आज हम आपको बताएंगे कि क्या कोलकाता के जस्टिस अभिजीत गांगुली राजनीति में आएंगे या नहीं! कोलकाता हाई कोर्ट के जज जस्टिस अभिजीत गांगुली ने अपनी न्यायपालिका की नौकरी को अलविदा कह दिया है। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में कुछ भी ठीक नहीं है। उनका दावा है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस के शासन में प. बंगाल अव्यवस्था और अराजकता के भयंकर दौर से गुजर रहा है। हालात ये हो गए हैं कि जज सरकार से संबंधित मामलों की सुनवाई की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं और जो सुनवाई की प्रक्रिया का हिस्सा बनकर फैसले देते हैं उनके खिलाफ सरकार प्रायोजित हमले होते हैं। जस्टिस गांगुली का कहना है कि टीएमसी नेता टीवी चैनलों पर जाकर उन्हें चुनौते दे रहे थे कि हिम्मत है तो चुनाव अखाड़े में आ जाएं तो उनकी चुनौती स्वीकार है। जस्टिस गांगुली ने ऐलान किया है कि वो राजनीतिक का रुख कर रहे हैं और किसी पार्टी ने उन्हें लोकसभा चुनाव का टिकट दिया तो वौ शौक से अपनी किस्मत आजमाएंगे। जस्टिस गांगुली के राजनीति में आने के फैसले पर सवाल उठने लगे हैं और दावा किया जा रहा है कि आज के दौर में न्यायपालिका का भी राजनीतिकरण हो गया है। तो क्या कोलकाता हाई कोर्ट के जज जस्टिस अभिजीत गांगुली के राजनीति में आने से न्यायपालिका की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाएगी? इससे भी बड़ा सवाल है कि क्या अभिजीत गांगुली पहले जज हैं जिन्होंने राजनीति का रुख किया है? वह तारीख 5 सितंबर, 2013 थी जब राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेटली ने जजों के राजनीति में आने को लेकर ऐसी बातें कही थीं जिनकी नजीर आज भी दी जाती है। उन्होंने कहा था कि जज जो फैसले देते हैं, वो उनकी रिटायरमेंट के बाद नौकरियां पाने की इच्छा के कारण प्रभावित होते हैं। यह न्यायपालिका के स्वतंत्रता के लिए खतरा है। जेटली ने तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार की तरफ से जजों की रिटायरमेंट की उम्र सीमा बढ़ाने के प्रस्ताव पर चर्चा में भाग लिया था। उन्होंने राज्यसभा में कहा था, ‘मुझे लगता है कि अब हम रिटायरमेंट के बाद जजों को नौकरी देने के मामले में थोड़ा ज्यादा ही आगे चल गए हैं।’ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देकर जबर्दस्त तंज कसा था। उन्होंने कहा कि एक तो सरकारें रिटायर्ड जजों को नौकरी देने का भरपूर प्रयास करती है और अगर सरकारें नहीं करें तो वो खुद अपने लिए व्यवस्था कर लेते हैं। इसीलिए, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि केंद्रीय सूचना आयोग के सारे सदस्य रिटायर्ड जज ही होंगे।
अरुण जेटली कानून के जानकार थे और केंद्रीय कानून मंत्री रह चुके थे। उनके राज्यसभा में दिए इस बयान से स्पष्ट है कि कम-से-कम रिटायरमेंट के बाद तो जजों को अलग-अलग पद ऑफर करने की लंबी परंपरा रही है। जहां तक बात जजों के राजनीति में आने की है तो ऐसे राज्यपालों की लिस्ट अच्छी-खासी है जो पूर्व में जज रह चुके हैं। देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस रंजन गोगोई रिटायर हुए तो मौजूदा सरकार ने उन्हें सीधे राज्यसभा के लिए नॉमिनेट कर दिया। इतिहास में न्यायपालिका और राजनीति के बीच सांठगांठ का सिलसिला देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सरकार के दौर से ही शुरू हो गया था। इतिहास में ऐसे वाकये भरे पड़े हैं। आइए एक नजर डालते हैं, नेहरू सरकार ने जस्टिस फजल अली के सुप्रीम कोर्ट के जज रहते हुए ही राज्यपाल के रूप में नियुक्ती की घोषणा कर दी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के कहने पर जस्टिस फजल अली ने 30 मई, 1952 को जज का पद त्याग दिया और सिर्फ आठ दिन के अंदर 7 जून, 1952 को उड़ीसा के राज्यपाल बन गए।
नेहरू सरकार ने बॉम्बे हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस एमसी चागला को पहले अमेरिका में राजदूत बनाया, फिर यूके का उच्चायुक्त। उसके बाद नेहरू सरकार में वो पहले शिक्षा मंत्री और फिर विदेश मंत्री बनाए गए। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश कोका सुब्बा राव ने 1967 में राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष का उम्मीदवार बनने के लिए पद छोड़ दिया। उन्होंने जज पद से इस्तीफा देने के तीन महीने बाद हुए राष्ट्रपति चुनाव में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार जाकिर हुसैन के खिलाफ ताल ठोंकी थी।अप्रैल, 1962 से 10 साल तक कांग्रेस के राज्यसभा सांसद रहे थे। फिर उन्हें इंदिरा गांधी सरकार ने दिसंबर, 1980 में सुप्रीम कोर्ट जज नियुक्त कर दिया। फिर उनके रिटायरमेंट में छह सप्ताह बाकी ही थे कि उन्हें इस्तीफा दिलवा दिया गया और असम चुनाव में बतौर कांग्रेस प्रत्याशी उतार दिया गया। इस्लाम ने 13 जनवरी, 1983 को सुप्रीम कोर्ट जज पद से इस्तीफा दे दिया और अगले ही दिन कांग्रेस ने असम के बारपेटा लोकसभा सीट से उन्हें अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। मजे की बात है कि रिटायरमेंट के चार सप्ताह पहले ही उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को धोखाधड़ी और आपराधिक दुराचार के आरोपों से मुक्त किया था। शिवनंदन पासवान बनाम स्टेट ऑफ बिहार का वह मामला काफी चर्चित रहा। जस्टिस बहारुल इस्लाम से पहले जस्टिस एस हेगड़े भी राज्यसभा सदस्य हुआ करते थे। उन्होंने 1957 में मैसूर हाई कोर्ट का जज बनने के लिए राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था। जस्टिस मोहम्मद हिदायतुल्ला 1970 में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पद से रिटायर हुए थे। बाद में वो देश के उप-राष्ट्रपति चुने गए।
बहरहाल, उपर के उदाहरणों से कम-से-कम यह तो कहा ही जा सकता है कि जजों और राजनीति में लाने और यहां तक कि राजनीति से न्यायपालिका में भेजे जाने की पुरानी परंपरा रही है। जस्टिस अभिजीत गांगुली ने अगर रिटायरमेंट ने राजनीति में जाने के लिए पद छोड़ने की घोषणा की तो पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जस्टिस फजल अली को पद पर रहते हुए ही राज्यपाल नियुक्त कर दिया था। इसलिए जहां तक बात जस्टिस गांगुली के जज पद त्यागकर राजनीति में जाने से न्यायपालिका की विश्वसनीयता घटने का सवाल है तो इसका जवाब आप खुद ढूंढ सकते हैं। हैरानी की बात है कि जब कोई व्यक्ति जज पद पर होते हैं तो उनके पास नेताओं को अदालत में अपने सामने खड़े करने की शक्ति होती है लेकिन राजनीति में जाकर वो खुद उन्हीं नेताओं के मातहत हो जाते हैं। अगर कोई अपनी हैसियत में गिरावट स्वीकार करने को तैयार होता है तो निश्चित रूप से उसके बदले उसे बहुत कुछ हासिल होता होगा। विकसित देशों के मुकाबले भारत में जजों के वेतन-भत्ते और सुविधाएं बहुत कम हैं। इस कारण जज अपने पद पर होते ही रिटायरमेंट के बाद का भविष्य संजोने में जुट जाते हैं। कुछ का राजनीतिक दलों से सांठगांठ हो जाता है और जो कुछ ऐसा नहीं करना चाहते या चाहकर भी सफल नहीं होते, वो उद्योग जगत में बड़े-बड़े पद पाते हैं। कॉर्पोरेट वर्ल्ड में पूर्व जजों की बड़ी पूछ होती है और वो मोटी तनख्वाह पर कंपनियों को अपनी सेवा देते हैं।