यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या मोदी सरकार में मध्यावधि चुनाव हो सकते हैं या नहीं! नरेंद्र मोदी ने 9 जून को तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली, लेकिन इस बार उनके करियर में पहली बार उनकी सरकार एनडीए के घटक दलों के सहारे है। राजनीतिक एक्सपर्ट और इलेक्शन थिंक टैंक लोकनीति के को-डायरेक्टर सुहास पालशिकर कहते हैं कि यह बदलाव बीजेपी की विचारधाराओं से जुड़ी योजनाओं पर असर डाल सकता है और पार्टी को ना चाहते हुए भी कुछ मुद्दों पर प्रतिक्रिया देनी पड़ सकती है। ऐसे में पांच साल का कार्यकाल समाप्त होने से पहले चुनाव होने की संभावना है। हमारे सहयोगी संस्थान टाइम्स ऑफ इंडिया पॉडकास्ट के जरिए पालशिकर पहले यह विश्लेषण करते हैं कि बीजेपी से चुनाव में क्या गलती हुई और लोक सभा चुनाव में उसके हिंदुत्वा फैक्टर ने क्यों काम नहीं किया, जो पहले काम कर चुका था। उन्होंने यह भी समझाया कि उन्हें उम्मीद है कि बीजेपी के साथी जैसे तेलुगु देशम पार्टी (TDP) और जेडीयू, बीजेपी की नीति प्रस्तावों का कैसे प्रतिक्रिया देंगे और विरोध की संभावनाएं कैसे बन सकती हैं। चुनाव की शुरुआत में, बीजेपी ने ‘मोदी की गारंटी’ और ‘मोदी फिर आएंगे’ जैसे बड़े-बड़े वादे किए। पार्टी ने ये जोर देकर कहा कि पीएम मोदी वापस सत्ता में आएंगे और आपकी सेवा करते रहेंगे। लेकिन, चुनाव के दूसरे और तीसरे चरण में विपक्ष ने अपनी रणनीति बदल ली। उन्होंने मोदी पर हमला करना बंद कर दिया और अर्थव्यवस्था की समस्याओं पर बात करना शुरू कर दिया। शायद बीजेपी को लगा कि इससे मुकाबला करना मुश्किल होगा, इसलिए उन्होंने पूरे माहौल को सांस्कृतिक पहचान के मुद्दों पर ले जाने की कोशिश की। इस तरह, प्रचार अभियान नकारात्मक और हिंदुत्व केंद्रित हो गया।
हां, लेकिन मैंने सुना है राजनीति में मुसीबत ये है कि लोग जान जाते हैं आप किस बात के लिए खड़े हैं। बीजेपी की हिंदू पहचान अब अच्छी तरह से स्थापित हो चुकी है और उन्हें इस पर अब और जोर देने की जरूरत नहीं थी। चुनाव से पहले के सर्वे में हमने पूछा था कि मोदी सरकार का सबसे अच्छा काम क्या था, तो बिना किसी दबाव के जवाब आया राम मंदिर। इसका मतलब है कि लोग स्पष्ट रूप से जानते थे कि इस सरकार ने हिंदुओं के लिए कुछ किया है। अब लोग कुछ और चाहते थे और यही वो चीज थी जिसे मैंने ‘हिंदुत्व थकान’ कहा है। लोगों ने हिंदुत्व को खारिज नहीं किया, लेकिन उन्होंने कहा कि हम पहले से ही जानते हैं कि आप क्या हैं, अब हमें बताएं कि आप आगे क्या करने वाले हैं। यहीं पर बीजेपी चूक गई, उन्हें लगा कि उन्हें हिंदुत्व के मुद्दे को और ज्यादा उछालने की जरूरत है।
चुनाव के नतीजे बताने वाले सर्वेक्षण (exit polls) और खुद पार्टियां भी अक्सर गलत भविष्यवाणी कर देती हैं। ये जानना बहुत मुश्किल है कि वोटर क्या चाहता है क्योंकि वो बहुत सी बातें अपने मन में ही रखते हैं और खुलकर नहीं बताते। इसी वजह से राजनीतिक पार्टियों के लिए जमीनी कार्यकर्ताओं का काम बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। नेता अकेले ये नहीं समझ सकता कि लोग क्या चाहते हैं या वे किस चीज पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देंगे। ये जमीनी कार्यकर्ता ही होते हैं जो नेताओं तक नीचे से जनता की राय पहुंचाते हैं। तब जाकर नेता जनता की भावनाओं को समझ पाता है और उनका फायदा उठा सकता है। मतदाता क्या सोच रहा है या क्या चाहता है, ये बता पाना मुश्किल है। हम अक्सर जाति, धर्म, आर्थिक स्थिति जैसे बड़े मुद्दों के बारे में सोचते हैं, लेकिन वोटर इन सबके साथ-साथ अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के बारे में भी सोचता है। वो पार्टियों के वादों, जीतने के बाद बनने वाली संभावनाओं और उनके सपनों को भी ध्यान में रखता है। ये सब बातें कितना असर करती हैं, ये हम ठीक-ठीक नहीं जान पाते।
पहला कारण ये हो सकता है कि पार्टी ने जमीनी कार्यकर्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर सिर्फ ऊपर के बड़े नेताओं पर भरोसा करना शुरू कर दिया हो। दूसरा ये हो सकता है कि पार्टी को पहले से ही ये लगता था कि जनता क्या चाहती है, इसलिए भले ही उन्हें जमीन से कुछ जानकारी मिल भी रही हो, वो उसे गंभीरता से नहीं ले रहे थे। तीसरा कारण ये हो सकता है कि जब कोई नेता लगातार जीतता रहता है, तो उसे लगने लगता है कि वो जनता को अच्छी तरह समझता है। लेकिन अचानक जनता और नेता के बीच दूरियां बढ़ जाती हैं। शायद पार्टी अपने विचारों को लेकर इतनी ज्यादा उत्साहित हो गई थी कि उसने जमीनी कार्यकर्ताओं से लगातार राय लेने का रास्ता मजबूत नहीं बनाया।