श्रीलंका अब विकास के लिए भारत और अमेरिका की मदद ले सकता है! अमेरिका ने इस सप्ताह कोलंबो पोर्ट में 533 मिलियन डॉलर का डीपवॉटर टर्मिनल बनाने की योजना की घोषणा की क्योंकि उसे इस द्वीपीय देश के साथ-साथ आसपास के व्यापक क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभावों की चिंता है। यह परियोजना श्रीलंका में अमेरिका के सबसे बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर डील और एशिया-प्रशांत में सबसे बड़े फाइनैंशियल पैकेजों में से एक है। अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय विकास वित्त निगम (DFC) का ऋण उस इन्फ्रास्ट्रक्चर लोन से मिलता-जुलता है जिसमें चीन के सरकारी बैंक बहुत आगे हैं। यह लोन अडानी समूह से जुड़ा हुआ है। मुंबई स्टॉक मार्केट में लिस्टेड अडानी पोर्ट्स और स्पेशल इकनॉमिक जोन लिमिटेड के पास कोलंबो वेस्टर्न कंटेनर टर्मिनल का 51% हिस्सा है, शेष 35% हिस्सा श्रीलंकाई समूह जॉन कील्स और सरकारी पोर्ट अथॉरिटी के पास है। यह प्रॉजेक्ट भारत के बाद एशिया-प्रशांत क्षेत्र में डीएफसी का दूसरा सबसे बड़ा एक्सपोजर है। सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म एक्स पर डीएफसी की पोस्ट के अनुसार, श्रीलंका में डीएफसी का निवेश चार साल पहले सिर्फ 20 मिलियन डॉलर से बढ़कर अब 1 बिलियन डॉलर हो गया है।
यह देश में अमेरिका की आर्थिक भागीदारी के लिहाज से काफी बदलाव का भी प्रतीक है। घरेलू विरोध और गोटाबाया राजपक्षे की पिछली सरकार की उदासीनता के कारण पिछले कई प्रयास विफल हो गए। श्रीलंका ने वॉशिंगटन स्थित मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन से 480 मिलियन डॉलर के अनुदान के प्रति उत्साह नहीं दिखाया था। इतना ही नहीं, उसने भारत और जापान के साथ कोलंबो ईस्ट टर्मिनल बनाने की डील भी तोड़ दी, जिससे नई दिल्ली और तोक्यो में चिंता बढ़ गई। बाद में सांत्वना के रूप में अडानी ग्रुप को कोलंबो वेस्टर्न कंटेनर टर्मिनल दिया गया। श्रीलंका के राष्ट्रपति बने रानिल विक्रमसिंघे पश्चिम समर्थक हैं। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती गोटबाया राजपक्षे की विदेश नीति से हुए नुकसान की भरपाई करने कोशिश की है, जबकि श्रीलंका के विकास गाथा में चीन के इतर दूसरे देशों को भी शामिल किया है। श्रीलंका के मौजूदा राजनीतिक माहौल में वहां अमेरिका, भारत और यूरोपीय संघ के भागीदारों से अधिक निवेश आना चाहिए।
त्रिंकोमाली बंदरगाह का नया एकीकृत विकास प्रमुख जियो-स्ट्रैटिजिक प्रॉजेक्ट्स में से एक है, जो दुनिया का सबसे बड़ा प्राकृतिक बंदरगाह है। यह भारत और संभावित रूप से जापान के साथ एक संयुक्त उद्यम के तहत ऊर्जा और आर्थिक केंद्र के रूप में उभरा है। अडानी समूह भी श्रीलंका में अक्षय ऊर्जा में 750 मिलियन डॉलर का निवेश करने की योजना बना रहा है और द्वीप के उत्तर में इसकी 500 मेगावॉट की पवन ऊर्जा परियोजना अगले साल के अंत तक पूरी हो जाएगी। विक्रमसिंघे भी एमसीसी अनुदान और जापान से फंडेड कोलंबो मेट्रो रेलवे सहित पिछली सरकार द्वारा निलंबित परियोजनाओं को पुनर्जीवित करने की पैरवी कर रहे हैं।
कोलंबो पोर्ट टर्मिनल के लिए डीएफसी से फंडिंग अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति और भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे (IMEC) के उद्देश्यों को साझा करती है, जो चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का एक विकल्प है। यह अमेरिकी सहयोगियों के साथ संसाधनों की पूलिंग करने और विशालकाय चीन का मुकाबला करने के लिए उनकी क्षेत्रीय विशेषज्ञता पर निर्भर करने के अनोखी दृष्टिकोण पर भी निर्भर करता है। इस क्षेत्र में और इसके बाहर चीनी विदेशी फंडिंग की गहराई और गुंजाइश को देखते हुए यह बहुत ही व्यावहारिक है।
चीन ने पिछले दो दशकों में दुनियाभर में बुनियादी ढांचे के लिए एक ट्रिलियन डॉलर से अधिक के कर्ज और अनुदान दिए हैं, जिसमें श्रीलंका को लगभग 12 बिलियन डॉलर शामिल हैं। श्रीलंका पर चीन का 7.1 बिलियन डॉलर का कर्ज है, जो उसके कुल विदेशी कर्ज का लगभग 20% है। इसमें 4.1 बिलियन डॉलर का द्विपक्षीय ऋण और बाकी सॉवरेन गारंटी के तहत सरकारी उद्यमों द्वारा प्राप्त कमर्शियल लोन शामिल हैं। श्रीलंका बाइलेटरल लोन पर डेट-फाइनैंसिंग अग्रीमेंट पर पहुंच गया है। हालांकि, कमर्शिलयल लोन्स के रिजॉल्युशन पर अभी भी काम चल रहा है।
कोलंबो पोर्ट में अमेरिकी निवेश एक अच्छी शुरुआत है। फिर भी, चीन की आर्थिक शक्ति अभी भी एक बड़ी ताकत है। डीएफसी डील से कुछ हफ्ते पहले चीन की सरकारी तेल कंपनी साइनोपेक को हंबनटोटा पोर्ट में 1.6 बिलियन डॉलर की तेल रिफाइनरी बनाने और संचालित करने का ठेका दिया गया था, जिसका 85% हिस्सा भी चाइना मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स के पास 99 साल की लीज पर है। पोर्ट और पार्क मॉडल पर सामानंतर बने औद्योगिक पार्क में मुख्य रूप से श्रीलंकाई कंपनियों की रुचि के कारण 90 इंडस्ट्रियल क्लासेस में व्यवसाय का विस्तार करने की योजना है। कोलंबो के समुद्र के किनारे एक और चीनी एसओई चाइना हार्बर इंजीनियरिंग कंपनी समुद्री भूमि पर दुबई के टक्कर की पोर्ट सिटी का निर्माण कर रही है।
कई विशेषज्ञ द्वीप पर चीन की बढ़ते आर्थिक प्रभाव से परेशान हैं और आशंका जताते हैं कि श्रीलंका चीन के कर्ज तले दबकर दम तोड़ देगा। दूसरों की शिकायत है कि चाइनीज प्रॉजेक्ट्स श्रीलंका को जियो-स्ट्रैटिजिक रायवलरीज में खींच रही हैं। एक तरफ निराशावादी और साजिश के सिद्धांतकार प्रतिद्वंद्विता के कारण उत्पन्न अनिश्चितताओं को हवा देते हैं, तो दूसरी तरफ आशावादी इसमें अद्वितीय अवसर देखते हैं। अगर चीन ने श्रीलंका में दिलचस्पी नहीं ली होती तो आज कितने देश इस द्वीपीय देश के विकास में रुचि लेते? श्रीलंका सरकार के सामने अपने विदेशी भागीदारों के लिए अवसर के समान मौके मुहैया कराते हुए इन अनिश्चितताओं और घरेलू विरोध पर लगाम लगाने की चुनौती है ताकि देश को समृद्धि की ओर ले जाने के लिए इन अनूठे व्यवस्थित अवसरों का दोहन किया जा सके।