आज हम आपको अलग-अलग देश में महिलाओं की राजनीति में अंतर बताने जा रहे हैं! भारत का पहला चुनाव 1950 के दशक के विश्व के सबसे चुनौतीपूर्ण प्रशासनिक कार्यों में से एक था। इसके अभूतपूर्व पैमाने और प्रचलित सामाजिक परिस्थितियों ने कई समस्याएं पैदा कीं। आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि लगभग 28 लाख महिलाओं के नाम, जिनमें से अधिकांश हिंदी पट्टी में थीं, को मतदाता सूची से हटा दिया गया था क्योंकि वे पुरुषों से अपने संबंध से पहचानी जाना चाहती थीं- फलां की मां, चिलां की पत्नी, उनकी की बेटी आदि। वर्षों से मतदाताओं और प्रतिनिधियों के रूप में चुनावों में भारतीय महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन प्रगति इतनी धीमी है कि आज भी भारत अधिकांश प्रमुख देशों से बहुत पीछे है। 1962 से मतदाताओं, उम्मीदवारों और सांसदों के लिए निरंतर लैंगिक आंकड़े उपलब्ध हो रहे हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि महिला मतदाताओं की संख्या में घोड़े की रफ्तार से वृद्धि हुई है, लेकिन उम्मीदवारों और सांसदों के रूप में उनका अनुपात घोंघे की गति से बढ़ा है। चुनाव आयोग और पार्टियों के प्रयासों से महिला मतदाताओं की हिस्सेदारी 1962 में 42% से बढ़कर 2019 में 48.2% हो गई, जो लगभग जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी के बराबर है। लेकिन उम्मीदवारों के बीच महिलाओं की हिस्सेदारी इसी अवधि में केवल 3.2% से बढ़कर 9% हुई। 2019 में 14% महिलाएं सांसद थीं जबकि उनकी कम-से-कम 33% हिस्सेदारी की उम्मीद की जाती है।
एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने सितंबर 1996 में संसद में आरक्षण के लिए एक संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था। फिर भी 1996 से 2019 तक हुए सात चुनावों में किसी भी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी ने महिलाओं को 10% से ज्यादा टिकट नहीं दिए। हालांकि, कुछ दूसरी पार्टियों ने कुछ चुनावों में महिलाओं को 10% से अधिक टिकट दिए। औसत निकालें तो कांग्रेस पार्टी महिलाओं को कम से कम 10 में से 1 टिकट देती है, जबकि बसपा केवल 20 में से 1 टिकट देती है। भाजपा और सीपीआई में प्रत्येक का आंकड़ा 8% है जबकि सीपीएम 9% टिकट महिलाओं को देती है। कुल मिलाकर, इन पांच पार्टियों के उम्मीदवारों में महिलाओं का औसत 8.5% है।
सिर्फ 15 साल पहले 2009 में मध्य प्रदेश, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान राज्यों में महिलाओं की मतदाताओं में हिस्सेदारी 45% से कम थी। इन राज्यों में महिला मतदाताओं की हिस्सेदारी में सबसे अधिक वृद्धि देखी गई है ताकि देश के बाकी हिस्सों के साथ तालमेल बिठाया जा सके। दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्यों में महिलाओं की हिस्सेदारी आधी है, जहां के पुरुष रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं। 11 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक है। 52.2% महिला मतदाता के साथ पुदुचेरी इस लिस्ट में टॉप पर है। इसके बाद मिजोरम, मेघालय और मणिपुर आते हैं। बड़े राज्यों में छत्तीसगढ़, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु में भी महिला मतदाता अधिक हैं।
महिला मतदाताओं को तो हर पार्टी लुभाना चाहती है। इसके लिए वो बसों में मुफ्त यात्रा, खाते में सीधे पैसे ट्रांसफर जैसी स्पेशल स्कीम का सहारा लिया जाता है, लेकिन उन्हें शायद ही चुनाव लड़ने का टिकट दिया जाए। दरअसल, छत्तीसगढ़ और त्रिपुरा को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में तो विधायकों की संख्या वहां के सांसदों के मुकाबले भी कम है। लेकिन प्रगति इतनी धीमी है कि आज भी भारत अधिकांश प्रमुख देशों से बहुत पीछे है। 1962 से मतदाताओं, उम्मीदवारों और सांसदों के लिए निरंतर लैंगिक आंकड़े उपलब्ध हो रहे हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि महिला मतदाताओं की संख्या में घोड़े की रफ्तार से वृद्धि हुई है, लेकिन उम्मीदवारों और सांसदों के रूप में उनका अनुपात घोंघे की गति से बढ़ा है।वकील और कर्नाटक की पूर्व विधायक रह चुकीं प्रमीला नेगसराई कहती हैं कि पुरुष तो महिलाओं को सिर्फ प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिका, नर्स और एयर होस्टेस तक ही देखना चाहते हैं। उन्हें विधायक बनाना भला कौन चाहता है? उन्होंने कहा, ‘जब तक आरक्षण लागू नहीं होगा, कोई बड़ा दल महिलाओं को चुनाव मैदान में नहीं उतारेगा।’
मानव विकास सूचकांक में हाई रैंकिंग वाले देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अधिक होता है। उदाहरण के लिए, न्यूजीलैंड में 50% से अधिक महिला सांसद हैं। स्पेन, फ्रांस, जर्मनी, यूके और इटली में भी निचले सदन में प्रत्येक में 30% से अधिक महिला प्रतिनिधि हैं। पुरुष तो महिलाओं को सिर्फ प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिका, नर्स और एयर होस्टेस तक ही देखना चाहते हैं। उन्हें विधायक बनाना भला कौन चाहता है? उन्होंने कहा, ‘जब तक आरक्षण लागू नहीं होगा, कोई बड़ा दल महिलाओं को चुनाव मैदान में नहीं उतारेगा।’भारत न केवल इन अमीर देशों से बल्कि अपने पड़ोसियों नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी पीछे है।