आखिर शपथ के शब्दों पर क्यों हुई बहस ?

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हाल ही में संसद में शपथ के शब्दों पर खूब बहस देखी गई! जो लोकसभा की सदस्य निर्वाचित हुआ/हुई हूं, ईश्वर की शपथ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान लेता/लेती हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा/रखूंगी। मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा/रखूंगी। तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला/वाली हूं, उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूंगा/करूंगी।” संसद में एक-एक कर सभी सांसद यह शपथ ले रहे हैं। 18वीं लोकसभा की पहली बैठक में शपथ के इन शब्दों से सदन गूंज रहा है। कुछ सांसद संविधान और अपने पद की मर्यादा के प्रति ईश्वर की शपथ ले रहे हैं तो कुछ सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान ले रहे हैं। कभी सोचा कि आखिर शपथ के लिए ये दो विकल्प ही क्यों होते हैं? कोई धार्मिक ग्रंथ, ईश्वर के नाम, संविधान या किसी और के नाम से शपथ क्यों नहीं लेता? इसके पीछे बड़ी दिलचस्प कहानी है। आप जानते हैं कि संविधान के निर्माण में 2 वर्ष, 11 महीने, 18 दिन का वक्त लगा। संविधान सभा ने इन कुल 114 दिनों में एक-एक विषय पर गंभीर और विस्तृत चर्चा की। जब बात सांसदों के शपथ की आई तब इस बात पर खूब चर्चा हुई कि इसका प्रारूप क्या हो। प्रारूप समिति के अध्यक्ष के तौर पर डॉ. भीमराव आंबेडकर ने सांसदों के शपथ का एक प्रारूप तैयार किया। संविधान का जो प्रारूप तैयार किया गया था, उसमें शपथ का विषय तीसरी अनुसूची में रखा गया। इस पर 26 अगस्त और 16 अक्टूबर, 1949 को संविधान सभा में चर्चा हुई। इसमें केंद्रीय मंत्री, राज्य मंत्री, संसद सदस्य, राज्य विधानमंडल के सदस्य, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर आसीन व्यक्तियों द्वारा लिए जाने वाले प्रतिज्ञान और शपथ शामिल हैं।

इस अनुसूची पर संविधान सभा में कई सदस्यों ने अपने-अपने तर्क रखे, खासकर शपथ और प्रतिज्ञान में ईश्वर के नाम का आह्वान करने के मामले पर। डॉ. आंबेडकर ने एक संशोधन पेश किया, जिसमें लोगों को ‘ईश्वर’ के नाम पर शपथ लेने का विकल्प दिया गया। पंजाब के सिख सदस्य सरदार भूपेन्द्र सिंह मान ने इस कदम का नैतिक और धार्मिक आधार पर विरोध किया। आश्चर्य की बात यह है कि सदस्य ने इस बात पर जोर दिया कि चूंकि ईश्वर विधानसभा के सदस्य नहीं हैं और न ही उनकी सहमति ली गई है, इसलिए ‘ईश्वर’ शब्द को शपथ में शामिल नहीं किया जा सकता।

एक अन्य सदस्य ने कहा कि इन पदों पर आसीन लोग धर्मनिरपेक्ष कार्य करेंगे, उनसे शपथ लेते समय ईश्वर का नाम लेने के लिए कहना कोई मतलब नहीं रखता। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि राजनीति में व्यक्ति को अधार्मिक कार्य करने पड़ते हैं, इसलिए ‘ईश्वर’ को इसमें शामिल करना अनुचित है। सभा के कुछ सदस्य इस बात पर भी अड़े थे कि शपथ ग्रहण से पहले शपथ ग्रहण होना चाहिए, जिसमें ‘ईश्वर’ का जिक्र न हो। उनका मानना था कि ‘ईश्वर’ शब्द को बाद में रखने का मतलब है कि इसका महत्व कम हो गया है। एक सदस्य ने इस बदलाव के पक्ष में जोरदार तर्क दिया। उनका कहना था कि भारतीय जनता की पसंद के अनुसार बनाए गए संविधान में शपथ की शुरुआत ‘ईश्वर’ के नाम पर शपथ लेने से होनी चाहिए। इस बदलाव को सुनिश्चित करने वाले संशोधन को अंततः संविधान सभा ने स्वीकार कर लिया। सभा से संशोधित तीसरी अनुसूची को 26 अगस्त, 1949 को संविधान में अपना लिया गया। 16 अक्टूबर, 1949 को अनुसूची पर फिर चर्चा की गई, लेकिन कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया।

आइए जानते हैं कि 26 अगस्त, 1949 को शपथ के शब्दों पर किन सदस्यों ने क्या-क्या कहा। यहां हम कुछ प्रमुख सदस्यों के तर्कों को ही रख रहे हैं जिन्हें पढ़कर आप गदगद हो जाएंगे। इस विषय पर बहस की शुरुआत डॉ. आंबेडकर की तरफ से संशोधन पेश किए जाने पर हुई। डॉ. आंबेडकर ने कहा- माननीय डॉ. बी. आर. अम्बेडकरः श्रीमान मैं यह प्रस्ताव उपस्थित करता हूं कि ” तृतीय अनुसूची में घोषणाओं के प्रपत्र 1 में’ सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं अथवा शपथ लेता हूं ‘ शब्दों और कोष्ठकों के स्थान पर निम्नलिखित रखा जाए :- सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं, ईश्वर की शपथ लेता हूं श्रीमान, मैं यह प्रस्ताव भी उपस्थित करता हूं कि “तृतीय अनुसूची में घोषणाओं के प्रपत्र 2 में सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं अथवा शपथ लेता हूं शब्दों और कोष्ठकों के स्थान पर निम्नलिखित रखा जाए :- ‘Solemnly affirm’ सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं, ईश्वर की शपथ लेता हूं!