यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या चिराग पासवान और उनके चाचा एक हो सकते हैं या नहीं ! क्रिया के विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है। यह प्रकृत्ति का नियम है। राजनीति की दुनिया भी इससे अछूती नहीं है और न हो सकती है। इसलिए गाहे-बगाहे राजनीति में प्रकृत्ति के इस नियम की झलक भी मिलती रहती है। सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की घटक लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के प्रमुख और केंद्र में मंत्री चिराग पासवान अपनी ही सरकार की नीतियों पर लगातार आपत्तियां जता रहे हैं। हालिया मामले में उन्होंने राष्ट्रव्यापी जातीय जनगणना का समर्थन किया है। ये सब चल ही रहा है कि बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की एक तस्वीर सामने आ गई है। तस्वीर पशुपति पारस और प्रिंस राज पासवान से मुलाकात की है। पारस राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (रालोजपा) के अध्यक्ष और चिराग पासवान के चाचा हैं। वहीं, प्रिंस राज पासवान पूर्व सांसद रालोजपा के नेता और चिराग के दूसरे चाचा रामचंद्र पासवान के बेटे हैं। तो क्या अमित शाह से चाचा-भतीजे की यह मुलाकात में प्रकृत्ति के नियम के तहत ही हुई है? चिराग पासवान के पिता रामविलास पासवान 2014 से ही मोदी सरकार में मंत्री थे। उनका 8 अक्टूबर, 2020 को निधन हो गया। उसके बाद चिराग ने लोजपा की कमान अपने हाथों में ले ली। उसी वर्ष बिहार में विधानसभा चुनाव हुए और लोजपा एनडीए से अलग चुनाव लड़ा। लोजपा ने एनडीए के घटक दल जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के खिलाफ अपने प्रत्याशी उतार दिए। जेडीयू को चुनावों में तगड़ा झटका लगा। जेडीयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई और चिराग एनडीए से दूर रहे। उनकी 2024 के लोकसभा चुनावों में वापसी हुई। इस बीच वो एनडीए से दूर रहकर भी खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हनुमान बताते रहे। तीसरी बार मोदी सरकार बनी तो चिराग को कैबिनेट मंत्री बना दिया गया। अभी सरकार बने तीन महीने भी नहीं बीते कि चिराग चार मुद्दों पर अपनी ही सरकार को असहज कर गए।
चिराग की पार्टी दलितों-वंचितों का प्रतिनिधि होने का दावा करती है। उनके वोट बैंक कॉम्बिनेशन में मुसलमानों की भी खास जगह है। एक वक्त था जब राम विलास पासवान ने बिहार में मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने की मांग की थी। दलित वर्ग की जातियों में उपवर्गीकरण की अनुमति वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले और केंद्रीय सचिवालय में कुछ पदों को लेटर एंट्री से भरने का विरोध हो या वक्फ संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के पास भेजने और देशभर में जातीय जनगणना की मांग, चिराग के हर चाल को इन्हीं समीकरणों के आईने में देखा जा रहा है। देश और खासकर बिहार में जातीय राजनीति एक कड़वी सच्चाई है। दूसरी तरफ, मुस्लिम वोट बैंक ऐसा चुनावी मुरब्बा है जिसका बड़ा से बड़ा टुकड़ा हड़पने में हर पार्टी जुड़ी रहती है। तो क्या चिराग ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ की बदौलत ही अपने सभी पांच प्रत्याशियों को लोकसभा पहुंचाने में सफल रही? क्या उसे अन्य जातियों ने वोट नहीं दिया या इस कदर छिटपुट समर्थन किया जिसका कोई मयाने नहीं? क्या उसकी सफलता में एनडीए के सहयोगियों और खासकर बीजेपी का कोई योगदान नहीं है?
अमित शाह के साथ चिराग के चाचा और चचेरे भाई की मुलाकात से ये सवाल प्रासंगिक हो गए हैं। अगर ये मुलाकात चिराग की ‘क्रिया’ के ‘विपरीत प्रतिक्रिया’ है तो एक वक्त आ सकता है जब बीजेपी की तरफ से ‘बराबर’ प्रतिक्रिया भी आ जाए। तब चिराग जिस स्तर पर जाकर बीजेपी को असहज करेंगे, उसी स्तर की असहजता उन्हें बीजेपी भी महसूस करवा सकती है। चाचा-भतीजे के साथ शाह की मुलाकात की यह तस्वीर चिराग के लिए संकेत हो सकती है- विकल्प तो सबके ही खुले होते हैं। अगर पांच सांसदों के साथ चिराग कुछ मन बना रहे हैं तो गिरते-गिरते भी 240 सांसदों के आकंड़े तक पहुंच गई बीजेपी प्रतिक्रिया में पीछे रहेगी, ऐसा उम्मीद करना बेमानी होगी।प्रिंस राज पासवान पूर्व सांसद रालोजपा के नेता और चिराग के दूसरे चाचा रामचंद्र पासवान के बेटे हैं। तो क्या अमित शाह से चाचा-भतीजे की यह मुलाकात में प्रकृत्ति के नियम के तहत ही हुई है? उसने अभी ‘विपरीत प्रतिक्रिया’ का संदेश दिया है, ‘बराबर प्रतिक्रिया’ का दौर आएगा या नहीं, यह पूरी तरह चिराग पर निर्भर करता है। अगर चिराग आगे बढ़े तो उनकी पार्टी लोजपा को तोड़ने वाले उनके चाचा और चचेरे भाई पीछे से उनकी जगह भरने को तैयार बैठे हैं।


