यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हिंदुओं को पहले ही राम जन्मभूमि मिल जानी चाहिए थी या नहीं! अयोध्या का झगड़ा, राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद बहुत लम्बा चला। 2019 तक, जब सुप्रीम कोर्ट ने विवादित जमीन पर राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ किया। अब सवाल उठता है कि क्या इसे पहले ही बातचीत और समझौते से सुलझाया नहीं जा सकता था? राम मंदिर के भव्य उद्घाटन की तैयारी चल रही है, तो ये सोचने का भी मौका है कि अतीत में क्या हुआ था। इस बहस में ये सवाल जरूरी है कि इस विवाद को लम्बा करने में मुसलमानों का क्या रोल था? वो अपनी हक का दावा छोड़ने को क्यों राजी नहीं थे? कुछ कहते हैं कि अगर मुसलमानों ने अपनी हकदारी छोड़ दी होती तो शायद इतिहास अलग होता। वो हिंदू भावनाओं का सम्मान करते हुए एक बड़ा दिल दिखाते। लेकिन कुछ ये भी कहते हैं कि मुसलमानों के लिए तो पीछे हटना ही फायदेमंद होता। उनके लिए तनाव बढ़ाने से रोकना और टकराव से बचना ही अच्छा था। लंबे समय में तो उन्हें ही ज्यादा नुकसान हुआ, जैसा कि अब तक हुआ है। शायद इससे बीजेपी अपनी हिंदुत्व की राजनीति से पीछे नहीं हटती, लेकिन रफ्तार जरूर कम होती और माहौल थोड़ा शांत होता।
साथ ही, विवादित मंदिरों के मामले में 1991 के उपासना स्थल कानून को सख्ती से लागू कर पाते, जिसके मुताबिक 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जैसा था, वैसे ही रहेगा। संघ पर उदार हिंदुओं की तरफ से इस बात का दबाव बढ़ता कि वे अब दूसरे पुराने ऐतिहासिक विवादों को जिंदा न करे, हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को दुरुस्त करने का सुनहरा मौका था, इस विवाद को सुलझाकर। इससे सबसे ज्यादा फायदा तो कम्युनिटी के नाते मुसलमानों को ही होता। लेकिन समझौते की बात तक न मानने से दरार और गहरी हो गई। दूसरा और शायद ज्यादा अहम कारण, जिसे मुसलमानों को पीछे हटने के लिए प्रेरित करना चाहिए था, वो ये था कि ये विवादित जमीन भगवान राम की जन्मस्थली मानी जाती है। इसलिए हिंदुओं के लिए इसका धार्मिक महत्व कहीं ज़्यादा था। जो लोग हिंदुत्व की राजनीति से सहमत न हों, वो भी इस जगह से गहरा धार्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं। उनके लिए, ये उतना ही पवित्र है जितना मुसलमानों के लिए मक्का-मदीना और ईसाइयों के लिए वेटिकन सिटी।
मुझे याद है, लखनऊ विश्वविद्यालय के एक विद्वान, जो खुद को गैर-राजनीतिक बताते थे, मुझसे कह रहे थे: ‘राम मंदिर तो बहुत हैं, लेकिन ये जन्मस्थली होने की वजह से खास है।’दूसरी तरफ, मुसलमानों के लिए ये सिर्फ जमीन का झगड़ा था। इसका कोई धार्मिक या ऐतिहासिक महत्व नहीं था। अयोध्या की तंग गलियों में इसे ढूंढना भी मुश्किल था। कई स्थानीय लोगों को सही रास्ता बताने में भी परेशानी होती थी। न ही ये मस्जिद कोई संरक्षित ऐतिहासिक इमारत थी, जिसे दूसरी जगह नहीं ले जाया जा सकता था। हां, ये जरूर है कि मुसलमानों को राम जन्मभूमि के बदले दूसरी जगह मस्जिद बनाने का वादा किया गया था। इस्लाम में, ज़रूरत पड़ने पर मस्जिद को दूसरी जगह ले जाने या तोड़ने की मनाही नहीं है। मुस्लिम दुनिया में, सऊदी अरब समेत तमाम मुल्कों में बुनियादी ढांचे के कामों के लिए अक्सर मस्जिदों को हटाया या दूसरी जगह बनाया जाता है।
अयोध्या की विवादित मस्जिद में काफी समय से नमाज नहीं पढ़ी जाती थी। सरकार ने जमीन के झगड़े की वजह से उसे बंद कर रखा था। फैजाबाद के आसपास ऐसी और भी बहुत सारी बेकार पड़ी मस्जिदें थीं। किसी को इसकी कोई खास परवाह नहीं थी। मेरे पैतृक कस्बे रुदौली जो बाराबंकी के पास है, में हद-से-हद कुछ ही लोग उस टूटी-फूटी इमारत को गंभीरता से लेते थे जो अचानक सुर्खियों में आ गई थी। मुसलमानों के लिए अयोध्या जमीन का सवाल था, धर्म, आस्था या इतिहास का नहीं। ये जरूर है कि आम धारणा के विपरीत, मुसलमानों में काफी बड़ा तबका ऐसा था जो झगड़े से बचना चाहता था। वे जानते थे कि हार तय थी, इसलिए एक बड़ा कदम उठाकर, एक ‘पवित्र इशारा’ कर, तनाव कम करना चाहते थे। इनमें उत्तर प्रदेश के कई आम मुसलमान शामिल थे, जिनका जीवन इस तनाव से उथल-पुथल हो गया था। उनका मानना था कि बेकार पड़ी मस्जिद के लिए झगड़ा करना बेमानी है।
उत्तर प्रदेश बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी यूपीबीएमएसी के संयोजक जफरयाब जिलानी ने समझौता न करने का बचाव करते हुए कहा था, ‘अगर हम हिंदुओं से ये मस्जिद हार गए, तो पहले से ही दबे-सहमे इस अल्पसंख्यक समुदाय के पास इस देश के नागरिक होने का जो बचा-खुचा हौसला है, वो भी टूट जाएगा।’ ये एक अतिवादी दावा था और ये दिखाता था कि मुसलमान नेताओं की समझ हकीकत से कितनी दूर है। ये मुद्दा जल्दी ही अलग-अलग मुस्लिम गुटों के लिए अपनी ताकत दिखाने का जरिया बन गया।
इस बीच, तथाकथित धर्म-निरपेक्ष पार्टियां, खासकर कांग्रेस जो खुद को मुसलमानों का हितैषी मानती है, और पूरा उदारवादी वर्ग, अयोध्या विवाद को हिंदू दक्षिणपंथ के साथ अपने रूढ़िवादी विचारों की लड़ाई लड़ने के लिए इस्तेमाल करने लगा। 1988 के नवंबर में, ‘इंडिया टुडे’ की एक खास रिपोर्ट में फरजंद अहमद और दिलीप अवस्थी ने लिखा कि कैसे मुस्लिम गुट और उनके “धर्म-निरपेक्ष” राजनीतिक साथी, राजनीतिक फायदे के लिए अयोध्या के मुद्दे को हवा दे रहे थे और 1989 के आम चुनावों के लिए बीजेपी से सीधे टकराव में लगे हुए थे।
वक्त समझदारी और जल्दी से विवाद सुलझाने की जरूरत थी, लेकिन मुस्लिम नेताओं का रवैया निराशाजनक था। शहाबुद्दीन से जब बाबरी मस्जिद समन्वय समिति के अगले कदम के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा, ‘हम जल्दी में नहीं हैं। हम सिर्फ शांतिपूर्ण समाधान चाहते हैं, वो भी मस्जिद को हिंदुओं के हवाले किए बिना।’
समस्या ये थी कि इस ‘शांतिपूर्ण समाधान’ को कभी साफ-साफ नहीं बताया गया। असल में, इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति थी ही नहीं। अहंकार और गलत ‘मुस्लिम गर्व’ की भावना ने शांति बहाल करने की जरूरत को दबा दिया। “मस्जिद बचाओ” का पूरा अभियान गलत सोच पर आधारित था और अल्पकालिक फायदे हासिल करने के लिए चलाया गया था, जैसा कि बाद की घटनाओं ने दिखाया। अगर मुसलमान समझौता कर लेते तो क्या चीजें जरूर बदलतीं, ये सवाल इतिहास की कल्पनाओं में ही रह जाएगा।