अशोक वृक्ष को हमारे आयुर्वेद के साथ-साथ धार्मिक वेद में भी महत्वपूर्णता प्रदान की गई है! आयुर्वेद में अशोक वृक्ष को हेमपुष्प या ताम्रपल्लव कहा जाता है। वैसे तो अशोक वृक्ष के विभिन्न अंग यानि फूल, पत्ता आदि को महिलाओं के सेहत संबंधी समस्याओं के लिए फायदेमंद माना जाता है, लेकिन इसके पौष्टिक और उपचारत्मक गुणों के कारण बहुत सारे बीमारियों के लिए आयुर्वेद में औषधि के रुप में इस्तेमाल किया जाता है।
प्राचीनकाल में प्रसन्नता एवं शोक को दूर करने के लिए अशोक वाटिकाओं एवं उद्यानों का प्रयोग होता था और इसी आश्रय से इसके नाम शोकनाश, विशोक, अपशोक आदि रखे गए हैं। सनातनी वैदिक लोग तो इस पेड़ को पवित्र एवं आदरणीय मानते ही हैं, किन्तु बौद्ध भी इसे विशेष आदर की दृष्टि से देखते हैं; क्योंकि कहा जाता है कि भगवान बुद्ध का जन्म अशोक वृक्ष के नीचे हुआ था। इसका सम्बन्ध कामदेव से भी है। पुष्प धन्वा (कामदेव) के पंचपुष्प बाणों में अशोक पुष्प की भी गणना की गई है और इसके पर्यायवाची नामों में स्मराधिवास, नट आदि नाम भी सम्मिलित किए गए है।
मुख्यतया अशोक की दो प्रजातियां होती हैं, जिनका प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है। काष्ठदारु की प्राय: अशोक वृक्ष के रूप में पहचान की जाती है, जो गलत है; वास्तविक अशोक या सीता अशोक होता है, जिसमें एक सिंदूरी या लाल रंग के फूल आते हैं तथा काष्ठदारु में पीले-हरे रंग के फूल आते हैं। काष्ठदारु वृक्ष की लम्बाई (15-20 मी तक) भी वास्तविक अशोक (6-9 मी तक) से अधिक होती है।
अशोक प्रकृति से लघु, रूखा, चरपरा, विपाक में कड़वा और शीतल होता है। यह दर्दनिवारक, रंग गोरा करने वाला, हड्डी जोड़ने वाला, सुगन्धित, हृद्य,तीन दोषों को हरने वाला, प्यास, जलन, कृमि, सूजन, दर्द, पेट का रोग, आध्मान या पेट का फूलना , विष, अर्श या पाइल्स, रक्त संबंधी रोग, गर्भाशय की शिथिलता, सर्व प्रकार के प्रदर या लिकोरिया, बुखार, जोड़ो का दर्द और अजीर्ण या अपच आदि रोगों का नाशक है। इसका प्रयोग कष्टार्तव, रक्तपित्त (नाक-कान से खून बहना), अश्मरी या पथरी तथा मूत्रकृच्छ्र या मूत्र संबंधी रोग में करते हैं। अशोक की छाल कटु, तिक्त या कड़वी, बुखार व तृषा (प्यास) नाशक, रक्त-विकार, थकावट, शूल या दर्द, अर्श या पाइल्स इत्यादि रोगों में लाभदायक होता है। इसके अतिरिक्त पेट बढ़ने की बीमारी, अत्यधिक रक्तस्राव तथा गर्भाशयगत रक्तस्राव में उपयोगी होता है। अशोक के बीज मूत्रल या मूत्र रोग नाशक होते हैं। अशोक के पुष्प रक्तजप्रवाहिका (खूनी दस्त) नाशक होते हैं।
नकली अशोक प्रकृति से कटु, तिक्त, उष्ण या गर्म, लघु तथा रूक्ष यानि रूखा होता है। यह कृमि रोग में फायदेमंद तथा बुखार व कुष्ठ रोग से छुटकारा दिलाने में मदद करता है। इसका प्रयोग आमदोष, कब्ज तथा कृमिरोग में अत्यन्त लाभकारी होता है।
जब बवासीर का रोग गंभीर अवस्था में चला जाता है तब मस्सों से खून निकलने लगता है। अशोक का सेवन इस तरह से करने पर जल्दी आराम मिलता है।
अशोक की छाल का काढ़ा बनाकर 15-25 मिली मात्रा में पिलाने से अर्शजन्य रक्तस्राव. तथा मासिक विकारों में लाभ होता है।
अशोक की छाल और इसके फूलों को बराबर मात्रा में लेकर 10 ग्राम मात्रा को रात्रि में एक गिलास पानी में भिगोकर रख दें। सुबह पानी छानकर पी लें। इसी प्रकार सुबह का भिगोया हुआ शाम को पी लें। इससे रक्तार्श में शीघ्र लाभ होता है।महिलाओं को अक्सर योनि से सफेद पानी निकलने की समस्या होती है। सफेद पानी का स्राव अत्यधिक होने पर कमजोरी भी हो जाती है। इससे राहत पाने में अशोक का सेवन फायदेमंद होता है।
अशोक छाल चूर्ण और मिश्री को समान मात्रा में पीस कर, 3 ग्राम की मात्रा में लेकर गाय के दूध के साथ सुबह-शाम सेवन करने से सफेद पानी में लाभ होता है।
15-25 मिली अशोक छाल काढ़ा को दूध में मिलाकर सुबह शाम पिलाने से सफेद पानी और रक्त-प्रदर में लाभ होता है।
3 ग्राम अशोक छाल को चावल के धोवन में पीस-छानकर इसमें 1 ग्राम रसौत और 1 चम्मच मधु मिलाकर नियमित सुबह शाम सेवन से प्रदर में लाभ होता है। इस प्रयोग के साथ अशोक छाल के काढ़े में फिटकरी मिलाकर योनि को धोना चाहिए।
अशोक की छाल, बबूल की छाल, गूलर की छाल, माजूफल और फिटकरी को समान मात्रा में मिलाकर पीस लें। 50 ग्राम चूर्ण को 400 मिली पानी में उबालकर 100 मिली काढ़ा तैयार कर लें, इसे छान कर योनि को धोने से या पिचु धारण करने से योनि शीथिलता कम होती है।
6-12 ग्राम अशोक घी को गुनगुने दूध अथवा जल के साथ सेवन करने से सभी प्रकार के प्रदर रोग, कमरदर्द, योनि में दर्द, अरुचि, पाण्डु या एनीमिया, श्वास, खांसी आदि रोगों से राहत दिलाता है।
20-25 मिली अशोकारिष्ट को प्रतिदिन भोजन के बाद सेवन करने से रक्तप्रदर, ज्वर, रक्तपित्त, रक्तार्श (खूनी बवासीर), प्रमेह या डायबिटीज, शोथ या सूजन आदि रोगों में अतिशय लाभ होता है।