। इससे सीएम केसीआर और उनकी पार्टी बीआरएस की व्यापक लोकप्रियता बढ़ी है।
कांग्रेस की रणनीति अधिक वैचारिक है। इसने पिछड़ी जातियों, आदिवासियों, दलितों और मुसलमानों का एक वर्ग आधारित गठबंधन बनाने के उद्देश्य से छह गारंटी दी है। ये पिछड़े वर्ग राज्य की लगभग 90% आबादी हैं दलित 16%, आदिवासी 9%, मुस्लिम 13%, ओबीसी 50% और बाकी 10% में प्रभावी रेड्डी और वेल्लमा जातियों के साथ-साथ कुछ अन्य ऊंची जातियां शामिल हैं। इस पिछड़े वर्ग ने ही तेलंगाना आंदोलन 2009-2014 के निर्णायक अंतिम चरण को भी ताकत दी थी। तब गांवों में आर्थिक दुर्दशा का हवाला देकर एक अलग राज्य की मांग की गई थी।
उस वक्त विशेषाधिकार प्राप्त जाति आंध्र कुलीन वर्ग के खिलाफ कुलीन विरोधी भावना चरम पर थी। अब कांग्रेस उम्मीद लगाए बैठी है कि वह तेलंगाना के कुलीन वर्ग को निशाना बना रही कुलीन विरोधी भावना का फायदा उठा पाएगी, जिसमें मुख्य रूप से रेड्डी और वेल्लमा की प्रमुख जमींदार जातियां शामिल हैं और इन्हें बीआरएस से संरक्षण प्राप्त है।
इस धारणा के अनुसार, राज्य के आम लोगों को तेलंगाना आंदोलन के दौरान किए गए वादों का लाभ अभी तक नहीं मिला है। कांग्रेस की गारंटियों में किसानों के लिए नकद सब्सिडी वाली रायथु भरोसा योजना शामिल है। बीआरएस की मौजूदा रायथु बंधु योजना और कांग्रेस की प्रस्तावित सब्सिडी के बीच राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण अंतर यह है कि कांग्रेस की योजना में उन किरायेदार किसानों और भूमिहीन मजदूरों को भी शामिल किया गया है जो बीआरएस की योजना में शामिल नहीं हैं।
लोगों के मतदान विकल्प का तीसरा निर्धारक निश्चित रूप से पार्टी है। यहां भी बीआरएस को अपनी व्यवस्थित संगठन की कमी और उसके परिणामस्वरूप वास्तविक नेताओं की कमी के कारण समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसके विपरीत, कांग्रेस ने 2018 में मिली हार के बाद पार्टी को कर्नाटक की तरह ही मजबूत किया है, मुख्य रूप से विभिन्न वर्ग के नेताओं को बढ़ावा देकर। इसके अनुमानित राज्य नेतृत्व और संभावित सीएम उम्मीदवार न केवल इसके पारंपरिक रेड्डी गुट से आते हैं, बल्कि इसमें दलित और आदिवासी भी शामिल हैं, जैसे कि सीएलपी नेता भट्टी विक्रमार्का और माओवादी से विधायक बने डी. सीतक्का।
अंत में कुछ एक्स फैक्टर भी काम कर रहे हैं, जिनमें कम से कम तीसरी पार्टी, बीजेपी की महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है। पिछले कुछ महीनों में इस आरोप के आधार पर इसे बहुत नुकसान हुआ है कि यह बीआरएस के साथ समझौता कर चुकी है। बीजेपी के वोट शेयर में अब गिरावट प्रमुख जातियों और कुछ पिछड़ी जातियों से मिलकर कांग्रेस के लिए फायदेमंद हो सकती है। इसलिए बीआरएस को उम्मीद होगी कि बीजेपी इतनी अच्छी तरह से लड़ेगी कि इसे त्रिकोणीय मुकाबला बनाया जाए, जिससे सत्ता विरोधी वोट बंट जाए। बीआरएस और कांग्रेस के बीच हैदराबाद की लड़ाई अभी भी कांटे की टक्कर पर है।