Friday, November 22, 2024
HomeIndian Newsक्या खरगे गांधी परिवार के रहेंगे वफादार?

क्या खरगे गांधी परिवार के रहेंगे वफादार?

गांधी परिवार के वफादार रहना शायद खरगे ज्यादा पसंद करेंगे! कांग्रेस को 24 साल बाद कोई गैर-गांधी अध्यक्ष मिला है। 80 साल के मल्लिकार्जुन खरगे अब पार्टी की बागडोर संभालेंगे। अध्यक्ष पद के चुनाव में उन्होंने शशि थरूर को शिकस्त दी। खरगे को 7897 वोट मिले जबकि थरूर को 1072 वोट। कांग्रेस के इतिहास में यह महज छठी बार है, जब अध्यक्ष पद के लिए वोटिंग हुई है। पहले अशोक गहलोत गांधी परिवार की पहली पसंद थे लेकिन उनके अध्यक्ष बनने के बाद राजस्थान का मुख्यमंत्री कौन होगा, इसे लेकर ऐसा पेच फंसा, हाई वोल्टेज ड्रामा चला कि गहलोत का पत्ता कट गया और अचानक खरगे का नाम उभरा। खरगे को गांधी परिवार का बेहद करीबी और भरोसेमंद माना जाता है। लेकिन अब यही उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। देखने वाली बात यह होगी कि क्या अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी के ‘प्रथम परिवार’ के साथ उनका रिश्ता इसी खूबसूरती के साथ आगे बढ़ेगा, जिस तरह अबतक रहा है। यह सवाल यूं ही उभरा है। दरअसल, अतीत ही कुछ ऐसा रहा है जिससे ये सवाल खड़ा हो रहा है। कांग्रेस के गैर-गांधी अध्यक्ष पीवी नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी की कहानी तो कम से कम यही बताती है।

आजादी के बाद कांग्रेस को जब-जब नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई अध्यक्ष मिला तो ज्यादातर बार आगे चलकर उनके ‘प्रथम परिवार’ से मीठे रिश्ते तल्खी में तब्दील हुए। वे अध्यक्ष बने ही इसलिए कि परिवार के करीबी थे लेकिन पार्टी की बागडोर संभालते ही रिश्तों का समीकरण गड़बड़ हो जाता है। के. कामराज से लेकर सीताराम केसरी तक एक पूरी लिस्ट है ऐसे नेताओं की जो कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद गांधी परिवार के लिए ही चुनौती बन गए। सबसे हालिया उदाहरण केसरी और पीवी नरसिम्हा राव का है।

1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस नेतृत्व के संकट से जूझ रही थी। लोकसभा चुनाव के बीच ही राजीव गांधी की हत्या हुई थी। उनकी हत्या से पहले के चरणों में कांग्रेस की बुरी स्थिति थी लेकिन बाद के चरणों में उसे सहानुभूति का लाभ मिला। 232 सीटों के साथ पार्टी सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी और बहुमत से कुछ सीट पीछे रह गई। तब कांग्रेस के पास गठबंधन सरकार बनाने का मौका था। कांग्रेस के ज्यादातर नेता यही चाहते थे कि सोनिया गांधी राजनीति में आएं और पार्टी की बागडोर संभालें। ‘सोनिया लाओ, कांग्रेस बचाओ’ की आवाज बुलंद हो रही थी। लेकिन वह राजी नहीं हुईं। तब सबसे बड़ा सवाल यह था कि प्रधानमंत्री कौन बने? पार्टी की बागडोर कौन संभाले? इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव रह चुके पीएन हक्सर ने सोनिया गांधी को सलाह दी कि नरसिम्हा राव सबसे मुफीद हैं।

आखिरकार सोनिया गांधी की हरी झंडी के बाद राव भारत के पहले ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ बने। वह गांधी परिवार से बाहर के पहले ऐसे कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने जिन्होंने अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। उन्हें पार्टी की भी बागडोर मिल गई। वजह ये कि राव गांधी परिवार के भरोसेमंदों में शामिल थे। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के साथ उनके बहुत ही अच्छे रिश्ते रहे थे। विवादों से दूर रहे थे। उनकी छवि एक ऐसे नेता की थी जो बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षी नहीं है लिहाजा उनके चुनौती या खतरे के तौर पर उभरने की आशंका कम थी। वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई ने अपनी किताब ’24 अकबर रोड’ में लिखा है, ‘प्रणब (मुखर्जी) उत्तराधिकार की रेस में शामिल नहीं थे, उन्होंने पीवी नरसिम्हा राव के नाम का प्रस्ताव दिया। 1991 के आम चुनाव से पहले राव ने सक्रिय राजनीति से संन्यास की इच्छा जताई थी और चुनाव लड़ने से भी इनकार कर दिया था। वह सीडब्लूसी मीटिंग की अध्यक्षता करने के लिए सभी समूहों और गुटों के लिए स्वीकार्य थे। यहां तक कि वह खुद सीडब्लूसी मेंबर नहीं थे। इस तरह राव को उनकी वरिष्ठता, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के साथ लंबे जुड़ाव और सीरियस कंटेंडर न होने की छवि की वजह से चुना गया।’

फिर कहानी में ट्विस्ट आया। कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राव और गांधी परिवार के रिश्तों में दूरी बढ़ने लगी। ’24 अकबर रोड’ में किदवई लिखते हैं, ‘पीवी नरसिम्हा राव उन कांग्रेस अध्यक्ष में से थे जिन्होंने गांधी परिवार से राय-मशविरे के बिना पार्टी चलाने की कोशिश की।’ राव ने देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू कर डूबती अर्थव्यवस्था को उबारा। अपने हिसाब से सरकार और पार्टी चलाने की वजह से राव और सोनिया गांधी में दूरी बढ़ती चली गई। कहा जाता है कि दोनों के बीच रिश्ते खराब होने का सबसे बड़ा कारण नरसिम्हा राव सरकार की तरफ से बोफोर्स केस में दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देना था। हाई कोर्ट ने बोफोर्स केस में सीबीआई जांच को गैरजरूरी बताते हुए फाइल बंद करने का फैसला दिया था। लेकिन नरसिम्हा राव सरकार ने इसे चुनौती देने का फैसला किया। अध्यक्ष के तौर पर राव का कार्यकाल 1991 से 1996 तक रहा। सितंबर 1996 में उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। सोनिया और उनके रिश्ते में तल्खी का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि कि जब दिसंबर 2004 में राव का निधन हुआ तब न तो उनके पार्थिव शरीर को आम लोगों के दर्शनार्थ दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय में रखा गया और न ही राष्ट्रीय राजधानी में उनका अंतिम संस्कार ही हुआ। जबकि उनका निधन दिल्ली में ही हुआ था। तब केंद्र में सरकार भी कांग्रेस की अगुआई वाली थी। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए-1 की सरकार थी। सोनिया गांधी यूपीए के साथ-साथ कांग्रेस की अध्यक्ष थीं।

यह सिर्फ सोनिया गांधी के दौर में नहीं हुआ। इंदिरा गांधी के दौर में भी ऐसा देखने को मिला जब कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पाने के बाद किसी नेता ने पार्टी पर गांधी परिवार के दबदबे को ही सीधी चुनौती देने की कोशिश की। नीलम संजीव रेड्डी के बाद 1964 में के. कामराज को कांग्रेस की कमान मिली जो तमिलनाडु से आते थे। वह 1967 तक पद पर रहे। ये वही कामराज थे जिनके दिए ‘कामराज प्लान’ की आज भी चर्चा होती है, जिसने एक दौर में कांग्रेस को मजबूत बनाने में खास भूमिका निभाई थी। उन्होंने राज्यों की सरकारों में शामिल कांग्रेस के बड़े नेताओं को इस्तीफा देकर संगठन में काम करने का प्लान दिया था। 1963 में इसी प्लान के तहत कामराज ने खुद तमिलनाडु के सीएम पद से इस्तीफा दिया जिसके बाद कई राज्यों में मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा था। खास बात ये है कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में कामराज की बड़ी भूमिका थी लेकिन बाद में दोनों के रिश्तों में काफी खटास आ गई। यहां तक कि 1969 में हुए कांग्रेस के बंटवारे के भी वही मुख्य शिल्पी थे। तब कामराज और सिंडिकेट के बाकी नेताओं ने इंदिरा गांधी को ही कांग्रेस से बाहर कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि पार्टी टूट गई। सिंडिकेट के नियंत्रण वाला धड़ा कांग्रेस (ओ) हो गया और इंदिरा के नेतृत्व वाला धड़ा कांग्रेस (आर) के नाम से जाना गया। मौजूदा कांग्रेस वही है।

पार्टी में बंटवारे के बाद 1971 में लोकसभा चुनाव के साथ-साथ तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव भी थे। कामराज कांग्रेस (ओ) की तरफ से सीएम पद के दावेदार थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने डीएमके के एम. करुणानिधि के साथ मिलकर खेल कर दिया। उनकी कांग्रेस (आई) ने डीएमके के साथ गठबंधन कर लिया। विधानसभा चुनाव में पार्टी उतरी ही नहीं। लोकसभा चुनाव के लिए डीएमके के साथ सीट शेयरिंग समझौता किया। नतीजा ये हुआ कि कामराज का दोबारा मुख्यमंत्री बनने के सपनों पर पानी फिर गया। हालांकि, उसके बाद तमिलनाडु में कांग्रेस भी हाशिए पर चली गई।

Disclaimer:

Mojo Patrakar may publish content sourced from external third-party providers. While we make every reasonable effort to verify the accuracy, reliability, and completeness of this information, Mojo Patrakar does not guarantee or endorse the views, opinions, conclusions, or authenticity of content provided by these third-party entities. Such content is presented solely for informational purposes, and it is not intended to substitute professional advice or to serve as a comprehensive basis for decision-making.

Mojo Patrakar expressly disclaims any liability for errors, omissions, or inaccuracies that may arise from third-party content, as well as any reliance readers may place upon it. Users are strongly encouraged to conduct independent verification and consult with qualified professionals as necessary before making any decisions based on information obtained through Mojo Patrakar.

RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments