Friday, November 22, 2024
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क्या कांग्रेस को मिली हार का 2024 में राहुल पर पड़ेगा असर?

हाल ही में हुए चुनाव में कांग्रेस को मिली हार का राहुल गांधी पर 2024 में असर जरूर पड़ेगा! लोकसभा चुनाव से महज 4-5 महीने पहले। हिंदी पट्टी के तीन अहम राज्यों में एकतरफा जीत। 4 राज्यों की चुनावी जंग में 3-1 से जीत का परचम। 2024 से पहले इस जबरदस्त जीत से बीजेपी का दिल बाग-बाग होना लाजिमी है। मध्य प्रदेश में वह प्रचंड बहुमत से अपनी सरकार बचाने में कामयाब होती दिख रही है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी ने कांग्रेस की सत्ता को उखाड़ दिया है। राजस्थान में तो वैसे भी पिछले कई चुनाव से हर बार सत्तापरिवर्तन की परंपरा रही है लेकिन छत्तीसगढ़ का कांग्रेस के हाथ से फिसलना ग्रैंड ओल्ड पार्टी के लिए जबरदस्त झटके की तरह होगा। हालांकि, तेलंगाना में पार्टी ने बीआरएस के विजयरथ को रोकते हुए उसे पहली बार दक्षिण भारत के किसी राज्य में किसी पार्टी की हैटट्रिक का करिश्मा करने से भी रोक दिया। कर्नाटक के बाद तेलंगाना में जीत से कांग्रेस को दक्षिण भारत में मजबूती जरूर मिली है लेकिन हिंदीभाषी प्रदेशों में राहुल गांधी की ‘मोहब्बत की दुकान’ नहीं चल पाई। जनता ने शटर ही डाउन कर दिया। लोकसभा चुनाव से पहले हुए इन चुनावों में बीजेपी का कौन सा दांव चला, कांग्रेस का कौन सा फेल हुआ, आइए समझते हैं। राहुल गांधी अक्सर ‘मोहब्बत की दुकान’ की बात करते हैं। बीजेपी को नफरत फैलाने वाला करार देते हैं। लेकिन ‘मोहब्बत की दुकान’ में ‘पनौती’ जैसे निजी हमलों के सामान को जनता ने भाव नहीं दिया। राजस्थान में चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमला करते हुए उन्हें ‘पनौती’ करार दिया था। क्रिकेट वर्ल्ड कप फाइनल में भारत की हार को स्टेडियम में पीएम मोदी की मौजूदगी से जोड़ते हुए कांग्रेस नेता ने कहा कि ‘अच्छा खासा मैच जीत रहे थे लेकिन पनौती ने हरवा’ दिया। वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी राहुल गांधी पर निजी हमले किए थे। एक चुनावी रैली में उन्होंने बिना नाम लिए राहुल गांधी का ‘मूर्खों का सरदार’ कहकर मखौल उड़ाया था। संभवतः उसी के जवाब में राहुल गांधी ने ‘पनौती’ वाला वार किया। लेकिन यहां संभवतः वह गलती कर गए। नरेंद्र मोदी खुद पर हुए निजी हमलों को भुनाने में माहिर हैं। इससे पहले भी जब-जब कांग्रेस या विपक्ष की तरफ से उन पर निजी हमले हुए हैं, उन्होंने उससे अपने पक्ष में एक तरह की सहानुभूति लहर पैदा करने में कामयाबी हासिल की है।

इस जीत का असल सेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सिर ही बंधेगा। बीजेपी ने इन चुनावों में किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरा नहीं घोषित किया था। पूरा नाम सामूहिक नेतृत्व और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा गया। इसी साल कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में भी बीजेपी ने बिना सीएम फेस दिए चुनाव लड़ा था लेकिन दोनों ही राज्यों में उसका ये प्रयोग बुरी तरह फेल हुआ था। इसके बावजूद बीजेपी ने इस बार भी किसी भी राज्य में सीएम फेस घोषित नहीं किया। पीएम मोदी ने चुनावी राज्यों में धुआंधार प्रचार किया। रोडशो किए। पीएम ने अपनी सरकार की उपलब्धियों, जी-20 समिट के सफल आयोजन के बहाने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के बढ़ते कद, चंद्रयान-3 की सफलता, राम मंदिर निर्माण, विपक्षी की तरफ से सनातन के कथित अपमान सरीखे राष्ट्रीय मुद्दों को जोर-शोर से उठाया। नतीजे तो यही बता रहे हैं कि पीएम मोदी के चेहरे पर राज्यों के चुनाव लड़ने का बीजेपी का दांव इस बार हिट रहा है।

2 अक्टूबर को बिहार में जाति गणना के नतीजों का औपचारिक ऐलान हुआ। ओबीसी की संख्या 1931 की जगणना के वक्त 52 प्रतिशत के मुकाबले बढ़कर 63 प्रतिशत होने का पता चलते ही कांग्रेस को खुद के लिए बड़ा मौका दिखा। ओबीसी वर्ग में बीजेपी की पैठ की काट के लिए उसने राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना का राग छेड़ दिया। 9 अक्टूबर को जिस दिन 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव की तारीखों के ऐलान हुए, उसी दिन कांग्रेस कार्यसमिति में प्रस्ताव पास हुआ- केंद्र की सत्ता में आए तो राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना कराएंगे। चुनावी रैलियों में कांग्रेस के नेता खासकर राहुल गांधी जाति गणना का मुद्दा जोर-शोर से उठाने लगे। ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा बुलंद करने लगे। चुनाव वाले इन चारों राज्यों में ओबीसी आबादी करीब 40 प्रतिशत होने का अनुमान है।

कांग्रेस के इस दांव के जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी ने इस विपक्ष की बांटने वाली मानसिकता करार दिया। पीएम मोदी ने सिर्फ चार जातियों की बात कही- गरीब, युवा, महिलाएं और किसान। कहा कि इन जातियों को उबारे बिना देश सशक्त नहीं होगा। कांग्रेस के जाति जनगणना कार्ड की काट के लिए पीएम मोदी ने चुनावी रैलियों में सनातन के अपमान का मुद्दा जोर-शोर से उठाया। उन्होंने विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. में शामिल डीएमके और आरजेडी जैसी पार्टियों के कई नेताओं के बार-बार सनातन विरोधी बयान का मुद्दा उठाकर कांग्रेस के जाति कार्ड को भोथरा करने की कोशिश की। नतीजे इशारा कर रहे हैं कि कांग्रेस का जाति जनगणना कार्ड बुरी तरह फेल हुआ है। उसे उम्मीद थी कि इसके जरिए वह बीजेपी के ओबीसी वोट बैंक में सेंध लगा सकती है लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इतना ही नहीं, मोदी सरकार की तरफ से चुनाव के ऐलान से महज एक महीने पहले कारीगर ओबीसी जातियों के लिए विश्वकर्मा योजना को लॉन्च करने का भी संभवतः फायदा मिला।

नतीजों से जाहिर होता है कि बीजेपी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में आदिवासी वर्ग को साधने में कामयाब हो गई है। 2018 के चुनावों में आदिवासी वर्ग उससे छिटक गया था जिसकी उसे तीनों ही राज्यों में बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। पिछली बार बीजेपी मध्य प्रदेश में एससी के लिए सुरक्षित 35 सीटों में से 18 पर तो जीत हासिल कर ली थी लेकिन एसटी के लिए सुरक्षित 47 सीटों में से महज 16 पर उसे जीत मिली थी। इसी तरह छत्तीसगढ़ में एससी के सुरक्षित 10 सीटों में बीजेपी महज 2 और एसटी के लिए सुरक्षित 29 सीटों में से महज 3 पर ही जीत हासिल कर पाई थी। कुछ ऐसा ही हाल राजस्थान में रहा। जहां एससी के लिए सुरक्षित 34 सीटों में से बीजेपी महज 12 ही जीत पाई थी। एसटी के लिए सुरक्षित 25 सीटों में उसे 9 पर जीत मिली। इस वजह से बीजेपी तीनों ही राज्यों में सत्ता से बाहर हो गई। हालांकि, बाद में ज्योतिरादित्य सिंधिया की कांग्रेस से बगावत के बाद वह मध्य प्रदेश की सत्ता पर फिर से काबिज होने में कामयाब हुई। 2018 के झटके के बाद से ही बीजेपी आदिवासी वर्ग को लुभाने बीजेपी ने जब दलित रामनाथ कोविंद के बाद आदिवासी द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया तो उसके पीछे दलित और आदिवासी वोटों को सहेजने की रणनीति भी थी। मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं और राज्यों की सरकारों की भी कुछ स्कीमों की बदौलत बीजेपी ने एक बड़ा वोट बैंक तैयार कर लिया है, जो है लाभार्थी वर्ग।

वैसे तो इन चुनावों को लोकसभा चुनाव से पहले ‘सत्ता का सेमीफाइनल’ भी कहा गया लेकिन नतीजों का 2024 पर कोई सीधा असर पड़ेगा, ऐसा पुख्ता तौर पर नहीं कह सकते। हिंदी पट्टी के इन तीनों राज्यों के चुनाव परिणामों और उसके अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के नतीजों में कोई सीधा संबंध नहीं है। 2013 में बीजेपी ने तीनों राज्यों में जीत हासिल की थी और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी इन राज्यों में बीजेपी का जबरदस्त प्रदर्शन रहा। 2018 में बीजेपी तीन में से तीनों राज्य गंवा दी हालांकि एमपी में बाद में कांग्रेस विधायकों के पाला बदल के बाद सरकार बनाने में कामयाब रही लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन एक बार फिर दमदार रहा। हां, इतना जरूर है कि कर्नाटक और हिमाचल की जीत के बाद कांग्रेस के जो हौसले सातवें आसमान पर थे, अब एक झटके में पार्टी पस्त हो गई है। इस झटके से कांग्रेस के मनोबल पर बहुत ही विपरीत असर पड़ेगा। लोकसभा चुनाव से पहले I.N.D.I.A. गठबंधन के भीतर संभावि सीट बंटवारे में कांग्रेस का जो अपर हैंड था, अब नहीं रहा। मोल-तोल करने की उसकी क्षमता भी बुरी तरह प्रभावित होगी। हां, तेलंगाना के नतीजे जरूर कांग्रेस के लिए सांत्वना की तरह है जहां वह बीआरएस और केसीआर को सूबे की सत्ता में हैटट्रिक लगाने से न सिर्फ रोक दिया बल्कि 2014 में वजूद में आने वाले इस दक्षिण भारतीय राज्य में पहली बार सत्ता का स्वाद चखने जा रही है।

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