ऐसा लगता है कि इस बार आजम खान अखिलेश यादव पर दबाव नहीं बना पाए हैं! सीतापुर जेल में बंद समाजवादी पार्टी के कददावर नेता आजम खां की प्रेशर पॉलिटिक्स इस बार किसी काम नहीं आई। न तो आजम खां की मर्जी से रामपुर का उम्मीदवार तय हो सका और आजम खां के करीबी रहे मुरादाबाद के डॉ एसटी हसन का टिकट तो नामांकन के बाद भी बदल दिया गया। हालांकि, जनता के बीच यही संदेश दिया है कि डॉ एसटी हसन के टिकट से आजम खां खुश नहीं थे, लेकिन डॉ एसटी हसन आज भी आजम खां को अपना नेता मानते हैं। ये कुछ ऐसे संकेत हैं, जो समाजवादी पार्टी में बदलाव की राजनीति की दिशा दिखा रहे हैं। हम बात कर रहे हैं उस रामपुर की, जो लंबे वक्त तक समाजवादी पार्टी का गढ़ रहा है। सिर्फ रामपुर ही नहीं, बल्कि समूचे उत्तर प्रदेश की मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर रामपुर का असर रहता था। उसका सबसे बड़ा कारण समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खां हैं, जो सपा से दस बार विधायक बने। एक बार लोकसभा और एक बार राज्यसभा के सदस्य बने। इसके अतिरिक्त जब-जब सपा की सरकार बनीं, तो सूबे के ताकतवर मंत्री बने।
यही वजह थी जो फिर चाहें प्रत्याशी तय करने की बात हो या फिर सपा के चुनावी घोषणा पत्र की, हर जगह आजम खां का असर नजर आता था। हालात कुछ इस तरह थे कि आजम खां अपनी बात नाराजगी जताकर मनवा लेते थे, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से लेकर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव तक कोई भी आजम खां की बात को टाल नहीं सकता था। कई बार ऐसा देखने को भी मिला है। तो इस बार ऐसा क्या बदल गया, जो आजम खां की मर्जी से रामपुर संसदीय सीट तक के प्रत्याशी को तय नहीं किया जा सका। जानकार तो यहां तक कहते हैं कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव अब बदलाव की राह पर निकल पड़े हैं।
अखिलेश यादव ने आजम खां के जेल जाने के बाद और उन्हें सजा होने की वजह से चुनाव लड़ने की रोक के बाद यह बात अच्छी तरह से समझ ली थी कि अब मुस्लिम चेहरे के रूप किसी दूसरे व्यक्ति को ही तलाशना पड़ेगा। क्योंकि, सिर्फ आजम खां ही नहीं, बल्कि उनकी पत्नी डॉ. तजीन फात्मा बेटे अब्दुल्ला आजम को भी उतनी ही सजा हुई है, जितनी की आजम खां को हुई है। ऐसे में आजम खां से उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। क्योंकि, जब चुनाव ही नहीं लड़ सकते, तो जनता के बीच उनकी पकड़ कैसे मजबूत रहेगी। लिहाजा, इस बार अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव में आजम खां की पसंद का नहीं, बल्कि अपनी पसंद के रूप में मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी को सपा का टिकट दिया और उन्होंने अपना नामांकन भी दाखिल कर दिया। जबकि, आजम खां के करीबी आसिम राजा ने भी इसी उम्मीद में अपना नामांकन कराया था कि शायद आजम खां के दबाव में आकर उन्हें सिंबल मिल जाए, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और उनका नामांकन खारिज हो गया।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने जिस अंदाज में मोहिबुल्लाह नदवी को टिकट दिया है, उससे साफ जाहिर है कि वो उनके सहारे मुस्लिम मतदाताओं को साधेंगे। मोहिबुल्लाह को कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है और न ही वो कभी राजनीति में सक्रिय रहे। दिल्ली की पार्लियामेंट मस्जिद के मौलवी रहे। लिहाजा, उन पर किसी तरह के आरोप प्रत्यारोप भी नहीं हैं। इसके अतिरिक्त आजम खां का असर भी नहीं रहेगा, क्योंकि मोहिबुल्लाह भी रामपुर के ही हैं और रामपुर के नाम से ही सपा की मुस्लिम राजनीति चमकती रही है। इस तरह जनता को यह बात आसानी से समझाई जा सकती है कि बदलाव के सिवाए कोई विकल्प नहीं था।
जानकारों की मानें तो समाजवादी पार्टी का यह कदम सपा नेता आजम खां के सियासी वजूद के लिए खतरे की घंटी है। सिर्फ रामपुर ही नहीं, बल्कि समूचे उत्तर प्रदेश की मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर रामपुर का असर रहता था। उसका सबसे बड़ा कारण समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खां हैं, जो सपा से दस बार विधायक बने। एक बार लोकसभा और एक बार राज्यसभा के सदस्य बने। इसके अतिरिक्त जब-जब सपा की सरकार बनीं, तो सूबे के ताकतवर मंत्री बने।यदि मोहिबुल्लाह के नाम पर मुस्लिम मतदाताओं का रूझान सपा की तरफ रहा, तो फिर मोहिबुल्लाह रामपुर के नए मुस्लिम नेता होंगे। फिर चाहें वो लोकसभा चुनाव जीतें या फिर हारें। यदि ऐसा हुआ तो यह आजम खां के सियासी वजूद के लिए उचित भी नहीं होगा।