Thursday, November 21, 2024
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आखिर नवीन पटनायक की हार क्या सीख देती है?

आज हम आपको बताएंगे कि नवीन पटनायक की हार आखिर क्या सीख देती है !यह दुर्लभ है, लेकिन पूरी तरह से चौंकाने वाला नहीं है, कि एक चुनाव हारने वाले को नेशनल हीरो के रूप में सम्मानित किया जाए। विंस्टन चर्चिल की ब्रिटिश आइकन के रूप में प्रतिष्ठा 1945 के चुनाव में उनकी करारी शिकस्त के बावजूद भी अधिक समय तक बनी रही। अटल बिहारी वाजपेयी की 2004 में हार भी चौंकाने वाले ढंग से आई थी। भले ही वो सत्ता से बाहर हो गए थे तब भी उनकी पहचान एक मिलनसार राजनेता के रूप में उनकी प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाली थी। अब भी, अति-जुझारू बीजेपी नेताओं को कभी-कभी धीरे से वाजपेयी के मार्गदर्शक सिद्धांत की याद दिलाई जाती है: ‘बड़े काम के लिए बड़ा दिल चाहिए।’ किसी भी कटुतापूर्ण आम चुनाव में विवादास्पद स्थिति उत्पन्न होने की संभावना होती है, और हाल ही में संपन्न चुनाव अलग नहीं थे। फिर भी, यह आश्वस्त करने वाला है कि उस कड़वाहट के बीच, जिसे मिटने में समय लगेगा, एक राजनेता अपनी प्रतिष्ठा को न केवल बरकरार रखते हुए बल्कि हार से सुशोभित होकर बाहर आया। सामान्य तौर पर, पिछले 24 वर्षों से सत्ता पर काबिज किसी नेता की हार पर जोरदार जश्न मनाया जाता है। साल 2011 में कोलकाता के उस जश्न को याद करें जब 34 सालों के बाद ममता बनर्जी ने ‘लाल किले’ पर शानदार जीत दर्ज की थी। ओडिशा में नवीन पटनायक की हार के बाद ऐसा कोई जश्न नहीं मनाया गया, जो सबसे अप्रत्याशित राजनेता थे। उन्हें 1997 में उनके पिता बीजू पटनायक का निधन होने के बाद सार्वजनिक जीवन की उथल-पुथल में धकेल दिया गया था। शायद ओडिशा के लोग नवीन बाबू की ओर से सार्वजनिक जीवन में लाई गई शांति से थक गए थे। वो मोदी लहर के वादे से उत्साह की तलाश कर रहे थे। शायद उन्होंने नवीन निवास पर नियंत्रण करने वाले एक कथित राजनीतिक कब्जे के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की।

चुनाव परिणामों का जो भी आकलन हो, पटनायक की हार किसी भी तरह की नफरत से नहीं हुई। अपनी सभी कथित कमियों और विचित्रताओं के बावजूद, बीजू जनता दल के नेता को हमेशा शालीनता और गरिमा के प्रतीक के रूप में देखा जाता था। उन्हें हर तरफ से कितना सम्मान मिला, यह तब स्पष्ट हो गया जब वे अपने उत्तराधिकारी मोहन चरण माझी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए। माझी, बीजेपी की ओडिशा में बनी पहली सरकार के पहले मुख्यमंत्री हैं। प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृहमंत्री से लेकर नीचे तक, पिछले बुधवार को भुवनेश्वर में शपथ ग्रहण समारोह में लगभग सभी ने निवर्तमान नेता को एक विरोधी के रूप में नहीं बल्कि ओडिशा के वरिष्ठ राजनेता के रूप में देखा।

इस उत्थान में जो बात सहायक हुई वह यह थी कि नवीन बाबू पक्षपात की सीमाओं को समझते थे। पद पर रहते हुए, उन्होंने महसूस किया कि किसी राज्य का विकास केंद्र के साथ सहयोग और समन्वय पर भी निर्भर करता है। भले ही दिल्ली में किसी भी पार्टी का शासन हो। इस द्विदलीय दृष्टिकोण-जिसमें उनकी सहजता की विशेषता भी शामिल थी। उन्होंने ओडिशा के लिए कई बड़े फैसले लिए और इस पिछड़े राज्य को पड़ोसी पश्चिम बंगाल से आगे लेकर गए। ओडिशा को पूर्व का रत्न माना जाने लगा। यह बंगाली गौरव को ठेस पहुंचा सकता है, लेकिन भुवनेश्वर को शिक्षा केंद्र के रूप में बनाए रखने वाले छात्रों का एक बहुत बड़ा हिस्सा बंगाल से आता है।

नवीन बाबू एक क्षेत्रीय पार्टी के नेता हैं, जिसने 2009 में एनडीए से बाहर निकलने के बाद कभी भी औपचारिक रूप से किसी राष्ट्रीय गठबंधन के साथ अलायंस नहीं किया। इस रणनीतिक स्वायत्तता को राष्ट्रीय हित के प्रति गहरी जागरूकता ने आकार दिया। हॉकी को राष्ट्रीय खेल के रूप में पुनर्जीवित करने के लिए अतिरिक्त कदम उठाना हो या जीएसटी कानून और आर्टिकल 370 को निरस्त करने पर बीजेपी के साथ सहयोग करना हो, उन्हें सहज रूप से पता था कि दलीय राजनीति कहां समाप्त होती है और राष्ट्रीय हित कहां शुरू होता है। इसने सार्वजनिक जीवन में उनके लिए एक विशेष स्थान बनाया।

भारत, प्रतिस्पर्धी राजनीति के एक नए फेज में प्रवेश कर रहा। नवीन बाबू का राजनीतिक दृष्टिकोण मूल्यवान सबक प्रदान करता है। हाल के दिनों में, भारत के कई संस्थान विदेशी इंस्टीट्यूट के हमले से घेरे में आए हैं। चुनाव परिणाम सहित भारत के लोकतंत्र की अखंडता पर सवाल उठाने की कोशिश की गई। ऐसा इसलिए नहीं था क्योंकि पश्चिम को स्वतंत्रता और आजादी को बनाए रखने में कट्टर रुचि है, बल्कि इसलिए कि वे भारत की वैश्विक स्थिति को कमजोर करने के लिए तथाकथित डेमोक्रेटिक की कमी को उजागर करना चाहते थे।

फिर भी, मोदी को निशाना बनाने के प्रयास में, ऐसे राजनेता और उनके सहयोगी थे जो अडानी समूह पर पक्षपातपूर्ण हिंडनबर्ग रिपोर्ट जैसे प्रेरित हमलों में खुशी-खुशी शामिल हो गए। ऐसे हमले जो सुप्रीम कोर्ट की ओर से गलत काम करने का कोई सबूत नहीं दिए जाने के बाद भी नहीं रुके। अब, भारतीय व्यवसाय को और अधिक निशाना बनाने के प्रयास में, एग्जिट पोल से जुड़े शेयर बाजार घोटाले के बेबुनियाद आरोप लगाए जा रहे हैं। राष्ट्रीय संस्थानों पर इन हमलों के पीछे तर्क एक भयंकर युद्ध की तरह है। सत्ताधारी पार्टी को टारगेट करने के लिए देश की वित्तीय रीढ़ को नष्ट करना। नवीन पटनायक ने इन मुश्किल समय में एक स्वतंत्र मुख्यमंत्री के रूप में काम किया। उन्हें इस बात का ध्यान था कि ओडिशा को बेहतर बनाने के लिए उन्हें तिरंगा भी ऊंचा रखना होगा। यह उन लोगों के लिए एक सबक है जो राजनीति में अंतहीन ट्यूशन लेते हैं लेकिन कभी सीखते नहीं दिखते।

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