राष्ट्रपति चुनाव अब नजदीक आने वाले हैं! मैदान सज गया है, विरोधी टीमों की बाछें खिलीं हैं, वो सब एकजुट हो गए हैं, सबने एक मोहरा चुन लिया है, फिर भी जीत का भरोसा नहीं… खैर, टक्कर में रहने की आस तो है, जीते नहीं तो क्या, दमखम से लड़ेंगे… लेकिन ये क्या! सामने का मोहरा देखते ही भगदड़, हाथ छुड़ाकर भागने की होड़, एकुजटता से जिनकी बांछें खिली थीं, उनमें पाला बदलने की मारामारी! सियासी शतरंज की बिसात पर बीजेपी ने फिल्म की पटकथा लगने वाली इस रणनीति को साकार कर दिया है। राष्ट्रपति चुनाव में सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के सामने पूरी ताकत से खड़ा होने की विपक्ष की मंशा पर पानी फिर चुका है। अब बाकी बचा है तो बस दिखावे का विरोध।
बीजेपी की चाल से विपक्ष चित
बीजेपी की कारीगरी देखिए कि जिन ममता बनर्जी ने विपक्षी एकजुटता का ताना-बाना बुनकर यशवंत सिन्हा को विपक्ष का साझा राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया, वही एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में बोलने को मजबूर हो गईं। ऐसा नहीं है कि बीजेपी के फेंके पासे से सिर्फ ममता ही चित हुई हैं, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को ही देख लीजिए- उन्हें भी द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने का ऐलान करना पड़ा है। कितनी हैरत की बात है कि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन प्रदेश में कांग्रेस के समर्थन से सरकार से चला रहे हैं, लेकिन उनकी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) बीजेपी समर्थित एनडीए उम्मीदवार का साथ देगी।बात पहले, टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी की। प. बंगाल की मुख्यमंत्री खुद को देश की राजनीति में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ खुले मोर्चे का अग्रिम सेनापति के तौर पर पेश करती रहती हैं। राष्ट्रीय महत्व के हर चर्चित मुद्दे पर उनकी सबसे ठोस आवाज सुनने को मिलती है। बात बीजेपी की राजनीतिक कदमों की हो या केंद्र सरकार की नीतियों की, ममता हमेशा बेलाग बोलती हैं, बेहिचक विरोध करती हैं, जोरदार स्वर में। राष्ट्रपति चुनाव का मौका आया तो उन्होंने अपने चिरपरिचित अंदाज में बीजेपी और मोदी विरोध का झंडा थाम लिया। वो दिल्ली आईं और विपक्ष के साझे राष्ट्रपति उम्मीदवार के नाम पर चर्चा हुई। 15 जून की उस मीटिंग में विपक्ष की 17 पार्टियां जुटीं। दो दिन बाद 17 जून को दुबारा मीटिंग हुई तो ममता ने अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को भेज दिया।
कई लोगों के नाम उछले, लेकिन आखिरी सहमति यशवंत सिन्हा पर बनी। सोचिए, अब ममता इतनी मजबूर हैं कि उन्होने उस यशवंत सिन्हा को प. बंगाल में प्रचार करने से ही मना कर दिया जिनका विपक्षी उम्मीदवार के रूप में चयन उनकी अगुवाई में हुआ और जो उन्हीं की पार्टी से हैं। ममता ने अपनी मजबूरी बयां भी की है। उन्होंने कहा कि बीजेपी ने अगर अपने राष्ट्रपति उम्मीदवार की घोषणा पहले कर दी होती तो उस पर सर्वसम्मति बन सकती थी। अब वो मजबूर हैं कि चाहकर भी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन नहीं कर पाएंगी।
ममता की इस बेबसी की वजह क्या है?
दरअसल, दो वजहें हैं। पहली- 2011 की जनगणना के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में आदिवासियों की छह प्रतिशत जनसंख्या है। उनका बड़ा हिस्सा जंगल महल और उत्तरी बंगाल में बसा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि प. बंगाल में आदिवासियों की कुल 80% आबादी संथाल जाति से है जिससे द्रौपदी मुर्मू आती हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रदेश के आदवासियों ने बीजेपी का साथ दिया था। दूसरी- ममता हमेशा अपनी महिला हितैषी छवि चमकाते रहती हैं। उन्होंने खुद ही कहा कि वो महिलाओं के प्रति पक्षपात करने से नहीं हिचकती हैं।
आज जब देश में दूसरी बार एक महिला को सर्वोच्च पद पर पहुंचने का मौका मिल रहा है तो उसका विरोध करके कोई महिला हितैषी होने का दावा कैसे भर सकता है। इसलिए ममता ने सार्वजनिक बयान देकर यह समझाने की कोशिश की है कि वो मन से द्रौपदी मुर्मू के साथ हैं, लेकिन मजबूरी में यशवंत सिन्हा का समर्थन करेंगी। हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ममता के इस इजहारे खयालात से उसके कुछ विधायक और सांसद राष्ट्रपति चुनाव में पाला बदल लें। ऊपर से बीजेपी नेताओं सुभेंदु अधिकारी और सुकांत मजूमदार ने चिट्ठी के जरिए मुर्मू का समर्थन करने का आग्रह करके टीएमसी विधायकों और सांसदों पर दबाव बढ़ा दिया है।
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की मुसीबत तो और भी बड़ी है। अपने ही करीबी एकनाथ शिंदे के घात से बुरी तरह जख्मी हुए उद्धव को डर है कि मुर्मू का साथ नहीं दिया तो अपने खेमे में बचे कुछ और लोग उस घाव को और गहरा न कर दें। शिवसेना के 55 में से 39 विधायक तो टूटकर शिंदे के साथ चले गए हैं। अब उद्धव के सामने 19 सांसदों को साथ रखने की बहुत बड़ी चुनौती है। राष्ट्रपति चुनाव को लेकर शिवसेना सांसदों की मीटिंग के बाद उद्धव ने कहा कि उन पर सांसदों का कोई दबाव नहीं है। हालांकि, यह ऐलान भी किया कि उनका धड़ा भी द्रौपदी मुर्मू का ही समर्थन करेगा।
सोचिए अगर शिवसेना नहीं टूटती तो आज उद्धव विरोधियों की अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखते क्योंकि ममता के पैर खिंचने से उनका स्पेस और बड़ा हो जाता। लेकिन बीजेपी ने ऐसी बिसात बिछाई कि उद्धव को ना उगलते बने ने निगलते। अब जब उद्धव ने एनडीए कैंडिडेट के समर्थन की कड़वी गोली निगल ली है तो कांग्रेस-एनसीपी के साथ शिवसेना की महाविकास अघाड़ी (MVA) के भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो ही गया है। राष्ट्रपति चुनाव को लेकर उद्धव ठाकरे का फैसला बीजेपी को उनकी तरफ से युद्धविराम का सफेद झंडा दिखाए जाने जैसा संकेत माना जा रहा है। सरकार तो गई ही, सांसद टूटे तो शिवसेना पर दावेदारी भी चली जाएगी। ऐसी मुश्किल तो किसी और विरोधी दल की नहीं। जो कल तक दहाड़ रहा था, वो आज समर्थन में हुआ-हुआ करने को मजबूर हो, इससे बड़ी बेचारगी और क्या हो सकती है।
द्रौपदी मुर्मू बीजेपी की दोधारी तलवार हैं जिनके जरिए विपक्ष पर दोतरफा वार हुआ है। जिसने समर्थन किया, उसने हथियार डाल दिया और जो विरोध कर रहे हैं, उनकी जान हलक में अटकी है कि आखिर आदिवासी वोटबैंक को कैसे समेट पाएंगे। कांग्रेस पार्टी को ही ले लीजिए। उसकी अपने दम पर जिन दो राज्यों में सरकार है उनमें एक छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल राज्यों में शुमार किया जाता है। वहां अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल किस मुश्किल से गुजर रहे होंगे, इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है। एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति भवन जाने को तैयार है, लेकिन आदिवासी बहुल प्रदेश की सरकार का रुख दूसरी दिशा में है। सोचिए, अगले विधानसभा चुनाव में बघेल अपने वोटरों को कैसे समझा पाएंगे कि उनकी पार्टी ने द्रौपदी मुर्मू का साथ क्यों नहीं दिया। बगले के एक और आदिवासी बहुल राज्य झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने बघेल के सामने आने वाले प्रश्न और कठिन बना दिया है। झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) का मुर्मू के समर्थन का ऐलान कर देने से छत्तीसगढ़ में बघेल की मुश्किल बढ़ेगी, इस आशंका को सिरे से नकारा नहीं जा सकता है।