क्या खरगे के निर्देशन में 2024 में जीत पाएगी कांग्रेस?

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खरगे के निर्देशन में 2024 में जीत पाना, अब कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकता है! अगर शशि थरूर पश्चिम के किसी देश में पार्टी नेतृत्व के लिए चुनाव लड़ते तो शायद वह बेहतर प्रदर्शन किए होते। उनके लिए समस्या यह थी कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव अमेरिका में डेमोक्रैटिक पार्टी के प्राइमरी इलेक्शन से बहुत अलग है क्योंकि असल में इसमें पार्टी के सभी सदस्य फैसला नहीं करते। यह किसी बड़ी खाप पंचायत के अगुवा को चुनने की तरह है। इसलिए चुनाव नतीजे नामांकन वाले दिन से ही साफ थे जब कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज नेता शशि थरूर के प्रतिद्वंद्वी मल्लिकार्जुन खरगे के साथ सार्वजनिक तौर पर फोटो खिंचवाने की होड़ में थे।स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की तो बात ही बेमानी है क्योंकि नेतृत्व की पसंद के खिलाफ वोट करना डेलिगेट्स के लिए कतई आसान नहीं है। नेतृत्व जिसके पीछे खड़ा दिख रहा हो उसके विरोध में चाहकर भी कई डेलिगेट वोट डालने की हिम्मत नहीं कर सकते। कांग्रेस की सस्याओं की मूल जड़ पार्टी की नौकरशाही वाली शिथिल व्यवस्था है।

शशि थरूर ने जो सबसे प्रमुख वादा किया था वह यह था कि संगठन में हर स्तर पर चुनाव कराए जाएंगे। फैसलों में लोकल यूनिट्स से लेकर स्टेट यूनिट तक की हिस्सेदारी हो। इससे जमीन से कटे और बूढ़े हो चुके हर नेता के काम खड़े हो गए। चाहे वे अंबिका सोनी जैसे गांधी परिवार के वफादार हों या फिर आनंद शर्मा जैसे असंतुष्ट समूह G-23 के नेता। उन्होंने तुरंत जान लिया कि शशि थरूर की उम्मीदवारी तो कुछ और ही है। यह तो पार्टी की ब्यूरोक्रेसी के खिलाफ ही एक तरह का अविश्वास प्रस्ताव है।इसके बाद तो उन्होंने जो किया उसके लिए पलक झपकने तक की देरी नहीं की और न ही गांधी परिवार से मंजूरी का इंतजार किया। यह था थरूर को अलग-थलग करना और अपनों में से किसी एक को चुनना।

वैसे अतीत में ऐसे कई उदाहरण हैं जब कमजोर समझे जाने वाले नेता को सिर्फ इसलिए पार्टी की कमान मिली कि वह कमजोर है। लेकिन उसने गांधी परिवार के दखल के बिना स्वतंत्र रूप से काम करने की कोशिश की। 1996 में 76 साल के सीताराम केसरी को कांग्रेस की कमान मिली। एक ऐसे नेता को जिसका अपना कोई राजनीतिक आधार नहीं था। यहां तक कि अपने गृहराज्य बिहार में ही उनकी कोई सियासी जमीन नहीं थी। लेकिन केसरी ने चुनाव में शरद पवार और राजेश पायलट जैसे दिग्गजों को बहुत ही आसानी से धूल चटा दी।

राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पर निश्चित तौर पर गांधी परिवार का नियंत्रण नहीं था। सोनिया गांधी राजनीति में आना नहीं चाहती थीं। लेकिन तब भी वह उस वक्त एक पावर सेंटर थीं। उनकी ताकत पार्टी नेताओं की गुटबाजी और कलह की वजह से थी।

पार्टी ने एक ऐसे कल्चर को जन्म दिया है जिसमें कुछ बुजुर्ग नेता खुद को पार्टी की नौकरशाही में हमेशा ऊपरवाला मानते हैं। ओल्ड गार्ड की एक ऐसी जमात जो इंदिरा और राजीव युग में कांग्रेस में आए थे। वे शीर्ष नेतृत्व की संरक्षणवादी नीति में रच-बस गए। उन्होंने कभी प्रतिस्पर्धा की राजनीति को बढ़ावा नहीं दिया जिसमें संगठन के भीतर वे लोग आगे बढ़ें जिनमें योग्यता हो, जो बेहतरी की होड़ में शामिल हों।थरूर का समर्थन सिर्फ मिडल-क्लास तक सीमित रहने की बात कहकर उन्हें खारिज करना आसान है लेकिन कांग्रेस जबतक इसी मिडल-क्लास के मोहभंग को दूसर नहीं करती तबतक वह अपना पुराना गौरव हासिल नहीं कर सकती। मिडल-क्लास ही धारणा बनाता-बिगाड़ता है।

थरूर ने तीन तरह से खुद को मिडल-क्लास की आकांक्षाओं से जोड़ा है- उनके साथ भावनात्मक जुड़ाव, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद पर मिडल-क्लास की चिंताओं को बिना लागलपेट कहना और मिडल-क्लास को सियासी रणभूमि के केंद्र में स्थापित करने की कोशिश।कांग्रेस के परंपरागत नेता शायद खुद को इस उम्मीद के हवाले छोड़ दिए हैं कि जब अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी तो जनता को फिर कांग्रेस और मनमोहन सिंह के नेतृत्व की याद आएगी।

असल में खरगे को लीडरशीप रोल में सिलेक्ट किया गया है। वह फैसलों के लिए गांधी परिवार पर निर्भर रहेंगे। इसकी गुंजाइश कम ही है कि वह पार्टी में नई जान फूंकने के लिए जरूरी सुधारों की दिशा में बढ़ेगे। राहुल गांधी जनता को जोड़ने की मुहिम भारत जोड़ो यात्रा पर निकले हुए हैं। उदयपुर रिजोलूशन में जिस सुधार का खाका खींचा गया वह अब मुरझाता हुआ दिख रहा है।कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव को लेकर जितना शोरगुल रहा उसको शायद इन दो बिंदुओं में समेटा जा सकता है।