भारत और जर्मनी के बीच एक बार फिर से रिश्ता बनने जा रहा है! यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद भारत अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के केंद्र में है। हम इस साल जी-20 की मेजबानी कर रहे हैं तो दिल्ली खास फोकस में है। सालभर के भीतर दो ऐसे मौके आए, जब लगा कि क्या तीसरा विश्व युद्ध शुरू हो जाएगा? वैसे न्यूज के लिहाज से ये आशंका ज्यादा छाई रहती है, लेकिन कई बार जमीनी हकीकत भी इस तरफ इशारा करती है। पुतिन तो खुलेआम धमकी दे चुके हैं। उधर चीन ने ताइवान को घेर कर जो मिलिट्री ड्रिल किया उसने भी भारत को फोकस में लाकर रख दिया। फिलहाल यूरोप और अमेरिका, दो महाशक्तियों से लड़ रहे हैं- रूस और चीन। रूस के साथ इनका हथियारों से जंग नहीं चल रहा बाकी आर्थिक-कूटनीतिक-सैनिक प्रतिबंधों समेत सारे हथियार चलाए जा रहे हैं। उधर चीन के साथ यूरोप और अमेरिका दोनों शीत युद्ध लड़ रहे हैं। इंडो-पैसिफिक में समुद्र की लहरों के बीच चीन और अमेरिका के जंगी जहाजों में कब टक्कर हो जाए, कहना मुश्किल है। ताइवान की खाड़ी में पिछले दस दिनों के भीतर दो बार ऐसा होते-होते बचा है। अमेरिकी डिस्ट्रॉयर या विध्वंसक जंगी जहाज चुंग हून पेट्रोलिंग पर था और बहुत तेजी से चीनी नौसेना का जहाज ओवरटेक करते हुए निकल गया। यूएस कमांड ने चेतावनी दी तो चीन ने भी चेतावनी दे दी। उधर कनाडा, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे यूरोपीय देश भी चीन के रवैये से परेशान हैं लेकिन आर्थिक जरूरतों के चलते ब्रेक-अप के मूड में नहीं हैं। ऐसी स्थिति में इकॉनमिक और स्ट्रैटिजिक नजरिए से हमारा देश अहम हो जाता है। जिस इलाके में अमेरिका उलझा हुआ है उसका नाम ही इंडो-पैसिफिक है जिसे हिंदी में हिंद-प्रशांत क्षेत्र कहते हैं। इसके अलावा हम वो हैं जिसकी 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा चीन से लगती है। हम वो हैं जो डोकलाम से गलवान तक चीन का जवाब उसकी भाषा में देते हैं। हम इंडो-पैसिफिक के 16 देशों के साथ कैसे रिश्ते रखते हैं, ये आपने हाल ही में देखा होगा। पापुआ न्यू गिनी में नरेंद्र मोदी का जिस तरह स्वागत हुआ और वहां के पीएम ने जिस तरह नरेंद्र मोदी के पांव छू लिए, ये हमारी सांस्कृतिक ताकत को दिखाता है। तो स्वाभाविक है कि अमेरिका और यूरोप इस बात पर ध्यान न दें कि हमारे रिश्ते रूस के साथ अच्छे क्यों हैं? चीन पर ही फोकस रखें तो इसी में हमारा और उनका, दोनों का भला होगा। इसी के मद्देनजर हाल ही में आए दो रक्षा मंत्रियों के दिल्ली दौरे की चर्चा करूंगा। अमेरिका से लॉयड ऑस्टिन आए तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के गले लग गए। उनके जाते ही जर्मनी के रक्षा मंत्री बोरिस पिस्टोरियस दिल्ली पहुंचे।
लॉयड ऑस्टिन आए तो खूब बोले। भारत की सीमा में घुसने के लिए चीन को घेरा। उसे घुड़की दी। भारत के साथ दोस्ती मजबूत करने पर जोर दिया। सामरिक रिश्तों को नया आयाम देने की जरूरत बताई। एक हलके में तो ये भी माना जा रहा है कि 2008 में मनमोहन सिंह और बुश ने परमाणु डील के साथ जिस रिश्ते की शुरुआत की थी, उसे मोदी और बाइडन परवान चढ़ा रहे हैं। इंडो पैसिफिक गलियारे में अमेरिका को चीन के खिलाफ हमारी जरूरत है। इसलिए अगर चीन के खिलाफ अमेरिका हमारी मदद करता है तो कोई एहसान नहीं करेगा। हालांकि बिग ब्रदर का दंभ जाता नहीं, तो अमेरिका ऐसा एहसास कराने की कोशिश करता है। ऑस्टिन ने इस दिल्ली दौरे में भी किया। ये बोलकर कि गलवान घाटी के समय भारत ने हमसे मदद मांगी और हमने फौरन जो हो सकता था किया। वो सैटेलाइट इमेज की तरफ इशारा कर रह थे। लेकिन आज हम फोकस करते हैं जर्मनी पर। वेदों की सीख यूरोप में फैलाने वाले मैक्स मूलर का देश दोतरफा संबंध मजबूत बनाना चाहता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अमेरिका की तरह उसका भी स्वार्थ है। हमारा 130 करोड़ लोगों का बाजार, सस्ता श्रम और मैन्युफैक्चरिंग हब बनने का सफर इसकी जड़ में है। चीन से सप्लाई लाइन अमेरिकी रिश्तों पर डिपेंड करता है। ऐसे में अगर भारत, चीन की जगह ले ले तो यूरोप का काम आसान हो जाएगा।
भारत और जर्मनी के आपसी रिश्तो सदियों पुराने हैं। कारोबार तो 16वीं सदी से चल रहा है जब ऑसबर्ग और न्यूरमबर्ग की कंपनियों ने अफ्रीका का चक्कर लगाते हुए भारत तक पहुंचने का नया समुद्री रास्ता खोज निकाला था। जो सीमन्स कंपनी आज विश्व प्रसिद्ध है, उसे बनाने वाले वेर्नर वोन सीमन्स ने खुद अपनी निगरानी में लंदन से कोलकाता के बीच टेलीग्राफ लाइन बिछाई थी। ये बात 1870 की है। आज की बात करें तो छह पॉइंट्स से रिश्ते समझते हैं।
अब बारी डिफेंस की है। राजनाथ सिंह ने जर्मन रक्षा मंत्री बोरिस पोस्टोरियस को साफ-साफ बता दिया है कि चीन के साथ रिश्ते का मतलब है- पाकिस्तान को मजबूत बनाना। अगर जर्मनी कोई भी सबमरीन या डिफेंस टेक चीन को देता है तो उसका क्रैक वर्जन इस्लामाबाद पहुंचने में देर नहीं लगेगी। पिस्टोरियस की नजर 42 हजार करोड़ रुपए की पनडुब्बी डील पर है जिससे हवा और सतह दोनों पर वार हो सकता है। और इस रेस में स्पेन की कंपनी Navanita और दक्षिण कोरिया की Daewoo भी है। मतलब जिस तरह यूक्रेन युद्ध के मद्देनजर हमने शानदार तरीके से अपनी कूटनीतिक पोजीशनिंग रखी उसी तरह जर्मनी के केस में भी स्टियरिंग हमारे पास है। जर्मनी यूरोप में चीन का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर और टेक्नोलॉजी सप्लायर है। अमेरिका से भी बड़ा पार्टनर। इसलिए जर्मनी को अगर हमसे रिश्ते निभाने हैं तो चीन प्रेम छोड़ना होगा। ऐसा हो नहीं सकता कि आप हमारी नेवी के लिए मारक पनडुब्बी बनाएं और वही तकनीक दुश्मन देश को दे दें।