विदेश मंत्री एस जयशंकर भारत को फिर से बचने के लिए तैयार है! मोदी 2.0 में भारत की विदेश नीति में कई आयाम अलग दिखे। G 20 की अध्यक्षता के दौरान यूक्रेन युद्ध के बीच बंटी दुनिया में पश्चिमी और रूसी ब्लॉक दोनों को एक मंच पर ले आने में कामयाबी से लेकर खुद को ग्लोबल साउथ की आवाज़ की तरह दिखाने की कवायद। हालांकि इस दौरान कनाडा की ओर से लगे आरोप और धार्मिक आजादी के मामले पर अमेरिका की टिप्पणियां चुनौती बनकर भारतीय डिप्लोमेसी की राह को चुनौती पूर्ण बनाती। ऐसे में बदलते वर्ल्ड ऑर्डर और क्षेत्रीय संघर्षों की मौजूदगी ने भारत की चुनौतियों को और बढ़ाया ही है।इस सच्चाई से मुंह मोड़ा नहीं जा सकता कि पिछले साल से लगातार भारत नेबरहुड फर्स्ट की पॉलिसी पर लौटता आ रहा है, जिसमें नेपाल और श्रीलंका समेत दूसरे देशों को आर्थिक मदद और दूसरी कोशिशों के जरिए संबंध और बेहतर किए जाने की कवायद की जा रही है। लेकिन मालदीव समेत कई पड़ोसी देशों की नीति चीन के प्रभाव में हैं । ORF के फेलो कबीर तनीजा कुछ ऐसा ही मानते हैं, वो कहते हैं कि जयशंकर की प्राथमिकताएं उन मुद्दों को लेकर वहां से शुरू होती हैं, जो उन्होंने चुनाव से पहले अधूरी छोड़ी थी।
रोज बदलती दुनिया कि जटिलताएं कम नहीं हो रही है,बल्कि बढ़ ही रही हैं। यूक्रेन, गाज़ा में हो रहे संघर्षों का स्वरूप बदला नहीं है। ऐसे में जैसा कि बीते सालों से वो करते आ रहे हैं, उसी के तरह वो भारत की प्राथमिकताओं की ही सुरक्षा करने का काम करने की कोशिश करेंगे, उनकी बड़ी प्राथमिकताओं में ये होगा कि जिओ पॉलिटिकल घटनाओं का बुरा प्रभाव इकोनमी पर ना पड़े। ऐसे में माना जा रहा है कि जयशंकर भारत नरेटिव और ग्लोबल साउथ के एजेंडे पर विदेश नीति को गढ़ना जारी रखेंगे।
हालांकि कुछ जानकारों का कहना है कि फॉरेन पॉलिसी के मूल ढांचे में चाहे बदलाव ना दिखे, लेकिन डिप्लोमेसी में कुछ स्थूल बदलाव दिख सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और जेएनयू में पढ़ाने वाले अमिताभ सिंह कहते हैं कि ” इजरायल हमास संघर्ष के मद्देनज़र पिछले साल 7 अक्टूबर के हमले के बाद भारत का रुख आतंकवाद को लेकर एक मजबूत संदेश लिए हुआ था, उसमें कुछ बदलाव देखने को मिल सकता है।
इसके साथ ही दुनिया भर में संघर्षों को लेकर जिस तरह राइटविंग सरकारें रुख रखती हैं, उसे रखना अब भारत के लिए मुश्किल होगा, हालांकि मिडिल ईस्ट के मुद्दे पर वो पिछली सरकार में देखने को मिला था। इसके साथ ही विदेशी मंचों में मोदीमय माहौल में कमी आने की संभावना है, जो कि पिछली साफ बार साफ तौर से दिखाई पड़ी थी। ”
जानकार मानते हैं कि पड़ोसी देशों को लेकर चीन की आक्रामकता एक चुनौती बनी रहेगी। इस सच्चाई से मुंह मोड़ा नहीं जा सकता कि पिछले साल से लगातार भारत नेबरहुड फर्स्ट की पॉलिसी पर लौटता आ रहा है, जिसमें नेपाल और श्रीलंका समेत दूसरे देशों को आर्थिक मदद और दूसरी कोशिशों के जरिए संबंध और बेहतर किए जाने की कवायद की जा रही है। लेकिन मालदीव समेत कई पड़ोसी देशों की नीति चीन के प्रभाव में हैं ।
ऐसे में शपथ ग्रहण में मुइज्जू का शामिल होना सकारात्मक संकेत तो है, लेकिन अपनी मूल नीति चीन परस्ती से वो पीछे हटेगा ऐसा लगता नहीं। वहीं श्रीलंका में इस साल राष्ट्रपति चुनाव होने हैं तो ऐसे में रानिल विक्रमासिंघे शायद जियो पॉलिटिकल समीकरणों के लिहाज से समर्थन तलाश रहे हैं। बता दें कि इस दौरान कनाडा की ओर से लगे आरोप और धार्मिक आजादी के मामले पर अमेरिका की टिप्पणियां चुनौती बनकर भारतीय डिप्लोमेसी की राह को चुनौती पूर्ण बनाती। ऐसे में बदलते वर्ल्ड ऑर्डर और क्षेत्रीय संघर्षों की मौजूदगी ने भारत की चुनौतियों को और बढ़ाया ही है।उसी के तरह वो भारत की प्राथमिकताओं की ही सुरक्षा करने का काम करने की कोशिश करेंगे, उनकी बड़ी प्राथमिकताओं में ये होगा कि जिओ पॉलिटिकल घटनाओं का बुरा प्रभाव इकोनमी पर ना पड़े। ऐसे में माना जा रहा है कि जयशंकर भारत नरेटिव और ग्लोबल साउथ के एजेंडे पर विदेश नीति को गढ़ना जारी रखेंगे। ORF के फेलो कबीर तनीजा कुछ ऐसा ही मानते हैं, वो कहते हैं कि जयशंकर की प्राथमिकताएं उन मुद्दों को लेकर वहां से शुरू होती हैं, जो उन्होंने चुनाव से पहले अधूरी छोड़ी थी। लेकिन बावजूद इसके पड़ोसियों की विदेश नीति को लेकर भारत को लगातार काम करना होगा।