यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या राहुल गांधी नीतीश कुमार के साथ छल कर सकते हैं! विपक्षी एकता की बतकही अभी बंद है। पहले जितनी चर्चा विपक्षी एकता के लिए विपक्षी दलों के बीच होती थी, उस पर फिलवक्त विराम लग गया है। इसी के साथ सीट शेयरिंग का मामला भी ठंडे बस्ते में चला गया है। यह भी साफ हो गया है कि लोकसभा चुनावों में विपक्षी दल भले एकजुट रहें, लेकिन राज्यों में किसी तालमेल की उम्मीद नहीं है। खासकर उन राज्यों में, जहां गैर कांग्रेसी या गैर भाजपा सरकारें हैं। राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकारें हैं और बिहार, झारखंड और तमिलनाडु में विपक्षी गठबंधन की सरकारें हैं। इसके अलावा बंगाल, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब में विपक्षी एकता को लेकर सहयोगी दलों के स्थानीय नेताओं में ही गहरे मतभेद हैं। बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने विपक्ष को एक मंच पर लाने का अभियान शुरू किया था। जब तक कमान नीतीश के हाथ में रही, शायद ही कोई दिन बीतता, जब विपक्षी एकता या गठबंधन की चर्चा नहीं होती। जब से कांग्रेस ने कमान अपने हाथ में ली है, सब कुछ केंद्रीयकृत हो गया है। अब न ममता कुछ बोलती हैं और अखिलेश की जुबान से कुछ निकलता है। कहीं कोई बात होती भी है तो उसमें आपसी तनातनी की गंध ही मिलती है। नीतीश कुमार ने घूम-घूम कर विपक्षी नेताओं से मुलाकात की। उन्हें विपक्षी एकता के लिए राजी किया। नीतीश की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि उन्होंने आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी को उस कांग्रेस के नेताओं के साथ एक मंच पर बिठाया, जिससे उनके छत्तीस के रिश्ते थे।
विपक्षी गठबंधन के सामने दो बड़ी समस्याएं थीं, जिसका निराकरण हुए बगैर इस एकता का कोई मतलब नहीं। पहली समस्या है विपक्षी गठबंधन में शामिल 28 दलों के बीच सींटों का बंटवारा और दूसरी समस्या प्रधानमंत्री का विपक्षी चेहरा तय करना। दोनों ही काम अभी ठंडे बस्ते में हैं। कांग्रेस, देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है, इसलिए उसमें एक से बढ़ कर एक सियासत के माहिर खिलाड़ी हैं। वे जानते हैं कि इस काम में जितना विलंब होगा, कांग्रेस का भाव उतना ही बढ़ेगा। कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक में इन माहिर खिलाड़ियों ने तय किया कि टिकट बंटवारे के लिए अगले महीने होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों तक इंतजार करना चाहिए। उसके बाद से टिकट बंटवारे की हड़बड़ी किसी भी दल में नहीं दिखती।
माना जा रहा था कि जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं या जहां गठबंधन की सरकार में कांग्रेस शामिल है, वहां सीट बंटवारे में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन, यह बिहार में संभव नहीं दिखता। सर्वाधिक किचकिच सीट बंटवारे में बिहार में ही होनी है। इसके वाजिब कारण हैं। महागठबंधन में शामिल जेडीयू के 16 सिटिंग सांसद हैं। कांग्रेस का एक है। आरजेडी शून्य पर है। वाम दलों में का भी कोई सांसद नहीं है। इस बार लोकसभा चुनाव में सबको हिस्सा चाहिए। सीपाई और सीपीआई एमएल को भी सीटें चाहिए। अकेले सीपीआई एमएल ने पांच सीटों की दावेदारी की है।
आरजेडी तो महागठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी है। इसलिए उसे भी नीतीश कुमार के जेडीयू से कम सीटें नहीं चाहिए। जब शून्य पर सिमटे आरजेडी को जेडीयू से कम सीटें नहीं चाहिए तो एक सीट जीतने वाली कांग्रेस क्यों पीछे रहेगी। बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं। वर्ष 2019 के चुनाव में बीजेपी को 17, जेडीयू को 16, लोजपा को 6 सीटें मिली थीं। एनडीए के बैनर तले ये पार्टियां साथ लड़ी थीं। कांग्रेस के खाते में एक सीट गई थी।
बिहार विधानसभा में सबसे अधिक विधायकों वाली आरजेडी विधायकों की संख्या के हिसाब से तीसरे नंबर की पार्टी जेडीयू को उतनी सीटें देने को तैयार नहीं है। दूसरा, उसे भी उतनी ही सीटें चाहिए, जितने पर जेडीयू चुनाव लड़ना चाहती है। जेडीयू तो कम से कम सभी सिटिंग सीटें चाहेगी। यानी 16 अगर जेडीयू को चाहिए तो इतनी ही आरजेडी को भी। तब कांग्रेस और वाम दलों का क्या होगा ? उन्हें तो बची आठ सीटों में ही हिस्सेदारी करनी होगी। कांग्रेस पहले ही 9 से 12 सीटों की दावेदारी कर चुकी है। ऐसे में सबसे आसान समझे जाने वाले बिहार में ही महागठबंधन उलझा दिख रहा है। अगर विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को कर्नाटक की तरह कामयाबी मिल जाती है तो वह सहयोगी दलों की शर्तों पर चलना कभी पसंद नहीं करेगी।
राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में हो रहे विधानसभा चुनाव में ही विपक्षी एकता टूटती दिख रही है। कांग्रेस के साथ आम आदमी पार्टी ने भी इन चुनावों में अपने उम्मीदवार उतार रही है। तेलंगाना में केसीआर की पार्टी बीआरएस से कोई तालमेल ही नहीं बन पाया। बंगाल में भी हाल के विधानसभा उपचुनाव में विपक्षी दल आपस में ही उलझ गए थे। ममता कांग्रेस या वाम दलों को कोई तरजीह नहीं दे रहीं। विधानसभा चुनावों के परिणाम अगर कांग्रेस के अनुकूल आए तो वह विपक्षी गठबंधन पर अपना एकाधिकार रखेगी। प्रतिकूलता की स्थिति में आपस में ही दोषारोपण का दौर चलेगा। आखिर तक विपक्षी एकता बनी रह पाएगी, इसमें भी संदेह है। ऐसे में सीट शेयरिंग और पीएम फेस पर शायद ही सौहार्दपूर्ण माहौल में समझौता हो पाए।