Friday, September 20, 2024
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आखिर आरएसएस और बीजेपी में क्यों हो रही है तनातनी?

वर्तमान में आरएसएस और बीजेपी में तनातनी होती जा रही है! आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक बार फिर अपने बयानों से सियासी गलियारों में हलचल मचा दी है। भागवत के बयानों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना के तौर पर देखा जा रहा है। इस बार भागवत ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी के उस दावे पर परोक्ष रूप से निशाना साधा है, जिसमें उन्होंने खुद को ‘ईश्वर का एक साधन’ बताया था। पुणे में एक सभा को संबोधित करते हुए भागवत ने कहा, ‘हमें खुद को भगवान नहीं समझना चाहिए। लोगों को तय करने दें कि आप भगवान हैं या नहीं।’ दरअसल मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान एक इंटरव्यू में कहा था, ‘जब मेरी मां जीवित थीं, तो मैं मानता था कि मेरा जन्म जैविक रूप से हुआ है। उनके निधन के बाद … मुझे विश्वास हो गया है कि भगवान ने मुझे भेजा है। यह ऊर्जा जैविक शरीर से नहीं आ सकती, बल्कि भगवान ने मुझे दी है … मैं भगवान का काम करने के लिए एक जरिया हूं। यह तीसरा मौका है जब लोकसभा चुनावों के बाद भागवत ने पीएम मोदी पर परोक्ष रूप से निशाना साधा है। हैरानी की बात यह है कि भागवत का यह बयान केरल के पलक्कड़ में आरएसएस की वार्षिक बैठक के बाद आया है, जिसमें बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और बीएल संतोष भी शामिल हुए थे। इससे पहले रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के आवास पर भी एक हाई लेवल बैठक हुई थी, जिसमें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, नड्डा और आरएसएस नेता मौजूद थे। भागवत के ताजा बयान से संकेत मिलता है कि इतनी बैठकों के बावजूद संघ और बीजेपी के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा।

मोदी ने राम मंदिर, अनुच्छेद 370 को निरस्त करना, तीन तलाक और समान नागरिक संहिता जैसे आरएसएस के मुख्य एजेंडे को तो लागू कर दिया है, लेकिन आरएसएस को उनके काम करने के तरीके से दिक्कत हो रही है। इसे संघ नेता ‘व्यक्तिवाद’ कहते हैं। संघ को एक नेता के हाथ में ज्यादा पावर को लेकर आपत्ति है। लोकसभा चुनाव में भी आरएसएस कार्यकर्ताओं ने पहले के चुनावों की तरह ज्यादा जोश और उत्साह के साथ बीजेपी का प्रचार नहीं किया था। कुछ लोग इसकी वजह बीजेपी के 400 पार के नारे से उपजे अतिउत्साह को मानते हैं। वहीं बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने लोकसभा चुनावों से पहले कहा था कि पार्टी को अब संघ के हाथ पकड़ने की जरूरत नहीं है। नड्डा का यह बयान शायद ही संघ को पसंद आया होगा।

लेकिन बीजेपी और आरएसएस दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। न बीजेपी आरएसएस के बिना रह सकती है और संघ पार्टी के बगैर। आरएसएस शायद ही कांग्रेस या विपक्ष की वापसी की कामना करेगा। क्योंकि संघ जानता है कि बीजेपी ने जो कुछ भी किया है उसे विपक्ष ध्वस्त कर सकता है। इसमें सरकार, नौकरशाही और शिक्षा जगत में प्रमुख पदों पर बैठे लोग अपने विचार परिवार के लोगों को आगे बढ़ाना भी शामिल है।

पलक्कड़ बैठक के बाद आरएसएस ने यह स्वीकार करते हुए कि भाजपा के साथ उसके मतभेद हैं, कहा कि इन्हें परिवार के भीतर सुलझा लिया जाएगा। भाजपा और संघ नेतृत्व के समक्ष तात्कालिक मुद्दा यह है कि नड्डा के बाद पार्टी अध्यक्ष कौन बनेगा और भागवत के बयान को इस पर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व पर दबाव बनाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। पार्टी को स्पष्ट रूप से आरएसएस के विचारों और चिंताओं को ध्यान में रखना होगा। नए साल में बनने वाले पार्टी अध्यक्ष के लिए कई नामों पर चर्चा चल रही है। इसमें सुनील बंसल, विनोद तवड़े, देवेंद्र फडणवीस, भूपेंद्र यादव और धर्मेंद्र प्रधान शामिल हैं। अगर आगामी चार विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा तो क्या उसे अपने किसी वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी या शिवराज सिंह चौहान को कमान संभालने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।

इसके अलावा आरएसएस ने पलक्कड़ में जाति जनगणना का समर्थन करके सभी को चौंका दिया। संघ ने जातिगत आंकड़ों का उपयोग केवल सामाजिक कल्याण के लिए करने और चुनावी राजनीति के लिए नहीं करने का आह्वान किया, जो संभव नहीं है। क्योंकि आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त दलित, आदिवासी और ओबीसी स्वाभाविक रूप से सत्ता संरचना में अधिक हिस्सेदारी की मांग करेंगे। इसके अलावा, अगर ओबीसी को पता चलता है कि वे आबादी का 65% हैं – जैसा कि पिछले साल बिहार में जाति सर्वेक्षण के दौरान हुआ था – तो वे सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में केवल 27% आरक्षण से संतुष्ट नहीं रहेंगे। जाति जनगणना को अपनी मंजूरी देकर आरएसएस भाजपा के बचाव में आ गया है। पार्टी को जाति जनगणना की विपक्ष की लगातार मांग से दिक्कत हो रही थी, जिसका लोकसभा चुनावों में असर दिखा था। भाजपा को जाति जनगणना पर फैसला लेना होगा। अभी तक वह इस पर अस्पष्ट रही है।

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