यह सवाल उठना लाजमी है कि समाजवादी पार्टी को दलित वर्ग वोट करेगा या नहीं! लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक यानी पीडीए वोटबैंक हासिल कर सत्ता तक पहुंचने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। एक तरफ अखिलेश यादव बहुजन समाज पार्टी के कई दिग्गज नेताओं को अपने पाले में कर चुके हैं। दूसरी तरफ पश्चिम उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर भी सपा-रालोद गठबंधन के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। कभी मायावती के खासमखास माने जाने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य भी भाजपा होते हुए अब समाजवादी पार्टी से जुड़ चुके हैं। उनके राम चरित मानस से लेकर तमाम ‘हिंदू बनाम बौद्ध’ बयानों को दलित वोटबैंक साधने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश के सियासी इतिहास पर नजर डालें तो अभी भी बड़ा सवाल है कि क्या दलित समाजवादी पार्टी को वोट करेगा? बात 90 के दशक से शुरू होती है। कांशीराम की अगुवाई में बहुजन समाज पार्टी दलितों की आवाज बनकर उभर रही थी। उधर यादव मुस्लिम गठजोड़ के साथ मुलायम सिंह यादव सत्ता के लिए दावेदारी शुरू कर चुके थे। भाजपा राम मंदिर आंदोलन पर सवार थी। भाजपा के विजयी रथ को हराने के लिए सपा और बसपा ने पहली बार गठबंधन किया और सरकार बना ली। लेकिन ये सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चली। इस गठबंधन का कड़वा अंत हुआ। ये कड़वाहट धीरे-धीरे सियासी रंग लेती गई। यूपी की राजनीति में बसपा और सपा दो प्रमुख प्रतिद्वंदी पार्टी बनकर उभरीं। बीच-बीच में भाजपा जरूर गुणा-गणित कर सरकार बनाने में कामयाब होती रही लेकिन असल मुकाबला बसपा और सपा के बीच ही दिखता रहा।
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि उत्तर प्रदेश के सामाजिक स्थिति भी विरोध की इस राजनीति को ऑक्सीजन देती रही। उत्तर प्रदेश में कई ऐसे इलाके हैं, जहां दलितों की पिछड़ों खासकर यादवों से सीधी लड़ाई है। सपा और बसपा दोनों को इसका भरपूर लाभ मिला। 2007 में ऐसा भी समय आया, जब बसपा अकेले यूपी की सत्ता तक पहुंच गई। उस चुनाव में यूपी की आरक्षित 89 सीटों में से 61 पर बसपा ने परचम लहराया, समाजवादी पार्टी 13 और बीजेपी 7 सीटें जीत सकी। लेकिन 2012 आते-आते स्थितियां पलट गईं। बसपा को सत्ता से बाहर कर समाजवादी पार्टी ने बहुमत की सरकार बना ली। इसमें 85 आरक्षित सीटों में से 59 पर सपा ने कब्जा जमाया, जबकि बसपा 14 सीटें ही जीत सकीं। सपा की इस जीत के पीछे सत्ता विरोधी लहर और बसपा का एकमात्र ऑप्शन होना माना गया। लेकिन बसपा को अभी और बुरे दिन देखने बाकी थे। दो साल बाद, जो हुआ वह इतिहास ही बन गया। 2014 में बसपा उत्तर प्रदेश में एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत सकी। हालांकि भाजपा की लहर के बावजूद सपा 5 और कांग्रेस 3 सीटें बचाने में कामयाब रही।
जानकार मानते हैं कि 90 के दशक में बसपा के उदय के बाद 2014 का लोकसभा चुनाव दलित राजनीति के लिहाज से काफी अहम था। पहली बार दिखने लगा कि बसपा के दलित वोटबैंक में सेंध लग चुकी है। दलित समाज अब बसपा के अलावा भाजपा को भी ‘अपना’ मानकर चलने लगा है। 2017 के विधानसभा चुनाव में ये बात पक्की भी हो गई। जब भाजपा ने यूपी में बड़े बहुमत की सरकार बनाई और दलितों की पार्टी बसपा महज 19 सीटें ही जीत सकी। 2017 में यूपी की 84 आरक्षित सीटों पर नजर डालें तो इसमें से 71 सीटें अकेले भाजपा ने जीत लीं। चार सीटें अपना दल 1 और सुभासपा 3 बीजेपी की ही सहयोगी पार्टी के हिस्से में आईं। समाजवादी पार्टी ने 6 सीटें जीतीं, जबकि बसपा सिर्फ एक सीट ही अपने नाम कर सकी।
यूपी के सियासी इतिहास को देखें तो दलित समाज 90 के दशक तक कांग्रेस का वोट बैंक रहा। बसपा के उदय के बाद से ये वोटबैंक उसकी सबसे बड़ी ताकत बन गया। वर्षों तक ये स्थिति बनी रही कि यूपी मे 20 फीसदी वोट तो मायावती के पक्के ही हैं। ये वो जमाना था जब 25 फीसदी वोट हासिल करने वाली पार्टी सरकार बना लेती थी। दलितों में भी कई समाज हैं, इनमें मायावती खुद जाटव समाज से आती हैं और ये समाज हमेशा से बसपा के साथ जुड़ा रहा। लेकिन बाकी समाज के साथ ऐसा नहीं था, वह बसपा के साथ उतने गोलबंद नहीं रहे। तमाम मौकों पर उन्होंने बसपा के इतर भी दूसरे दलों का समर्थन किया।
90 के दशक से देखें तो यूपी में सामाजिक और सियासी तौर पर दलित समाज की पिछड़े समाज खासतौर पर यादवों से सीधी लड़ाई पनपी। एक तरफ बसपा को दलिताें का समर्थन था, वहीं दूसरी तरफ यादव समाज का सपा को समर्थन। मुस्लिम वोटबैंक दोनों ही पार्टियाें में अपना हित तलाशते रहे और भाजपा के मुकाबले कौन मजबूत वाले अपने विचार पर वोट डालते रहे। लेकिन 2014 आते आते स्थितियां बदल गईं। दलित समाज के कई धड़े भाजपा में अपना सियासी भविष्य तलाशने लगे। ये उत्तर प्रदेश में बड़ा शिफ्ट था। भाजपा ने गैर जाटव दलित समाज और गैर यादव ओबीसी समाज को जोड़ने के लिए कई स्तर पर मुहिम चलाई जो रंग लाई।
दलित वोट बैंक समाजवादी पार्टी की बजाए बीजेपी को ज्यादा तरजीह देगा। इस बात का आधार ये है कि जब 2019 में लोकसभा चुनाव हुआ और सपा व बसपा ने गठबंधन किया तो तमाम जानकारों ने इसे बड़ा बदलाव माना और कैलकुलेशन किया कि 90 के दशक जैसा ही हाल होने जा रहा है। जब राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा चुनाव मैदान में थी और माना जा रहा था कि कल्याण सिंह बस मुख्यमंत्री बनने ही वाले हैं। ऐसे समय में मुलायम और कांशीराम करीब आए और सपा-बसपा ने मिलकर भाजपा से सत्ता हासिल कर ली। लेकिन 2019 में इसका ठीक उलटा हुआ। मायावती जो 2014 में शून्य पर थीं, वह 10 सीटें जीत गईं, वहीं सपा 5 पर ही जीत सकी। मायावती के सीटों के उछाल में मुस्लिम मतदाताओं का सपोर्ट अहम माना गया। वहीं सपा के बारे में कहा गया कि एक तो दलित वोट उसे नहीं मिला, यही नहीं बसपा से गठबंधन के कारण उसके परंपरागत यादव वोट बैंक में भी सेंध लगी। ओवरऑल भाजपा इस स्थिति का लाभ ले गई। इस पूरी स्थिति को देखते हुए साफ है कि 2024 में भी अखिलेश यादव के लिए दलित वोट बैंक हासिल करना टेढ़ी खीर ही है।