यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इसराइल और हमास के युद्ध से भारत को फायदा होगा या नहीं! शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने पश्चिम एशिया के अधिकांश प्रमुख पक्षों के लिए एक पुलिस, व्यापारिक भागीदार और हथियार व्यापारी के रूप में कार्य किया। अमेरिकी नीतियां बिल्कुल सही नहीं थीं, लेकिन वॉशिंगटन इलाके में थोड़ा संतुलन बनाए रखने के लिए खून और खजाना खर्च करने को तैयार था। क्षेत्र के प्रति अमेरिका की प्रतिबद्धता कम हो रही है क्योंकि इस नीति को कायम रखने को लेकर वहां की घरेलू राजनीतिक सहमति नहीं बची है। पश्चिमी एशिया की शक्तियों को इसका अहसास है। इस कारण वो इस क्षेत्र को अपने हिसाब से आकार देने की कोशिश में जुट गई हैं। संयुक्त अरब अमीरात यूएई की भूमिका संकटमोचक की रही है। इसने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि फारस की खाड़ी और लेवंत लगभग इजरायल, जॉर्डन, सीरिया और लेबनान की भविष्य की समृद्धि में सभी वैश्विक शक्तियों की हिस्सेदारी हो। इसकी अमेरिका के साथ संधि है, लेकिन मजे की बात है कि हुआवेई टेलिकॉम इक्विपमेंट की अनुमति देता है। इसने I2U2 बनाने की भी पहल की। धारणाएं कैसे बदल गई हैं, इसका संकेत देते हुए संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका और इजरायल ने भारत को नई संस्था में शामिल करने का फैसला किया। इसके बाद हाल ही में नई दिल्ली में सऊदी क्राउन प्रिंस ने इंडिया मिडिल ईस्ट यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर आईएमईईसी का प्रस्ताव रखा जिस पर तुरंत सहमति बनी और ऐलान भी हो गया।
लेकिन यह पश्चिम एशिया है, जहां सहमतियों से ज्यादा दुराव हैं और स्थानीय पक्षकार गेम ऑफ थ्रोन्स के पात्रों की तरह काम करते हैं। अमेरिका के नेतृत्व में जारी प्रतिबंधों के कारण खाड़ी राजतंत्रों की कनेक्टिविटी योजनाओं में ईरान की आंशिक कमी खल रही थी। इजरायल और ईरान के बीच शून्यता का मतलब है कि प्रतिबंध रुक गए हैं और परमाणु वार्ता रुक गई है। दूसरे शब्दों में ईरान को इस क्षेत्र के लिए बनाए जा रहे किसी भी नए आर्किटेक्चरल ब्लूप्रिंट में भागीदार नहीं बनाया गया है। इसके बिल्कुल विपरीत, उसे किनारों पर खड़ा करके मूकदर्शक बना दिया गया है।
खाड़ी देशों ने अब्राहम अकॉर्ड के तहत इजरायल के साथ संबंधों को सामान्य किया, कुछ हद तक इस क्षेत्रीय दृष्टि के कारण और आंशिक रूप से पश्चिम एशिया की सबसे शक्तिशाली सेना को बेअसर करने के लिए। ऐसा लगता है कि इससे प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के राइट विंग सर्कल के भीतर एक भ्रम प्रबल हो गया है कि फिलिस्तीनियों के अलग-थलग होने के कारण इजरायल वास्तव में वेस्ट बैंक के अधिकांश हिस्से को अपने कब्जे में लेने के अवसर का उपयोग कर सकता है। उनकी सरकार ने एक इस्लामी ग्रुप हमास के प्रति उदार रवैया अख्तियार किया, जिसे वह मुख्य रूप से धर्मनिरपेक्ष फिलिस्तीनी अथॉरिटी को कमजोर करने के एक साधन के रूप में देखती थी।
जब नेतन्याहू अपने वैचारिक बुलबुले में खो गए, तो हमास ने अवसर का लाभ उठाया। अरब प्रेस की रिपोर्टों के अनुसार, हमास को संभवतः मुट्ठीभर बंधकों को पकड़ने और कैदियों की अदला-बदली के लिए उनका उपयोग करने की उम्मीद थी। इसके बजाय, वे पूरे दिन लूटपाट करने में सफल रहे। इसके बाद हुए खून-खराबे ने एक सामरिक हमले को रणनीतिक संघर्ष में बदल दिया। इजरायल राजनीतिक रूप से प्रतिशोध के रास्ते पर चलने को विवश है।
भारत के लिए यह रणनीतिक रूप से आदर्श स्थिति तो नहीं है। दीर्घावधि में इजरायल-अरब के बीच रिश्तों को सामान्य करने की प्रक्रिया और अमेरिका की पश्चिम एशिया की अंतिम शक्ति बनने की इच्छा, दोनों को कमजोर किया जा सकता है। ताजा संकट को लेकर मोदी सरकार का दृष्टिकोण कई यूरोपीय नेताओं की तुलना में बाइडन प्रशासन के साथ अधिक मेल खाता दिख रहा है। भारत इजरायल के प्रतिशोध के अधिकार का समर्थन करता है, लेकिन उसने नेतन्याहू द्वारा फिलिस्तीनी अथॉरिटी को कमजोर करने पर संदेह भी व्यक्त किया है। अब यह अरब और विस्तृत मुस्लिम दुनिया से राब्ते की तैयारी कर रहा है, इस सोच से कि अगर गाजा पूरी तरह खाक में मिल जाता है तो वह हर किसी पर इसका दोष मढ़ सके।
ऐसा हुआ तो आतंकवाद और इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ावा मिलेगा। ऐसे में भारत की बड़ी चिंता I2U2 और IMEEC को एक से दो साल के लिए रोक दिया जाना होगा। सबसे खराब स्थिति में रियाद और अबू धाबी अरब देशों के अंदर भड़के अंगार के आगे झुक सकते हैं। नतीजतन अब्राहम अकॉर्ड और दोनों गलियारों को झटका लग सकता है। नई दिल्ली को यह तर्क देना पड़ सकता है कि भले ही I2U2 और IMEEC की पश्चिमी सिरा ठहर जाए, भारत और उससे आगे तक फैला पूर्वी हिस्सा अभी भी आगे बढ़ सकता है। नई दिल्ली का वॉशिंगटन से मतभेद यह रहा है कि ईरान को पश्चिम एशिया को नया आकार देने की प्रक्रिया में शामिल करने के लिए अधिक प्रयास करने होंगे। लेकिन अमेरिका और इजरायल ने ईरान पर बहुत सारी शर्तें थोप दी हैं। भारत के लिए यह घोड़े के आगे गाड़ी रखने जैसा लग रहा था कि परमाणु मुद्दे पर तेहरान तभी बात कर सकता है जब इस क्षेत्र में उसकी हिस्सेदारी हो जाएगी।
ईरान वह देश बना हुआ है जिसके पास गाजा को वैश्विक दावानल में बदलने या यह सुनिश्चित करने की क्षमता है कि यह केवल दक्षिणी लेवंत को ही जलाए। ईरान एक दशक पहले की तुलना में अधिक सशस्त्र और बड़ा हिज्बुल्लाह पर लगाम कसने के लिए कितना तैयार है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसे अधिकांश सरकारें पूछ रही हैं और स्पष्ट उत्तर देने में विफल रही हैं। सीमा पार से हमला करने वाले कई सौ लड़ाकों ने रणनीतिक पहलों के एक समूह को खतरे में डाल दिया है, जिस पर आधा दर्जन सरकारों ने दसियों अरबों डॉलर का वादा किया था और भारी राजनयिक ऊर्जा खर्च की थी। नई पश्चिम एशियाई व्यवस्था की अंतर्निहित कमजोरी का इससे बेहतर प्रमाण कोई नहीं हो सकता जो ईरान को ताक पर रखती है और फिलिस्तीन की उपेक्षा करती है।