Sunday, January 12, 2025
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क्या पार्टियों द्वारा किए जाने वाले वादों पर निर्भर होगा चुनाव?

अब चुनाव पार्टियों द्वारा किए जाने वाले वादों पर निर्भर होगा! क्या चुनाव अब भावनात्मक मुद्दों से शिफ्ट होकर वादों के गणित की ओर चला गया है? पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान सबसे बड़ा राजनीतिक सवाल यही उठा है। दरअसल, हाल के दिनों में यह ट्रेंड लगभग स्थापित हो गया है कि चुनाव पूर्व राजनीतिक दलों के वादे या सरकार की ओर से की गई कल्याणकारी योजनाएं के इर्द-गिर्द ही चुनावी अजेंडे तय हो रहे हैं, जिसमें बाकी सारे मुद्दे गौण होते जा रहे हैं। हालांकि इस ट्रेंड को मुफ्त की कल्याणकारी योजनाओं से भी जोड़ा गया। इसके प्रभाव पर समानांतर बहस भी चली। लेकिन चूंकि सभी राजनीतिक दल इसमें समान रूप से शामिल हो गए हैं, ऐसे में यह बहस अब कहीं पीछे छूट गया है और सारा फोकस वादों के गणित पर आ गया है। दरअसल 2014 से नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की एक के बाद एक जीत ने विपक्ष के सामने अस्तित्व का का सवाल खड़ा कर दिया था। बीजेपी की बड़ी जीत में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद से जुड़े भावनात्मक मुद्दे भी थे। विपक्ष को बीजेपी की आक्रामक नीति की काट नहीं मिल रही थी। उन्होंने आर्थिक मुद्दे जरूर उठाए, लेकिन उसका अधिक लाभ नहीं मिला। लेकिन पिछले कुछ समय से देखें तो सरकारी कर्मचारी, युवा और महिलाएं इन तीनों को अपने पक्ष में करने की सबसे अधिक कवायद विपक्ष की ओर से की गई। ओल्ड पेंशन की वापसी, इसमें बढ़ती पहल को देखते हुए बीजेपी को भी इसकी काट में काउंटर करने के लिए कुछ राज्यों में लुभावने वादे करने पड़े। मध्य प्रदेश में इस बार बीजेपी पूरी तरह लाडली योजनाओं के सहारे लड़ी, जिसमें महिलाओं को हर महीने 1200 रुपये पगार दिया जाता है। मतलब संकेत साफ है कि वादे की राजनीति का दौर अभी जारी रहेगा।महिलाओं और युवाओं को तय राशि की हर महीने मदद जैसी योजनाएं लाई गईं या इससे जुड़े वादे किए गए। विपक्षी दलों ने संकेत दिया है कि वह ऐसे मुद्दों को ही 2024 के आम चुनाव में रखेंगे।

जानकारों का मानना है कि इन मुद्दों को आगे रखकर चुनाव लड़ना या बीजेपी को काउंटर करना विपक्ष के सामने विकल्प नहीं, बल्कि सियासी मजबूरी है। कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश में ओल्ड पेंशन या सस्ते दर पर बिजली उपलब्ध करने जैसे वादे के साथ कांग्रेस ने चुनाव जीतकर हाल में इसके बढ़ते ट्रेंड को फिर स्थापित किया। आम आदमी पार्टी ने इसकी शुरुआत कर दिल्ली से पंजाब में सत्ता की एंट्री मारी। विपक्ष की इसमें बढ़ती पहल को देखते हुए बीजेपी को भी इसकी काट में काउंटर करने के लिए कुछ राज्यों में लुभावने वादे करने पड़े। मध्य प्रदेश में इस बार बीजेपी पूरी तरह लाडली योजनाओं के सहारे लड़ी, जिसमें महिलाओं को हर महीने 1200 रुपये पगार दिया जाता है। मतलब संकेत साफ है कि वादे की राजनीति का दौर अभी जारी रहेगा।

चुनाव विश्लेषक यशवंत देशमुख बताते हैं कि आज कल वोटर सीधे-सपाट शब्दों में जानना चाहते हैं कि उन्हें कोई दल क्या देगा? वह इन दलों के वादे को परख कर वोट दे रहा है। लेकिन इसमें एक और अहम फैक्टर और है जिससे जानने-समझने की जरूरत है। यह फैक्टर है कि वादा करने वाले राजनीतिक दल वोटर को किस कदर तक आश्वस्त करने में सफल होते हैं कि जो वादा उनकी ओर से किया गया है उसे पूरा करने में वे कितने सक्षम हैं। वोटर सिर्फ वादे नहीं, उसे पूरा करने वाली टीम की क्षमता का भी आकलन करती है। क्योंकि वादे तो सभी दल कर रहे होते हैं। इसके प्रभाव पर समानांतर बहस भी चली। लेकिन चूंकि सभी राजनीतिक दल इसमें समान रूप से शामिल हो गए हैं, ऐसे में यह बहस अब कहीं पीछे छूट गया है और सारा फोकस वादों के गणित पर आ गया है। दरअसल 2014 से नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की एक के बाद एक जीत ने विपक्ष के सामने अस्तित्व का का सवाल खड़ा कर दिया था।सामाजिक विशेषज्ञ आशीष रंजन कहते हैं कि यह हालिया ट्रेंड चुनाव नतीजे को प्रभावित कर रहा है। जीतकर हाल में इसके बढ़ते ट्रेंड को फिर स्थापित किया। आम आदमी पार्टी ने इसकी शुरुआत कर दिल्ली से पंजाब में सत्ता की एंट्री मारी। विपक्ष की इसमें बढ़ती पहल को देखते हुए बीजेपी को भी इसकी काट में काउंटर करने के लिए कुछ राज्यों में लुभावने वादे करने पड़े।अब राजनीतिक दल हर राज्य के लोगों की जरूरतों को देखते हुए वादों की फेहरिस्त तैयार कर रही है। इसी क्रम में भावनात्मक मुद्दे पीछे हो रहे हैं।

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