Friday, November 22, 2024
HomeIndian Newsआखिर क्या था 10 साल पुराना नालसा जजमेंट?

आखिर क्या था 10 साल पुराना नालसा जजमेंट?

आज हम आपको 10 साल पुराना नालसा जजमेंट के बारे में जानकारी देने वाले हैं! नालसा जजमेंट को दस साल पूरे हो गए हैं। जब श्रीगौरी सावंत ने दस साल पहले सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों को मान्यता दिलाने के लिए याचिका दायर की थी, लेकिन उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं थी। लेकिन चौंकाने वाली बात ये रही कि नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (NALSA) का जजमेंट भारत में उनके समुदाय के लिए नागरिक स्वतंत्रता की आधारशिला बन गया। इस जजमेंट में लिंग और लैंगिक पहचान के अंतर को माना गया, एक अलग थर्ड जेंडर का कानूनी दर्जा बनाया गया और केंद्र और राज्य सरकारों को ट्रांस लोगों के मूलभूत अधिकार सुनिश्चित करने के निर्देश दिए गए। आज एक बार फिर श्रीगौरी निराश हैं। वो कहती हैं, ‘ट्रांस लोगों को जो पहचान मिली है वो हमारी लड़ाई की वजह से है, सरकार की वजह से नहीं। गरीबी और सामाजिक वर्ग एक बड़ी समस्या है। बड़ी कंपनियों में रंगीन बाल रखने वाले लोगों की स्थिति शायद बेहतर हो, लेकिन जो ट्रांस लोग दस साल पहले रेड लाइट एरिया में थे, वो आज भी वहीं हैं। श्रीगौरी एक एनजीओ ‘सखी चार चौघी ट्रस्ट’ चलाती हैं जो ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों के लिए काम करता है।

नालसा का ऐतिहासिक जजमेंट 15 अप्रैल 2014 को आया था। इस जजमेंट में लिंग को “व्यक्ति की अपनी लैंगिक पहचान की जन्मजात अनुभूति’ के रूप में परिभाषित किया गया, जिससे ट्रांस लोगों को खुद को चुनने का अधिकार मिला। दिल्ली स्थित वकीलों के संगठन “लॉयर्स कलेक्टिव” की उप-निदेशक, वकील त्रिप्ति टंडन कहती हैं, ‘नालसा की कानूनी लड़ाई में शामिल होना एक बड़ी जीत थी। उससे पहले कुछ छिटपुट मुकदमे होते थे, लेकिन कानून की नजर में ट्रांसजेंडर लोग गैर-मौजूद थे। उनके लिए कोर्ट का दरवाजा तक बंद था। वो एक ऐसे मुवक्किल को याद करती हैं जो हमेशा जजमेंट की एक प्रति अपने पास रखते थे ताकि लोगों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले की याद दिला सकें। एक और मुवक्किल के परिवार ने जजमेंट के बाद उनकी पहचान स्वीकार कर ली। सरकारों को दिए गए निर्देशों को तीन मुख्य भागों में बांटा जा सकता है। पहला, खुद की पहचान चुनने का अधिकार, दूसरा सामाजिक कल्याण योजनाओं में ट्रांस लोगों को शामिल करना और तीसरा शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में दाखिले के लिए आरक्षण की व्यवस्था बनाना।

मुस्कान तिब्रेवाला, जो सेंटर फॉर जस्टिस लॉ एंड सोसाइटी में लॉ एंड मार्जिनेलाइजेशन क्लिनिक की सहायक निदेशक हैं और ट्रांस लोगों को निशुल्क कानूनी सेवाएं देती हैं, उनका कहना है कि भले ही नालसा के फैसले से ट्रांस समुदाय को कानूनी मान्यता मिली, लेकिन पिछले 10 सालों में इस फैसले को जमीनी स्तर पर लागू करने की कोशिशों में कमी रही है। तिब्रेवाला कहती हैं, भीख पर रोक लगती है, कई राज्यों में ट्रांसजेंडर स्टेट बोर्ड काम नहीं कर रहे हैं और सिर्फ दो राज्यों ने ही पुलिस स्टेशनों में ट्रांसजेंडर सुरक्षा सेल बनाए हैं, जैसा कि निर्देश दिया गया था। हरियाणा में एक कार्यकर्ता को इसे अदालत में ले जाना पड़ा।

दूसरे लोग भी इस बात से सहमत हैं कि भले ही नालसा ने सामाजिक बदलाव हासिल करने के लिए व्यवस्था बनाई, लेकिन ट्रांस लोगों को अब भी हर कदम पर लड़ाई लड़नी पड़ रही है। जैसा कि श्रीगौरी कहती हैं, ‘यह ऐसा है जैसे किसी को घर पर रात के खाने पर बुलाया जाए लेकिन यह भी कहा जाए कि आप तभी आ सकते हैं अगर आपके पास चांदी की थाली और सोने का चम्मच हो।’

फैसले और उससे निकले “ट्रांसजेंडर अधिकारों का संरक्षण अधिनियम, 2019 में स्वयं लिंग पहचान की बात की गई है। नालसा का यही वह हिस्सा है जिसे सबसे ज्यादा लागू किया गया है। इससे पहले, आपको लिंग बदलने के लिए सर्जरी करवानी पड़ती थी, लेकिन अब दो प्रमाणपत्र हैं। आप कानूनी रूप से खुद को ट्रांस के रूप में पहचान सकते हैं, लेकिन अगर आप कानूनी रूप से पुरुष या महिला के रूप में पहचान बनाना चाहते हैं तो आपको हॉर्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी (HRT) या मनोचिकित्सा मूल्यांकन जैसे मेडिकल प्रक्रिया की आवश्यकता होती है। समस्या यह है कि जमीनी स्तर पर इस प्रक्रिया को बहुत ही खराब तरीके से लागू किया जाता है।

हाल ही में पुणे पुलिस ने ट्रांस समुदाय द्वारा भीख मांगने पर रोक लगा दी। सखी सावंत कहती हैं, ‘यह कहना आसान है कि भीख मत मांगो, लेकिन क्या हमें खुद का गुजारा करने के लिए एक पैसा भी मिल रहा है? क्या हमें नौकरियां मिल रही हैं? कोई भी अपनी मर्जी से भीख नहीं मांगता। नेशनल काउंसिल फॉर ट्रांसजेंडर पर्सन्स में सेवा देने वाली कल्कि सुब्रमण्यम कहती हैं, ‘शिक्षा, उद्यमिता या आजीविका की पहल के अवसरों के बिना, सिस्टम ट्रांस लोगों को भीख मांगने से कैसे रोक सकता है? हमें अपने परिवारों से अलग कर दिया जाता है, जिससे हमारे पास सिर्फ भीख मांगने या देह व्यापार करने का विकल्प बचता है।’

मोगली का कहना है कि ट्रांसजेंडर लोगों के खिलाफ अत्याचारों के प्रावधानों के मामले में 2019 का अधिनियम एक मजाक है। यह कानून नालसा के फैसले के जनादेश के जवाब में बनाया गया था। हालांकि, सजा 6 महीने से दो साल तक की है, और अपराधियों को थाने से ही जमानत मिल सकती है। उन्हें इसके लिए कोर्ट जाने की भी जरूरत नहीं पड़ती।

Disclaimer:

Mojo Patrakar may publish content sourced from external third-party providers. While we make every reasonable effort to verify the accuracy, reliability, and completeness of this information, Mojo Patrakar does not guarantee or endorse the views, opinions, conclusions, or authenticity of content provided by these third-party entities. Such content is presented solely for informational purposes, and it is not intended to substitute professional advice or to serve as a comprehensive basis for decision-making.

Mojo Patrakar expressly disclaims any liability for errors, omissions, or inaccuracies that may arise from third-party content, as well as any reliance readers may place upon it. Users are strongly encouraged to conduct independent verification and consult with qualified professionals as necessary before making any decisions based on information obtained through Mojo Patrakar.

RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments