Thursday, November 21, 2024
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आरक्षण के लिए क्या बोले सुप्रीम कोर्ट के जज?

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने आरक्षण के लिए एक बयान दे दिया है! सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (SC/ST) आरक्षण को लेकर बड़ा फैसला सुनाया। चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात जजों की संविधान पीठ ने 6-1 के बहुमत से एससी-एसटी में कोटे के अंदर कोटे को मंजूरी दे दी है। यानी एससी-एसटी कोटे में उप-वर्गीकरण (सब कैटेगरी) किया जा सकता है। सात जजों की संविधान पीठ ने ईवी चिन्नैया के 2004 के फैसले को पलट दिया। उस फैसले में अनुसूचित जातियों के भीतर कुछ उप-जातियों को विशेष लाभ देने से इनकार किया गया था। मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस पंकज मिथल ने कहा कि आरक्षण किसी वर्ग की पहली पीढ़ी के लिए ही होना चाहिए। जस्टिस मिथल ने आरक्षण की समय-समय पर समीक्षा करने का आह्वान किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या दूसरी पीढ़ी सामान्य वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। जस्टिस मिथल से स्पष्ट रूप से कहा कि आरक्षण किसी वर्ग में केवल पहली पीढ़ी के लिए होना चाहिए। यदि दूसरी पीढ़ी आ गई है तो आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए। साथ ही राज्य को यह देखना चाहिए कि आरक्षण के बाद दूसरी पीढ़ी सामान्य वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आई है या नहीं। इस मामले में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस बी आर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मिथल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र मिश्रा शामिल थे।

ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह स्थापित हो चुका है कि राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित अनुसूचित जाति एक ‘विषम वर्ग है, न कि समरूप’। एससी एसटी समुदाय के लोग अक्सर व्यवस्थागत भेदभाव के कारण सीढ़ी चढ़ने में सक्षम नहीं होते हैं। अनुच्छेद 14 जाति के उप वर्गीकरण की अनुमति देता है। कोर्ट को यह जांच करनी चाहिए कि क्या वर्ग समरूप है और किसी उद्देश्य के लिए एकीकृत नहीं किए गए वर्ग को आगे वर्गीकृत किया जा सकता है, राज्यों को एससी और एसटी में ‘क्रीमी लेयर’ की पहचान करनी चाहिए और उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर करना चाहिए। अनुसूचित जातियों में से कुछ को होने वाली कठिनाइयों और पिछड़ेपन का सामना प्रत्येक जाति द्वारा अलग-अलग तरीके से किया जाता है। ईवी चिन्नैया का फैसला गलत है। यह तर्क दिया गया कि कोई पार्टी राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए किसी उप जाति को आरक्षण दे सकती है, लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। अंतिम उद्देश्य वास्तविक समानता का एहसास करना होगा। जैसा कि न्यायिक घोषणाओं में माना गया है।, इसे अनुभवजन्य डेटा द्वारा समर्थित होना चाहिए। जब कोई व्यक्ति किसी डिब्बे में चढ़ता है, तो वह दूसरों को उस डिब्बे में चढ़ने से रोकने के लिए हर संभव कोशिश करता है। केवल सामाजिक न्याय के कारण उन्हें लाभ मिला है, लेकिन जब राज्य उन लोगों को लाभ देने का फैसला करता है जिनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। मैंने 1949 में डॉ. अंबेडकर के भाषण का उल्लेख किया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब तक हमारे पास सामाजिक लोकतंत्र नहीं होगा, तब तक राजनीतिक लोकतंत्र का कोई फायदा नहीं है।

राज्य संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जाति सूची के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते। राज्यों की सकारात्मक कार्यवाही संविधान के दायरे के भीतर होनी चाहिए। आरक्षण प्रदान करने के राज्य के नेक इरादों से उठाए कदम को भी अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट द्वारा उचित नहीं ठहराया जा सकता है। मैं बहुमत के फैसले से सम्मानपूर्वक असहमत हूं। इस मामले में, बिना किसी कारण के ईवी चिन्नैया पर पुनर्विचार करने का संदर्भ दिया गया और वह भी फैसले के 15 साल बाद। संदर्भ ही अपने आप में गलत था। विधायी शक्ति के अभाव में, राज्यों के पास जातियों को उप-वर्गीकृत करने और अनुसूचित जाति के सभी लोगों के लिए आरक्षित लाभों को उप-वर्गीकृत करने की कोई क्षमता नहीं है।

शीर्ष अदालत ‘ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य’ मामले में 2004 के पांच-जजों की संविधान पीठ के फैसले पर फिर से विचार करने के संदर्भ में सुनवाई कर रही थी। इसमें यह कहा गया था कि एससी और एसटी सजातीय समूह हैं। फैसले के मुताबिक, इसलिए, राज्य इन समूहों में अधिक वंचित और कमजोर जातियों को कोटा के अंदर कोटा देने के लिए एससी और एसटी के अंदर वर्गीकरण पर आगे नहीं बढ़ सकते हैं। शीर्ष अदालत ने 2004 में फैसला सुनाया था कि सदियों से बहिष्कार, भेदभाव और अपमान झेलने वाले एससी समुदाय सजातीय वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनका उप-वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। अब सुप्रीम ने इस फैसले को पलट दिया है। पीठ 23 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। इनमें से मुख्य याचिका पंजाब सरकार ने दायर की थी। याचिका में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को चुनौती दी गई थी।

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