क्या चीन से निजात पाएगा ताइवान?

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यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या ताइवान अब चीन से निजात पा सकता है या नहीं! ताइवान के राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी ने तीसरी बार जीत हासिल कर इतिहास रच दिया है। चीन की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कुओमिनतांग के उम्मीदवार होउ यू-यी और नवगठित ताइवान पीपुल्स पार्टी के नेता को वेन-जे को हराकर लाई चिंग-ते विलियम लाई चीनी गणराज्य के राष्ट्रपति चुने गए हैं। लाई को लगभग 40% वोट मिले, जबकि केएमटी और टीपीपी उम्मीदवारों को क्रमशः 33% और 26% वोट मिले। चीन ने लाई को लगातार ‘अलगाववादी’ और ताइवान की स्वतंत्रता का समर्थक बताया है। इसने ताइवान जलडमरूमध्य में ज्यादा पोत और हवाई जहाज भेजने के साथ नाकेबंदी की मॉक ड्रिल करके सैन्य दबाव भी बढ़ा दिया है। इस ग्रे जोन वॉरफेयर टैक्टिक्स से चीन ने ताइवान को डराने की भरपूर कोशिश की है। मतदान से कुछ ही दिन पहले नववर्ष के मौके पर अपने संबोधन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि एकीकरण एक ऐतिहासिक अनिवार्यता है और चीन निश्चित रूप से ताइवान के साथ ‘एकीकृत’ होगा। जिनपिंग ने तो यह कहकर दबाव बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन ऐसा लगता है कि इसका उल्टा असर हुआ है।

ध्यान लाई की जीत के मामूली अंतर पर केंद्रित है। 2016 और 2020 के चुनावों में निवर्तमान डीपीपी अध्यक्ष साई इंग-वेन ने आसानी से बहुमत हासिल किया था। लेकिन तस्वीर ज्यादा बारीक है। भले ही डीपीपी के हिस्से 2020 में 57% के मुकाबले 2024 में घटकर 40% के आसपास ही वोट आए लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि इस वर्ष वास्तव में त्रिकोणीय चुनावी जंग हुई। उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चुनाव में खड़े तीसरे उम्मीदवार को वेन-जे कई सालों तक डीपीपी समर्थक रहे थे। संक्षेप में, 2016 से ही वोटिंग में केएमटी विरोधी वोट लगातार 50% से अधिक रहे हैं। 2024 के राष्ट्रपति चुनाव ने दो महत्वपूर्ण रुझानों की पुष्टि की है – चीन के साथ तालमेल का केएमटी का संदेश ताइवान के लोगों को पसंद नहीं आ रहा, और यह कि ताइवान के लोगों में स्थानीय पहचान की भावना बढ़ रही है। चीनी गणराज्य से अलग एक ताइवानी पहचान के लिए 2014 में शुरू हुआ सनफ्लावर मूवमेंट की जड़ें बहुत गहरी हो गई हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि ताइवानी चीन से आजादी का ऐलान करने को छटपटा रहे हैं। केएमटी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को अभी भी 33% वोट मिले। राष्ट्रपति चुनाव के साथ हुए संसदीय चुनावों के परिणाम भी इस धारणा को पुष्ट करते हैं, क्योंकि केएमटी ने 113 सीटों में से 52 सीटें हासिल की हैं। यह डीपीपी से एक सीट ज्यादा है। इसका मतलब यह है कि अधिक से अधिक युवा ताइवानी खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं और उन्हें डर है कि अगर ताइवान का चीन में विलय हो जाएगा तो शायद उन्हें यह आजादी नहीं मिल पाए। डेंग शियाओपिंग ने एक देश दो व्यवस्था के साथ शानदार प्रयोग किए थे। इस व्यवस्था में हॉन्गकॉन्ग, मकाओ और ताइवान के लोगों को अपने-अपने इलाकों पर चीनी संप्रभुता को स्वीकार करते हुए मर्जी की जिंदगी जीने की अनुमति मिली थी। इस कदम से चीन के लिए हॉन्गकॉन्ग और मकाओ की शांतिपूर्ण वापसी सुरक्षित हो गई। चीन के मौजूदा नेताओं की तरफ से हॉन्गकॉन्ग पर 1997 के साइनो-ब्रिटिश एग्रीमेंट को कठोरता से लागू किया जाना, हॉन्गकॉन्ग के अंब्रेला मूवमेंट पर कार्रवाई और हॉन्गकॉन्ग के लिए नए राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों ने ताइवानियों में चीन पर भरोसा कम कर दिया है।

चूंकि ताइवानी संसद में कोई भी पार्टी बहुमत हासिल करने में सक्षम नहीं है, इस कारण अगले चार वर्षों तक वहां सभवतः चेक्स एंड बैलेंस का सिस्टम ही बना रहेगा। चयनित राष्ट्रपति इस वास्तविकता को समझते हुए नरम रुख अपना रहे हैं। वो चीन के धौंस का विरोध जरूर कर रहे हैं, लेकिन ताइवान जलडमरूमध्य में शांति और स्थिरता बनाए रखने का वादा भी कर रहे हैं। लाई ने घोषणा की कि वह क्रॉस-स्ट्रेट की यथास्थिति बनाए रखेंगे, टकराव को बातचीत से बदलेंगे और चीन के साथ आदान-प्रदान को बढ़ावा देंगे। बीजिंग को कम से कम अगले चार वर्ष तक अपने सबसे खराब विकल्प के साथ तालमेल बनाए रखना होगा। ताइवान की युवा पीढ़ी को यूनिफाइड चीन को लेकर बहुत कुछ पता नहीं है। कम्युनिस्ट शासन के तहत चीनी समाज में मौलिक बदलाव आ गया है जिसके कारण ताइवानियों लिए चीन के साथ जुड़ना मुश्किल होता जा रहा है। अभी भी केएमटी का समर्थन करने वाले ताइवान के कई नेताओं के पास ‘दोहरी नागरिकता’ है, लेकिन आम ताइवानियों के पास जाने की कोई और जगह नहीं है। बीजिंग इस मजबूत होती पहचान को जीरो सम गेम के रूप में देखता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि 1949 से ही चीन एक मिनट के लिए भी ताइवान पर पैर नहीं जमा सका है।

ताइवान जलडमरूमध्य को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सबसे खतरनाक संभावित विस्फोट बिंदु बनने की वजह अमेरिका की भागीदारी है। वॉशिंगटन का दावा है कि वह ताइवान में लोकतंत्र को संरक्षित रखने की लड़ाई लड़ रहा है। हकीकत यह है कि वह अपने जियो-स्ट्रैटिजिक हितों की रक्षा के लिए लड़ रहा है। अमेरिका दरअसल चीन को प्रशांत में फैलने से रोकने के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बनाई गई द्वीप श्रृंखला को संरक्षित रखना चाहता है। 100 समुद्री मील की दूरी पर स्थित एक द्वीप को नियंत्रित करने में असमर्थता दुनिया के दूसरे सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के लिए बड़ी हताशा का सबसब है। दूसरी तरफ, उसे दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र की तरफ से उसके जियो-स्ट्रैटिजिक हितों को चुनौती दी जा रही है। ये परिस्थितियां आने वाले वर्षों में तनावपूर्ण माहौल में और इजाफे का संकेत हैं।