Friday, March 14, 2025
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हाल ही में गर्भपात पर क्या बोला सुप्रीम कोर्ट?

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गर्भपात पर एक बयान दे दिया गया है! सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के एक प्रावधान पर सवाल उठाया है। इसमें 24 हफ्ते से ज्यादा के गर्भ को तब भी गिराने की इजाजत नहीं है, जब नाबालिग रेप पीड़िता से जुड़ा हो। कोर्ट ने कहा कि विधायिका का यह मूल्यांकन है कि एक असामान्य भ्रूण गर्भवती महिला के हालात पर सबसे ज्यादा विपरीत असर डालेगा। यानी किसी भी अन्य परिस्थितियों से ज्यादा विपरीत असर असामान्य भ्रूण के कारण होगा। अदालत ने कहा कि यह मूल्यांकन वैज्ञानिक मापदंडों पर आधारित नहीं लगता है। यह एक धारणा पर आधारित है कि एक असामान्य भ्रूण ही महिला को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाएगा। नाबालिग रेप पीड़िता के 28 हफ्ते की प्रेग्नेंसी टर्मिनेशन का मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया था। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रजनन स्वायत्ता और गर्भपात के फैसलों में गर्भवती की सहमति अहम होती है।

यदि किसी गर्भवती और उसके गार्जियन के बीच मतभेद है, तो नाबालिग या मानसिक रूप से बीमार गर्भवती की राय को न्यायिक फैसले लेने में अहम पहलू के रूप में लिया जाना चाहिए।नियम के तहत 24 हफ्ते के बाद टर्मिनेशन तभी होगा जब भ्रूण असामान्य हो और उससे महिला को इंजरी हो या फिर भ्रूण से महिला के जीवन को खतरा हो। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में रेप विक्टिम और नाबालिग के गर्भवती के मामले को शामिल न किए जाने पर सवाल किया है।सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि जब भी 24 हफ्ते से ज्यादा की प्रेग्नेंसी होती है तो उसके टर्मिनेशन के लिए संवैधानिक कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाता है। तब MTP एक्ट के तहत मेडिकल बोर्ड बनाया जाता है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि भ्रूण असमान्य तो नहीं है। साथ ही गर्भवती महिला की मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का पता लगाया जाता है।

मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट (MTP Act) कहता है कि दो ही स्थिति में गर्भ को गिराने पर पाबंदी नहीं होगी। पहला अगर मेडिकल प्रैक्टिशनर यह कहे कि यह महिला के जीवन को बचाने के लिए जरूरी है। दूसरी स्थिति में तब अगर धारा-3 (2-बी) के तहत भ्रूण असामान्य हो। सुप्रीम कोर्ट ने इस संदर्भ में कहा कि यह प्रावधान अतार्किक तौर पर स्वायत्ता को अलग करता है। कानून ने धारा 3(2-बी) में एक मूल्यांकन किया है कि असामान्य भ्रूण किसी महिला के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर किसी अन्य परिस्थिति से अधिक हानिकारक होगा। पहली नजर में यह मनमाना और अतार्किक लगता है।

शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि गर्भपात अधिनियम और मेडिकल बोर्ड को गर्भपात के लिए राय बनाते समय वेलफेयर को देखना चाहिए। महिला के शारीरिक और भावनात्मक कल्याण का आकलन करना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रजनन स्वायत्ता और गर्भपात के फैसलों में गर्भवती की सहमति अहम होती है। यदि किसी गर्भवती और उसके गार्जियन के बीच मतभेद है, तो नाबालिग या मानसिक रूप से बीमार गर्भवती की राय को न्यायिक फैसले लेने में अहम पहलू के रूप में लिया जाना चाहिए।

केंद्र सरकार ने अक्टूबर 2021 में प्रेग्नेंसी टर्मिनेशन के लिए कानून में बदलाव करते हुए गर्भपात के लिए कुछ शर्तों के साथ मियाद 20 हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते कर दी थी। इसके तहत विशेष कैटिगरी की महिलाओं के लिए प्रेग्नेंसी टर्मिनेशन की मियाद 24 हफ्ते कर दी गई थी। अदालत ने कहा कि यह मूल्यांकन वैज्ञानिक मापदंडों पर आधारित नहीं लगता है। यह एक धारणा पर आधारित है कि एक असामान्य भ्रूण ही महिला को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाएगा। नाबालिग रेप पीड़िता के 28 हफ्ते की प्रेग्नेंसी टर्मिनेशन का मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि जब भी 24 हफ्ते से ज्यादा की प्रेग्नेंसी होती है तो उसके टर्मिनेशन के लिए संवैधानिक कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाता है।इसमें रेप विक्टिम से लेकर शादी का स्टेटस बदले जाने की स्थिति में टर्मिनेशन की इजाजत दी गई थी। नियम के तहत 24 हफ्ते के बाद टर्मिनेशन तभी होगा जब भ्रूण असामान्य हो और उससे महिला को इंजरी हो या फिर भ्रूण से महिला के जीवन को खतरा हो। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में रेप विक्टिम और नाबालिग के गर्भवती के मामले को शामिल न किए जाने पर सवाल किया है। संवैधानिक कोर्ट के सामने कई ऐसे मामले आए और कोर्ट को दखल देना पड़ा। इस सवाल का जवाब विधायिका को तलाशना होगा, ताकि ऐसे विक्टिम को प्रोटेक्ट किया जा सके।

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