आपातकाल एक ऐसा समय जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई भी गिरफ्तार किए गए थे! 25 और 26 जून 1975 की उस उमस भरी दरम्यानी रात राजधानी दिल्ली में अगले कुछ घटों में ऐसा कुछ होने जा रहा था, जिससे देश की दशा और दिशा बदल जाने वाली थी। रात दो बजे के आसपास पुलिस के दल ने राधाकृष्ण के घर पर दस्तक दी। पुलिस जेपी को अपने साथ ले जाने के लिए आई थी। पुलिस जेपी को संसद मार्ग स्थित पुलिस थाने ले गई। थाने में पहुंचने के बाद जैसे ही जेपी को बताया गया कि देश में इमरजेंसी लगा दी गई है और उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है, यह सुनते ही जेपी के मुंह से सहसा ही निकला, विनाश काले विपरीत बुद्धि । यही वह मशहूर कथन है, जिसका इस्तेमाल आज के राजनेता जब-तब किया करते हैं। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और नानाजी देशमुख जैसी हस्तियां भी गिरफ्तार कर ली गईं।संसद का साधारण बहुमत अब आपातकाल की घोषणा के लिए पर्याप्त नहीं है। 44वें संशोधन अधिनियम ने यह अनिवार्य कर दिया कि आपातकाल की घोषणा के पारित होने की छह महीने बाद समीक्षा की जाएगी और नए सिरे से संसदीय अनुमोदन के अभाव में आपातकाल को निलंबित कर दिया जाएगा। सुदीप ठाकुर के अनुसार, देश भर में प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारियों के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आरएसएस, आनंद मार्ग, जमाते इस्लामी और माओवादी सीपीआई एमएल को प्रतिबंधित कर दिया गया। संघ के प्रमुख एम. डी. बालासाहब देवरस को भी नागपुर से गिरफ्तार किया गया था। हालांकि गिरफ्तारी के दौरान की उनकी भूमिका को लेकर सवाल भी उठे। दरअसल देवरस ने यरवदा सेंट्रल जेल, पुणे में बंद रहते प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कई पत्र लिखे थे। इन पत्रों में उन्होंने यह दावा किया था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक सांस्कृतिक संगठन है और हिंसा में लिप्त नहीं है।
देवरस ने पहला पत्र 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के भाषण को सुनने के बाद 22 अगस्त, 1975 को लिखा था। उन्होंने एक पत्र में जेपी का बचाव भी किया था। देवरस ने अपने पत्र में कहा था कि जयप्रकाश नारायण को सीआईए का एजेंट, सरमायेदारों का साथी, देशद्रोही कहना यह ठीक नहीं, अनुचित है। वे भी देशभक्त हैं। आपके भाषणों में अनेक बार ऐसे ही विचार कहे गए हैं।’ सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अनिल सिंह श्रीनेत के अनुसार, आज के दौर में 50 साल पहले जैसा आपातकाल नहीं लगाया जा सकता है। दरअसल, जनता, सोशल मीडिया इतना जागरूक हो चुका है कि आम आदमी को उसके अधिकारों के बारे में हर चीज मालूम है। वहीं, संविधान और सुप्रीम कोर्ट इतना ताकतवर बन चुका है कि वह किसी एक आदमी की तानाशाही को रोकने के लिए पर्याप्त है। आज कोई चाह भी ले तो भी सुप्रीम कोर्ट उस फैसले को ध्वस्त कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अनिल सिंह श्रीनेत बताते हैं कि आपातकाल की समाप्ति के बाद 44वां संविधान संशोधन, 1978 किया गया। जिसमें कार्यपालिका की आपातकालीन शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने की बात कही गई थी। 44वें संशोधन अधिनियम 1978 से पहले, युद्ध या बाहरी आक्रमण या आंतरिक अशांति के आधार पर आपातकाल की उद्घोषणा जारी की जा सकती थी। इसमें आंतरिक अशांति अस्पष्ट थी और सरकार इसका गलत इस्तेमाल कर सकती थी। अब अधिनियम में आंतरिक अशांति के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द का प्रावधान किया गया, जिसमें राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की लिखित अनुशंसा के बाद ही आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं।
एक बार आपातकाल की उद्घोषणा को मंजूरी मिलने के बाद कोई संसदीय नियंत्रण नहीं था। लेकिन अब अस्वीकृति पर विचार के लिए लोकसभा की विशेष बैठक हो सकती है। अनुच्छेद 358 के प्रावधानों के तहत युद्ध या बाहरी आक्रमण के आधार पर आपातकाल घोषित होने पर अनुच्छेद 19 खुद ही निलंबित हो जाएगा। आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 के तहत मिले मौलिक अधिकारों को किसी भी हाल में निलंबित नहीं किया जा सकता है। वहीं, इससे पहले आपातकाल लागू होने पर किसी भी या सभी मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन को निलंबित किया जा सकता था। 1975 के विपरीत, अब प्रधानमंत्री के लिए बिना किसी लिखित स्पष्टीकरण के आपातकाल की घोषणा के बारे में एकतरफा निर्णय लेना संभव नहीं है। संसद का साधारण बहुमत अब आपातकाल की घोषणा के लिए पर्याप्त नहीं है। 44वें संशोधन अधिनियम ने यह अनिवार्य कर दिया कि आपातकाल की घोषणा के पारित होने की छह महीने बाद समीक्षा की जाएगी और नए सिरे से संसदीय अनुमोदन के अभाव में आपातकाल को निलंबित कर दिया जाएगा।