वर्तमान में माता-पिता बच्चों की जरूरत से ज्यादा चिंता करते हैं! हमारे अंदर एक उधेड़बुन लगी रहती है। हम हर दुख से खुद को बचाना चाहते हैं और अपने परिवार को भी। इसके लिए ढेर सारी कोशिशें भी करते हैं बल्कि ज्यादातर बड़े प्रयास ही इसलिए होते हैं। खूब मन लगाकर पढ़ना, प्रतियोगी परीक्षाओं में पास होना, अच्छे पैकेज वाली नौकरी तलाशना या कोई बिजनेश करना। और फिर शादी होते ही लाइफ सेट हो जाएगी… यह हम सोचते हैं। वह मुकाम आ सकता है, जब हम पाते हैं। कि हमारी जिंदगी में अब कोई अनिश्चितता नहीं है, कम से कम पैसे के मामले में। लेकिन जिंदगी में सब कुछ सेट हो जाए, सब कुछ पहले से तय तरीके से आगे बढ़ता रहे तो क्या यह अच्छी स्थिति होगी? यह सवाल कई लोगों के मन में आता है। आज यह सवाल सोशल मीडिया पर चर्चा में है। सिंगापुर में रहने वाले भारतीय मूल के एक शख्स का X पर एक पोस्ट सामने आया। इसमें उन्होंने लिखा है कि हमारी जिंदगी बिलकुल परफेक्ट तरीके से चल रही है लेकिन हमें लगता है कि इससे हमारी बेटी बड़ी सॉफ्ट हो गई है। खुद हम भी भूल गए है कि भारत में किस तरह की बदइंतजामियां होती हैं। असल में हम भी सॉफ्ट हो गए हैं। यही वजह है कि हम बेंगलुरु जा रहे हैं ताकि मेरी बेटी जिंदगी की अनिश्चितताओं को समझ सके। इस पोस्ट के बाद सोशल मीडिया पर ढेरों प्रतिक्रियाएं हुईं।
इस फैसले से याद आता है सावजी ढोलकिया का किस्सा। वह गुजरात के हीरा कारोबारी हैं। इनकी हजारों करोड़ की कंपनी नी है और उसकी दुनिया भर में मौजूदगी है। सावजी अपने कर्मचारियों को बोनस में कार और फ्लैट देने के लिए जाने जाते हैं। कुछ साल पहले उनका एक फैसला बड़ा चर्चित हुआ था। इन्होंने अपने इकलौते बेटे को 1 महीने के लिए कोच्चि जाने के लिए प्रोत्साहित किया। मकसद यह था कि उनका बेटा वहां गुमनाम तरीके से जिंदगी बिताए। वह जाने कि गरीब नौकरी और पैसे के लिए कैसे संघर्ष करते हैं। सावजी के 21 साल के बेटे द्रव्य ढोलकिया तब अमेरिका से MBA कर रहे थे। छुट्टियों में घर आए थे। वह 3 जोड़ी कपड़े लेकर कोच्चि चले भी गए। पिता ने 7000 रुपये दिए, लेकिन सिर्फ किसी इमरजेंसी में खर्च के लिए। द्रव्य न तो पिता की पहचान का इस्तेमाल कर सकते थे, न मोबाइल फोन इस्तेमाल कर सकते थे, न 7000 रुपये। एक जगह पर एक हफ्ते से ज्यादा काम नहीं करना था। थोड़े समय के लिए ही सही, उन्होंने जिंदगी के उतार-चढ़ाव को देखा।
आज हम अपने इर्द-गिर्द नजर दौड़ाएं तो क्या देखते हैं? कई लोग मिलेंगे जो अपनी जिंदगी में बेहद सफल माने जाते हैं। इस सफलता के पीछे बड़ा संघर्ष भी होता है। यही व्यक्ति एक अजब-सी इच्छा पाल लेता है कि मेरी फैमिली को संघर्ष न करना पड़े। पत्नी या बच्चे कहीं कार में जाएं तो वे AC कार में बैठें और सीधे मॉल, स्कूल या कहीं और पहुंचें। रास्ते में क्या आया, क्या गया… इस पर ध्यान नहीं जाता। बरसों तक शहर के कई कोनों में घूम आते हैं। लेकिन किसी दिन पत्नी को अकेले मॉल, स्कूल या कहीं और से पब्लिक ट्रांसपोर्ट के जरिए घर लौटना पड़े तो… नहीं, यह नहीं हो पाएगा। शहर के जिन रूटों और चौराहों से बरसों गुजरते रहे, उनका नाम तक पता नहीं।
बाजार में ताजा सब्ज़ियों की पहचान करना, बैंक की कागजी कार्यवाही को पूरा करना, दोस्ती-रिश्तेदारी में परंपराओं को निभाना… इन सब बातों की सबसे अच्छी पढ़ाई परिवार में ही मिल सकती है। बतौर माता-पिता हम सारे गैजट्स बच्चों के हाथ में थमाकर समझ रहे हैं कि सारी खुशियां कदमों में बिछा दी हैं। हर वीकेंड मॉल घुमाकर, अच्छे रेस्तरां में खाना खिलाकर बेस्ट पापा या मम्मी का गुमान पाल सकते हैं। कभी यह सोचते भी नहीं कि अचानक अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आए तो हमारा जवान होता बेटा हेल्थ इंश्योरेंस क्लेम की बारीकियों को समझ पाएगा भी या नहीं। सुख के दिनों में हम सोचते हैं, बुरी घटनाओं के बारे में पहले से क्या सोचना!
हम परिवार के लिए हर सुविधा उसके कदमों में बिछा देना चाहते हैं। धीरे-धीरे परिवार भी यह समझने लगता है कि हमें किसी चीज के लिए संघर्ष करने की जरूरत नहीं। समस्या उसके बाद शुरू हो जाती है। समाज में जो हीरो अक्सर सामने आते हैं, वे उन तबकों से उभरते हैं, जो उपेक्षित रहे, जिन्हें पर्याप्त सुविधाएं नहीं मिलीं, चाहे वे पढ़ाई में हों, खेलों में हों, रोजगार में हों या जीवन के दूसरे क्षेत्रों में। फिर हम उनसे अपनी तुलना करते हैं और पाते हैं कि जो सुख-सुविधाएं हमने बटोरीं, वही हमारे बच्चों की भविष्य की तरक्की में बाधाएं बन गईं।
आज समाज में पैसे के लिए एक-दूसरे से आगे निकलने की जो होड़ है, वह सिर्फ अपनी जिंदगी सुरक्षित बनाने की होड़ नहीं है। वह दौड़ इसलिए भी है कि हमारी 7 पीढ़ियों को संघर्ष न करना पड़े। इसे सुनिश्चित करने के लिए किसी को भ्रष्टाचार भी करना पड़े तो वह करता है। जब इन घरों में संपत्ति की भरमार हो जाती है तो क्या खुशियां बरसने लगती हैं? नहीं, तब नई समस्याएं सामने आती हैं। नई पीढ़ी पैसे को जिस सहजता से खर्च करने लगती है, उससे उस पुरानी पीढ़ी को तकलीफ भी महसूस होने लगती है, जिसने सब अपनी मेहनत से अर्जित किया। इससे घरों के अंदर दो पीढ़ियों का टकराव शुरू हो जाता है। नई पीढ़ी यह समझ नहीं पाती कि आंख बंद कर खर्च करने में बुरा क्या है?
हर साल देश में लाखों युवा अमेरिका, कनाडा जाकर वहां बसना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि वहां सपने पूरे हो सकते हैं। निश्चित रूप से बड़ी संख्या में युवा भारत लौटकर नहीं आते। भारत में जीवन की कठिनाइयों की निंदा करना आसान हो सकता है। उन कठिनाइयों में जीकर उन्हें आसानी में तब्दील करना अलग बात है। फिल्म ‘स्वदेश’ की कहानी इस सिलसिले में याद करने लायक है। NRI मोहन भार्गव अमेरिका में रहता है और वहां की स्पेस एजेंसी NASA में प्रोजेक्ट मैनेजर के तौर पर काम करता है। मोहन एक दफे भारत आता है तो यहां गांव की परेशानियों से रूबरू होता है। वह कुछ का समाधान भी निकाल लेता है। फिर वह NASA के काम से वापस अमेरिका चला जाता है। वहां उसका मन नहीं लगता और वह भारत आकर बस जाता है।
कठिन संघर्ष हमें अपने डर का सामना करने को मजबूर करते हैं। ये हमें मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत व्यक्ति बनाते हैं। हमें जो लाइफ स्किल मिलती है, उसे भविष्य की चुनौतियों के लिए आजमाया जा सकता है। यह बात भारत में जीने के लिए ही नहीं, दुनिया के किसी भी कोने के लिए सही हो सकती है। जीवन एक असाधारण यात्रा है। इसमें आशाएं हैं तो निराशाएं भी हैं। जीत हैं तो नाकामियां भी हैं। हम जिन संघर्षों का सामना करते हैं, उनके जरिए ही हम असल में अपनी ताकत पाते हैं। यही संघर्ष हमें लचीलापन देते हैं, जिससे विकास की क्षमता बढ़ती है। चुनौतियां पहली बार में डरावनी लग सकती हैं, लेकिन वे हमारे अंदर की शक्ति को आकार देती हैं। संघर्ष के बिना जीवन मजेदार नहीं है। हमारे लिए जरूरी है कि हम सामने आने वाली प्रतिकूलताओं को खुशी से स्वीकार करें।