यह सवाल उठना लाजिमी है कि तिरुपति जैसे शुद्ध स्थान पर गौमांस कैसे पहुंचा है! विश्व प्रसिद्ध तिरुपति बालाजी के मंदिर में लड्डू बनाने में गोमांस, मछली का तेल और पशुओं की चर्बी के इस्तेमाल की बात सामने आने पर सनसनी मच गई है। सत्तारूढ़ तेलुगु देशम पार्टी (TDP) के प्रमुख और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने यह दावा किया था। उनकी पार्टी ने कहा है कि गुजरात स्थित पशुधन प्रयोगशाला में इस मिलावट की पुष्टि की गई है। नायडू ने आरोप लगाया था कि पिछली वाईएसआरसीपी सरकार ने पवित्र मिठाई तिरुपति लड्डू बनाने में घटिया सामग्री और पशु चर्बी का इस्तेमाल किया था।
टीडीपी ने आरोप लगाया है कि जब आंध्र प्रदेश में YSR कांग्रेस पार्टी की सरकार थी तो उस वक्त मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी थे। तब इस समिति ने मंदिर के प्रसाद के लड्डुओं में खराब और मिलावटी घी का इस्तेमाल किया। हालांकि, वाईएसआरसीपी ने इससे इनकार किया है। वहीं, उप मुख्यमंत्री पवन कल्याण ने इस मामले में जांच कराने का भरोसा देते हुए नेशनल लेवल पर एक सनातन धर्म रक्षा बोर्ड बनाए जाने की वकालत की है। आइए-जानते हैं पूरा मामला, रिपोर्ट में क्या है और तिरुपति मंदिर कितना दौलतमंद है। इसका अंग्रेजी राज से कनेक्शन भी समझते हैं। लड्डू में गोमांस के कथित इस्तेमाल को लेकर यह विवाद हो रहा है। इसमें गोमांस, दुम, पसलियों से हासिल फैट से घी बनाए जाने की बात सामने आई है, जिससे लड्डू तैयार किए जाते हैं। लैब रिपोर्ट में इनसे बने घी में मछली के तेल और पशुओं की चर्बी के भी इस्तेमाल किए जाने की बात कही गई है। इन चीजों से बने घी को ठंडा किए जाने पर नरम मक्खन जैसा हो जाता है।
टीडीपी प्रवक्ता अनम वेंकट रमण रेड्डी ने एक संवाददाता सम्मेलन में कथित प्रयोगशाला रिपोर्ट दिखाई, जिसमें दिए गए घी के नमूने में गोमांस की चर्बी की मौजूदगी की पुष्टि की गई थी। इस रिपोर्ट में लार्ड यानी सुअर की चर्बी और मछली के तेल की मौजूदगी का भी दावा किया गया है। नमूने लेने की तारीख नौ जुलाई, 2024 थी और प्रयोगशाला रिपोर्ट 16 जुलाई की थी। इस रिपोर्ट में ये भी लिखा है कि अगर गाय बीमार हो, अगर गाय को वेजिटेबल ऑयल्स और पाम ऑयल दिया गया हो या कुछ केमिकल्स दिए गए हों या गाय कुपोषित हो, तब भी ऐसी स्थिति में फाल्स पॉजिटिव रिजल्ट्स आ सकते हैं और इनके कारण गाय के घी में जानवरों की चर्बी और उनके फैट के अंश पहुंच सकते हैं।
बड़ा सवाल यह भी उठ रहा है कि ब्लैकलिस्टेड कॉन्ट्रैक्टर से घी क्यों मंगवाए जा रहे थे। टीटीडी के सूत्रों ने कहा कि जहां गाय का घी ब्लैकलिस्टेड ठेकेदार से 320 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से खरीदा जाता था। अब तिरुपति ट्रस्ट कर्नाटक महासंघ से 475 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से घी खरीद रहा है। तिरुपति देवस्थानम के एक रिकॉर्ड के अनुसार, भगवान बालाजी के नाम पर कई बैंकों में 11,225 किलो सोना रखा गया है, जो उन्हें श्रद्धालुओं से चढ़ावे में मिला है। इसके अलावा मंदिर में सभी देवों पर सोने की आभूषण चढ़ाए गए हैं, जिनका वजन 1088.2 किलो है। वहीं, चांदी के गहनों का कुल वजन 9071.85 किलो है। भगवान बालाजी के पास 6,000 एकड़ की जंगल भूमि है। 75 जगहों पर 7,636 एकड़ की अचल संपत्ति है। यही नहीं, उनके पास 1,226 एकड़ की खेतिहर भूमि है और 6409 एकड़ गैर कृषि जमीन है। तिरुपति से जुड़े देशभर में 535 संपत्तियां और 71 मंदिर हैं, जिनमें से 159 को लीज पर दिया गया है। इनसे सालाना 4 करोड़ की इनकम होती है। इतनी ही कमाई उसे मंडपम को लीज पर देने से होती है। श्रद्धालुओं से हर साल 1,021 करोड़ रुपए चंदे के रूप में मिलते हैं।
2022 के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि तिरुमाला में भगवान बालाजी की हुंडी की सालाना इनकम 1,400 करोड़ रुपए है। वहीं, यह कमाई सचिन तेंदुलकर की सालाना इनकम 1,300 करोड़ रुपए और विराट कोहली की सालाना इनकम करीब 1,000 करोड़ रुपए से ज्यादा है। टीटीडी तिरुमाला में हर दिन लगभग 3 लाख लड्डू तैयार करता है और श्रद्धालुओं को बांटता है। अकेले लड्डू की बिक्री से ट्रस्ट को हर साल करीब 500 करोड़ रुपए की कमाई होती है। तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम लड्डू पोटू में एक दिन में औसतन 3 लाख लड्डू तैयार करता है। मौजूदा वक्त में पोटू की क्षमता प्रतिदिन 8 लाख लड्डू बनाने की है।
पोटू में तीन तरह के प्रोक्तम, अस्थानम और कल्याणोत्सवम लड्डू बनाए जाते हैं। प्रोक्तम लड्डू मंदिर में आने वाले सभी आम तीर्थयात्रियों को नियमित रूप से बांटा जाता है। यह आकार में छोटा है और इसका वजन 60-75 ग्राम है। ये लड्डू बड़ी संख्या में तैयार किये जाते हैं। वहीं, अस्थानम लड्डू केवल विशेष उत्सव पर ही बनाया जाता है। यह आकार में बड़ा है और इसका वजन 750 ग्राम है। इसे अधिक काजू, बादाम और केसर से तैयार किया जाता है। वहीं, कल्याणोत्सवम लड्डू कुछ खास पर्व पर हिस्सा लेने वाले श्रद्धालुओं को ही बांटा जाता है। आमतौर पर इन लड्डुओं की शेल्फ लाइफ लगभग 15 दिनों की है।
जनवरी, 1857 ई. से ब्रिटिश सेना में ‘नई एनफील्ड राइफल’ का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इसमें गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग होता था। भारतीय सैनिकों को इन कारतूसों का इस्तेमाल करने से पहले मुंह से काटना पड़ता था। माना जाता है कि यह भारत की हिंदू-मुस्लिम जनता के बीच बांटों और राज करो की नीति का प्रयोग था। 29 मार्च, 1857 को तत्कालीन कलकत्ता के 34-नेटिव इन्फैंट्री बैरकपुर के सैनिक मंगल पांडे के नेतृत्व में कुछ सैनिकों ने बगावत करते हुए इन कारतूसों के इस्तेमाल से मना कर दिया। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ पहली गोली चला दी।