वर्तमान में ऐसा समय आ गया है जब खिड़की राजनेता बनते जा रहे हैं! ऐसा लग रहा है कि भारत की सबसे सफल महिला पहलवान विनेश फोगाट और 2020 के ओलिंपिक मेडलिस्ट बजरंग पूनिया कांग्रेस के टिकट पर हरियाणा विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। एक दिन पहले ही क्रिकेटर रविंद्र जडेजा ने बीजेपी का दामन थामा है। अब विनेश फोगाट और बजरंग पूनिया दोनों ने शुक्रवार को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से मुलाकात की। मुलाकात से पहले खबर आई कि विनेश फोगाट ने रेलवे की अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया है। यानी दोनों के चुनावी समर में उतरने की पूरी संभावना है। खरगे से मुलाकात के बाद दोनों ने औपचारिक तौर पर कांग्रेस की सदस्यता भी ले ली है। यह एकदम सही जोड़ी लगती है। फोगाट और पूनिया ने ओलिंपिक पदक जीतने वाली भारत की एकमात्र महिला पहलवान साक्षी मलिक के साथ मिलकर उस आंदोलन का नेतृत्व किया, जो बीजेपी नेता और भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व प्रमुख बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ था। कुछ महिला पहलवानों ने उन पर यौन शोषण और उत्पीड़न का आरोप लगाया था। अगर किसी को राजनीति में गहन, व्यावहारिक क्रैश कोर्स की जरूरत है, तो वो सबकुछ इस आंदोलन में ही था। पहलवानों ने एक दबंग राजनीतिक व्यक्ति का सामना किया, एक संवेदनशील विषय को उठाया, जहां पीड़ितों को अक्सर सामाजिक रूप से बहिष्कृत और अपमानित किया जाता है (जैसा कि यहां भी हुआ)। भारी समर्थन जुटाया। सार्वजनिक रैलियों का नेतृत्व किया। सैकड़ों भाषण और इंटरव्यू दिए। महीनों तक चले धरने को सहने की सहनशक्ति और दृढ़ता दिखाई। पुलिस कार्रवाई का सामना किया और अपने रास्ते में आने वाली हर बाधा के बावजूद पीछे नहीं हटे। वास्तव में, भारतीय खिलाड़ी जीवनभर जो अनुभव करते हैं, वो एक तरह से राजनीति के लिए प्रशिक्षण है। भारतीय एथलीट अगर किसी भी तरह से अच्छे हैं तो वे 10 या 12 साल की उम्र तक एक ऐसे सिस्टम में प्रवेश करते हैं जहां राजनीति का बहुत ही बोलबाला है, जो बुरी तरह सियासत में उलझा है। अगले कुछ दशकों या उससे भी अधिक समय तक वे उस सिस्टम के तरीके सीखते हैं। भारतीय खेल दो तरह से राजनीति में उलझे हुए हैं।
पहला तरीका अधिक स्पष्ट है। क्रिकेट से लेकर मुक्केबाजी, फुटबॉल, तीरंदाजी, तैराकी, जिम्नास्टिक, घुड़सवारी या टेबल टेनिस तक, देश में तकरीबन सभी खेलों पर नियंत्रण करने वाले संघों पर न केवल राजनेताओं या उनके साथियों का नेतृत्व है, बल्कि वे उन्हें एक जागीर के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं। ऐसी जागीर जिसमें राजनीतिक खेल खेले जाते हैं। इस सिस्टम में आगे बढ़ने के लिए, हर एथलीट और उनके परिवार को पता होता है कि व्यक्ति को दृढ़ निश्चयी, साधन संपन्न और सही लोगों को खुश रखने में सक्षम होना चाहिए। इनमें से प्रत्येक गुण राजनीति के लिए भी जरूरी हैं। जैसे कि विशुद्ध रूप से खेल संबंधी गुण जो एथलेटिक सफलता को निर्धारित करते हैं- फोकस, प्रतिस्पर्धा, अनुशासन और कठोरता।
विराट कोहली ने एक बार मुझसे कहा था कि जब वह 13 वर्ष के थे, उनके जीवन में निराशा का बड़ा क्षण आया था। तब उन्होंने दिल्ली क्रिकेट में जूनियर स्तर पर भी टीम-चयन को प्रभावित करने वाली राजनीति और प्रभाव के स्तर को महसूस किया था। उस समय उसने एक फैसला किया- इतना अच्छा बनो कि राजनीति भी रास्ता न रोक पाए। अपने कौशल को इतनी धार दो कि तुझे नजरअंदाज करना असंभव हो जाए।
यह दूसरा तरीका है जिससे भारतीय खेलों में राजनीति रमती है। एथलीट राजनीतिक जीवन जैसा अनुभव लेते हैं। सरकारी नौकरी कई एथलीटों के जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है जो दूर-दराज के गांवों या भीड़भाड़ वाले टियर II और III शहरों से आते हैं। जो अक्सर गरीबी के अपने पारिवारिक इतिहास से बचने या उस पर काबू पाने के लिए सरकारी नौकरी को अपना लक्ष्य बना लेते हैं।
दूसरी ओर, जो खिलाड़ी राजनीति में इसलिए शामिल हुए क्योंकि उन्हें इसमें रुचि थी, उन्होंने खुद को बहुत मजबूत साबित किया है। गौतम गंभीर अपने दौर के एक जुझारू बल्लेबाज थे जो हमेशा मैदान पर अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त किया करते थे। उन्होंने अपने व्यक्तित्व में शामिल मुखरता का इस्तेमाल दिल्ली में भाजपा के लिए अच्छे प्रभाव के लिए किया। पूर्व भारतीय ओपनर ने 2019 के आम चुनावों में पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से जीत हासिल की। खुशी की बात है कि उन्हें इस साल अपने स्वभाव के लिए और भी बेहतर नौकरी मिल गई है – भारतीय क्रिकेट टीम के कोच की। 2004 के ओलिंपिक सिल्वर मेडलिस्ट राज्यवर्धन सिंह राठौर ने 2014 और 2019 के आम चुनावों में जीत हासिल की और खेल और युवा मामलों के साथ-साथ सूचना और प्रसारण के लिए केंद्रीय मंत्री के रूप में कार्य किया। अब जब कांग्रेस आखिरकार भाजपा को चुनौती दे रही है, तो यह मानने का कारण है कि फोगाट और पूनिया अपने लड़ाकू कौशल को तेज धार के साथ राजनीतिक क्षेत्र में लाएंगे।