यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या अमेरिका में नस्लीय हमले होते हैं या नहीं! 19वीं सदी के शुरुआत की बात है, जब दुनियाभर में देशों को गुलाम बनाया जा रहा था। ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देशों में दुनिया को बांटने की होड़ मची थी। सड़कें, इमारतें और रेल पटिरयों को बिछाने के लिए बड़े पैमाने पर कामगारों की जरूरत बढ़ रही थी। 1833 में इंग्लैंड ने दासता खत्म करके खुद को एकदम सभ्य बना लिया। 1848 में फ्रांस और डेनमार्क और 1863 में नीदरलैंड ने अपने यहां से गुलामी का नामोनिशान मिटा दिया। यूरोपीय देशों को भारत और अन्य औपनिवेशिक देशों से ऐसे मजदूरों की जरूरत थी, जो काम के नए ढांचे में ढल जाएं। भारत के किसान, जिनकी खेती अंग्रेजों की गलत नीतियों से नष्ट हो गईं, वो बेचारे धीरे-धीरे कुली प्रथा की भेंट चढ़ गई। मलाया और सीलोन में ऐसे मजदूरों के लिए कंगनी सिस्टम चल पड़ा। इन देशों में भारतीय प्रवासियों को कंगनी कहा जाता था। कंगनी तमिल शब्द कंकनी से निकला है, जिसका मतलब है ओवरसीयर या फोरमैन। यही लोग भारतीयों को कारखानों या इमारतें या पटरियां बिछाने के लिए बड़े पैमाने पर भारतीयों की भर्ती किया करते थे। इसी तरह तत्कालीन बर्मा अब का म्यांमार में मैस्त्री सिस्टम हुआ करता था। तब से आज तक का सफर काफी आगे बढ़ चुका है। भारत ने दिल से सबका स्वागत किया है और जिस देश में गए, वहां की वेश-भूषा अपना ली। दरअसल, हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति ने जो बाइडन ने’क्वाड’ के दो साझेदार देश भारत और जापान के साथ-साथ अमेरिका के दो प्रतिद्वंद्वी देश रूस और चीन विदेशियों से द्वेष रखते हैं। चुनावी चंदा जुटाने के लिए एक प्रोग्राम में बाइडेन ने कहा-यह चुनाव आजादी, अमेरिका और लोकतंत्र के बारे में है। ऐसे में मुझे आपकी जरूरत है। आप जानते हैं कि हमारी इकोनॉमी बढ़ने की वजह अप्रवासी हैं। अमेरिका हमेशा से अप्रवासियों का स्वागत करता रहा है। अमेरिका में जीनोफोबिया यानी विदेशियों से नस्लीय नफरत इतनी है कि वहां पर हर साल सबसे ज्यादा नस्लीय हिंसा के मामले सामने आते हैं। अमेरिका में 1854 से लेकर 1856 तक नो-नथिंग पार्टी ने अमेरिका अमेरिकियों के लिए है, अभियान चलाया था। इसे नेटिव अमेरिकन पार्टी भी कहा जाता है। हालांकि, यह पार्टी बहुत जल्द चुनाव हार गई और इसका फिर कोई वजूद नहीं रहा। अमेरिका के इतिहास में विदेशियों से नफरत की जड़ें मौजूद हैं।
अमेरिका को ऐसे लोगों ने बसाया था, जो इंग्लैंड में युद्धबंदी, कलाकार या क्रांति की बात करने वाले लोग थे। उनमें अंग्रेजों के खिलाफ इतनी नफरत भर गई थी कि वह सदियों तक बनी रही। आज हालात ये हैं कि अमेरिका समेत पूरी दुनिया में भारतीय छाए हुए हैं। भारत में दूसरे देशों के लोग पढ़ाई करने, इलाज कराने और घूमने-फिरने के लिए हर साल बड़ी संख्या में आते हैं। हर साल करीब 25 लाख भारतीय प्रवासी दूसरे देशों में जाते हैं, जो सालाना हिसाब से दुनिया में सबसे ज्यादा प्रवास है। मौजूदा वक्त में 31 लाख भारतीय प्रवासी दुनिया के 38 देशों में रह रहे हैं। वहीं, दूसरे देशों के करीब 45 लाख प्रवासी भारत में रहते हैं। एक समय था जब अमेरिका में ही काले लोगों से इतनी नफरत की जाती थी कि उन्हें गुलाम बना लिया जाता था। कपास और नील की खेती में इन गुलामों को लगाया जाता था। इनको इतना पीटा जाता था कि इनकी चमड़ी तक उधड़ जाती थी।
एक रिपोर्ट के अनुसार, बीते कुछ सालों से अमेरिका में एशियाई लोगों के खिलाफ गुस्सा बढ़ा है। अमेरिकी लोगों का मानना है कि भारतीय समेत एशियाई लोग हमारी नौकरियां छीन रहे हैं, हमारे संसाधनों पर कब्जा जमा रहे हैं। भारतीयों की मौजूदगी से उनमें चिड़चिड़ापन, गुस्सा, असुरक्षा और खतरे की भावना पनपती है। अमेरिकी सरकार की कमजोर आर्थिक नीतियां, बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई ने अमेरिकी लोगों की कमर तोड़कर रख दी है। यह भी एशियाई लोगों पर हमले की बड़ी वजह हो सकती है।
बीते कुछ सालों में 11 हजार से ज्यादा हमले की घटनाएं दर्ज की गई हैं। इनमें मार-पीट करना, हत्या या एसिड अटैक जैसे हमले शामिल हैं। इसी साल अब तक 10 भारतीय छात्र नस्लीय हिंसा की वजह से जान गंवा चुके हैं,जो टेंशन की बात है। यहां तक कि अमेरिकी प्रशासन को यह बयान देना पड़ा कि अमेरिका भारतीय छात्रों और किसी भी प्रवासी के लिए सुरक्षित देश है और वह उनका ख्याल रखता है। अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई के आंकड़ों के अनुसार, 62 फीसदी पीड़ित ऐसे थे, जिन पर नस्लीय वजहों से हमले हुए। एंटी ब्लैक या अफ्रीकन अमेरिकन हेट क्राइम्स नस्लीय हिंसा से ज्यादा पीड़ित हैं। 2019 से अब तक 50 से ज्यादा महिला विरोधी घटनाएं हुई हैं। हालांकि इनमें अब कुछ गिरावट आई है। वहीं, 25 पुरुष विरोधी घटनाएं हुई हैं, जिसमें 47 फीसदी इजाफा हुआ है। सबसे ज्यादा हमले ट्रांसजेंडर के खिलाफ हुए हैं। इनकी संख्या 213 है।
12 अप्रैल, 1861 की सुबह-सुबह विद्रोहियों ने गोलीबारी शुरू कर दी। दक्षिण कैरोलिना के चार्ल्सटन बंदरगाह के प्रवेश द्वार के पास अंग्रेजों का एक किला था फोर्ट सुमेर। दिलचस्प बात यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के इतिहास में सबसे खूनी युद्ध की इस पहली मुठभेड़ में कोई हताहत नहीं हुआ। 34 घंटे की बमबारी के बाद मेजर रॉबर्ट एंडरसन ने 85 सैनिकों की अपनी कमान 5,500 संघीय सैनिकों को सौंप दी। इस बीच, 1860 में अमेरिका के राष्ट्रपति बने अब्राहम लिंकन ने देश से दासता को खत्म कर दिया।