वर्तमान में लोकसभा स्पीकर ही बीजेपी की आखिरी उम्मीद है! बीते दो बार के मुकाबले इस बार भाजपा अकेले बहुमत के 272 के आंकड़े से काफी दूर है। इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जहां 240 सीटें जीती थीं। वह बहुमत के आंकड़े से वह 32 अंक दूर रह गई थी। नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी बार टीडीपी और जदयू के सहयोग से सरकार बनाई है। भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन एनडीए ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी की लोकसभा चुनाव में जीतीं 16 सीटों और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जदयू की 12 सीटों के दम पर सरकार बनाई है। बहुमत के आंकड़ों से दूर भाजपा के लिए इसीलिए स्पीकर का पद काफी मायने रखता है। यह पद कितना मायने रखता है, इसे समझते हैं। बीते दो लोकसभा में भाजपा की सुमित्रा महाजन और ओम बिरला ही स्पीकर थे। लोकसभा का प्रमुख और पीठासीन अधिकारी स्पीकर ही होता है। लोकसभा कैसे चलेगी, इसकी पूरी जिम्मेदारी स्पीकर की होती है। संविधान के अनुच्छेद 108 के तहत स्पीकर संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता करता है। स्पीकर ही संसदीय बैठकों का एजेंडा तय करता है। वही स्थगन प्रस्ताव या अविश्वास प्रस्ताव जैसे प्रस्तावों को अनुमति प्रदान करता है। सदन के किसी नियम पर अगर कोई विवाद होता है तो वह इस संबंध में उस नियम की व्याख्या करता है और उस नियम को सदन में लागू कराता है, जिसे किसी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है। स्पीकर का पद पक्षपात रहित होना चाहिए। मर्यादा का उल्लंघन करने वाले सांसदों को भी स्पीकर निलंबित कर सकते हैं। स्पीकर का मुख्य काम सरकार के हितों की रक्षा करना है। अगर वह सरकार से असहमत हो जाए तो समस्याएं खड़ी हो सकती हैं।
संसद में किसी बिल या अहम मुद्दों पर कौन सदस्य वोट कर सकता है कौन नहीं। सदन कब चलेगा और कब स्थगित करना है। कानूनी रूप से ये सभी फैसला लोकसभा स्पीकर ही तय करते हैं। किसी सांसद को एक दल से दूसरे दल में जाने से रोकने के लिए राजीव गांधी सरकार 1985 में दल-बदल कानून लेकर आई। पाला बदलने वाले सदस्यों की अयोग्यता पर भी स्पीकर दल-बदल कानून के तहत फैसला करते हैं। हालांकि, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में साफ कर दिया था कि स्पीकर के फैसले को अदालत में चुनौती दी जा सकती है।
लोकसभा स्पीकर के लिए टीडीपी नेताओं का कहना है कि स्पीकर के प्रत्याशी के लिए चुनाव एनडीए के सहयोगी दलों की सहमति से ही किया जाएगा। वहीं, जदयू नेता केसी त्यागी ने संकेत दिया है कि भाजपा जो भी प्रत्याशी चुनेगी, जदयू उसका हर हाल में समर्थन करेगी। संविधान के अनुच्छेद 93 में कहा गया है कि सदन जितनी जल्दी हो सके अपने दो सदस्यों को स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के रूप में चुनेंगे।
दरअसल, आजाद भारत में अभी तक लोकसभा स्पीकर हमेशा सर्वसम्मति से चुना जाता रहा है। माना जा रहा है कि इस बार इंडिया ब्लॉक भी स्पीकर का चुनाव भी लड़ सकता है। कहा जा रहा है कि विपक्षी गठबंधन डिप्टी स्पीकर का पद मांग रहा है। ऐसे में अगर उसे डिप्टी स्पीकर का पद नहीं मिलता है, तो फिर वो स्पीकर का चुनाव भी लड़ सकता है। सरकार विपक्षी दलों से स्पीकर के चुनाव के मामले में सहयोग जुटाने की कोशिश कर रही है। आमतौर पर स्पीकर का पद सत्ताधारी और डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष के पास जाता है, लेकिन पिछली लोकसभा में डिप्टी स्पीकर का पद खाली था।
संविधान के अनुच्छेद 93 में लोकसभा स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के चुनाव का प्रावधान किया गया है। 24 जून से संसद का विशेष सत्र शुरू हो रहा है। दो दिन नए सांसदों को शपथ दिलवाई जाएगी। ऐसे में लोकसभा स्पीकर का चुनाव 26 जून को होगा, जबकि डिप्टी स्पीकर के चुनाव की तारीख स्पीकर तय करेंगे। 27 जून को राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करेंगी। स्पीकर के चुनाव की तारीख राष्ट्रपति तय करते हैं, जबकि डिप्टी स्पीकर के चुनाव की तारीख स्पीकर की ओर से तय की जाती है। डिप्टी स्पीकर का चुनाव भी वैसे ही होता है, जैसे स्पीकर का चुनाव होता है। अगर एक ही उम्मीदवार है तो सदन में उसका प्रस्ताव रखा जाता है और पास किया जाता है। एक से ज्यादा उम्मीदवार होने पर वोटिंग कराई जाती है। स्पीकर और डिप्टी स्पीकर वही बन सकता है जो लोकसभा का सदस्य हो। दोनों का ही कार्यकाल पांच साल का होता है।
13 मार्च 1998 में अटल बिहारी वायपेयी की अगुवाई वालह एनडीए की सरकार बनी थी। उस वक्त भी टीडीपी ने भाजपा सरकार को समर्थन दिया था। उस वक्त भी टीडीपी ने अपने नेता जीएमसी बालयोगी को स्पीकर बनवा लिया था। 13 महीने तक सरकार चलने के बाद एनडीए की एक और सहयोगी डीएमके ने अचानक अटल सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद लोकसभा स्पीकर की जिम्मेदारी अहम हो गई।
स्पीकर बालयोगी ने लोकसभा के सेक्रेटरी जनरल एस गोपालन की ओर एक पर्ची बढ़ाई। उस पर्ची में बालयोगी ने कांग्रेस सांसद गिरधर गोमांग को अपने विवेक के आधार पर वोट देने की अनुमति दी थी। दरअसल, गोमांग फरवरी में ही ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए थे, लेकिन उन्होंने तब तक अपनी लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था। सदन के सदस्य होने के नाते उन्हें वोट देने का अधिकार हासिल था। गोमांग ने अपना वोट अटल सरकार के खिलाफ दे दिया था। अटल सरकार के पक्ष में 269 और विपक्ष में 270 मत पड़े थे।