मोहन भागवत अब रैली कर सकते हैं! नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 23 जनवरी को जयंती थी । इसे लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का बंगाल में मेगा प्लान है। उसने इस मौके पर रैली निकालने की योजना बनाई है। इसमें आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत शिरकत करेंगे। नेताजी का जन्मदिन संघ लह प्रणाम के तौर पर मनाएगा। दिलचस्प यह है कि मोहन भागवत पहले ही कोलकाता पहुंच चुके हैं। 23 जनवरी के सार्वजनिक कार्यक्रम में वह मुख्य वक्ता होंगे। यह प्रोग्राम करीब-करीब उसी वक्त आयोजित होने की उम्मीद है जब सीएम ममता बनर्जी बोस की प्रतिमा पर माल्यार्पण करेंगी। यह मूर्ति रेड रोड पर बनी है। इसमें नेताजी हाथ से दिल्ली की तरफ इशारा करते दिखते हैं। सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक थे। ऐसे में आरएसएस, तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और फॉरवर्ड ब्लॉक में उन्हें अपना प्रतीक दिखाने की होड़ लगी है। यह और बात है कि इस बीच एक सवाल रह-रहकर सबके जेहन में उठ रहा है। आखिर आरएसएस और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के रिश्ते कैसे थे?
नेताजी सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष रहे थे। हिंदुत्व विधारचारा की पैरोकारी करने वाले संगठन का दावा है कि बोस और आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के बीच आजादी से पहले मुलाकात हुई थी। संगठन कई वर्षों से नेताजी को श्रद्धांजलि दे रहा है। कटक में 23 जनवरी 1897 को बोस का जन्म हुआ था। उन्होंने अपना ज्यादातर जीवन कोलकाता में गुजारा था। पूर्वी क्षेत्र के संघचालक अजय कुमार नंदी ने कहा है कि यह कहना बिल्कुल गलत है कि नेताजी संघ के आलोचक थे। इस बात का कहीं कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है।
इतिहासकार कहते हैं कि सुभाष चंद्र बोस और डॉ. हेडगेवार दोनों की जड़ें कांग्रेस से जुड़ी हैं। इन दोनों ने यहीं से आजादी की लड़ाई की शुरुआत की थी। सुभाष को नेताजी और हेडगेवार को डॉक्टरजी के नाम से जाना जाता था। देखते ही देखते इन दोनों नेताओं का कद काफी बड़ा हो गया। सुभाष कांग्रेस में सबसे लोकप्रिय नेता बन गए। गांधीजी के बाद पार्टी में उनके जैसी शख्सीयत किसी की नहीं थी। डॉ हेडगेवार 30-35 साल की उम्र में विदर्भ कांग्रेस कमेटी के सचिव बने। कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति से खफा होकर दोनों ने इसे छोड़ दिया था। बंगाल की भूमि से दोनों का गहरा नाता था। नेताजी जन्म से यहीं के थे। वहीं, हेडगेवार ने कलकत्ता के नेशनल मेडिकल कॉलेज से डॉक्टर की डिग्री ली थी। जून 1914 में वह यहां से डिग्री लेकर निकले थे। डॉक्टर हेडगेवार ने पढ़ाई के लिए कलकत्ता को सिर्फ इसलिए चुना था क्योंकि तब यह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ क्रांति का केंद्र था। जल्द ही हेडगेवार स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। क्रांतिकारियों के बीच उन्हें ‘कोकीन’ नाम से पहचाना जाता था। हेडगेवार ने नागपुर में 12 युवा लड़कों के साथ 1925 में आरएसएस की स्थापना की थी।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इंडियन नेशनल आर्मी (INA) की कमान नेताजी ने संभाल ली थी। रास बिहारी बोस को इस संगठन का जनक कहा जाता है। ट्रेन में महाराष्ट्र से गुजरते हुए नेताजी ने स्वयंसेवकों को यूनिफॉर्म में परेड करते देखा था। बताया जाता है कि पूछने पर उन्हें पता चला कि वह संगठन कोई और नहीं बल्कि कांग्रेस में उनके सहयोगी रहे डॉ हेडगेवार चला रहे हैं। उन्होंने पाया कि स्वयंसेवकों की वेशभूषा इंडियन नेशनल आर्मी के फौजियों जैसी है। इसके बाद डॉ हेडगेवार से मिलने की उनकी इच्छा बढ़ गई। 1940 में नागपुर में दोनों कद्दावर नेताओं की मुलाकात हुई थी। इतिहासकारों का एक वर्ग कहता है कि नेताजी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर उनसे मिलना चाहते थे। वहीं, दूसरा वर्ग कहता है कि नेताजी आईएनए और आरएसएस को मिलाकर आजादी की लड़ाई में एक शक्ति बनाने की ख्वाहिश रखते थे। यह और बात है कि डॉ हेडगेवार गंभीर रूप से बीमार पड़ गए थे। वह बोल पाने में भी असमर्थ हो गए थे। नेताजी ने इसे देखते हुए उन्हें परेशान नहीं किया। दुर्भाग्य से जिस हफ्ते दोनों की राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर चर्चा हो सकती थी, उसी में हेडगेवार दुनिया से चल बसे। दिल्ली आरएसएस ऑफिस में दोनों नेताओं की इस मीटिंग की पेंटिंग भी है।
संगठन के स्तर पर आरएसएस और आईएनए में काफी ज्यादा समानता थी। दोनों के रास्ते और सिद्धांत भी काफी मिलते-जुलते थे। हालांकि, आरएसएस की भौगोलिक और जनसंख्या के आधार पर सामाजिक संरचना भी थी। दोनों संगठनों में शारीरिक प्रतिशिक्षण शामिल था। हालांकि, इनका स्तर अलग-अलग था। वैसे, प्रख्यात इतिहासकार और भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर कई पुस्तक लिख चुके प्रोफेसर आदित्य मुखर्जी कहते हैं कि धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक सिद्धांतों की बोस की विचारधारा, ब्रिटिश शासन के प्रति उनका कट्टर विरोध आरएसएस और हिंदू महासभा के बिलकुल विपरीत था। उन्होंने अपने जीवनकाल में यह स्पष्ट कर दिया था।
आजादी के बाद यूपी में छुपकर रहने वाले जिन गुमनामी बाबा को बहुत से लोग सुभाष मानते हैं, उनके पास से भी एमएस गोलवलकर की एक चिट्ठी मिली थी। 16 सितंबर 1985 में गुमनामी बाबा का निधन हो गया था। हालांकि, यह रहस्य ही है कि वह असल में नेताजी सुभाष थे या नहीं। आरएसएस के दूसरे चीफ गोलवलकर ने लिखा था – ’25 अगस्त से 2 सितंबर तक लिखी आपकी चिट्ठियां 6 सितंबर 1972 को मिलीं। मैं उन तीन जगहों के बारे में पता लगाने की कोशिश करूंगा जिनका जिक्र आपने किया है।’ अगर गुमनामी बाबा ही नेताजी थे तो साफ है कि वह आरएसएस के संपर्क में थे।