क्या दलित मतदाताओं ने राहुल गांधी से मोह तोड़ लिया है?

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यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या दलित मतदाताओं ने वर्तमान में राहुल गांधी से मुंह तोड़ लिया है या नहीं! कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी फिर वहीं पहुंच गए जहां वो 2014 के बाद से ही ठोस रूप से जमे हुए हैं। बीच-बीच में एकाध विचलन होता है, लेकिन ‘पुनर्मूषको भव:’ के भाव से न कांग्रेस दूर हट पाती है, ना राहुल। हरियाणा विधानसभा चुनावों की हार को कांग्रेस और राहुल गांधी की चूलें हिला देने वाले झटकों में एक मानना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अभी-अभी तो राहुल गांधी ने कम-से-कम उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में दलित मतदाताओं को यह समझाने में सफलता हासिल की थी कि उनका बीजेपी के साथ रहना घाटे का सौदा है। लेकिन 8 अक्टूबर के हरियाणा विधानसभा चुनावों के परिणाम ने 4 जून के लोकसभा चुनावों के परिणाम से बने नैरेटिव को मटियामेट कर दिया। लोकसभा रिजल्ट के बाद से दलित मतदाताओं की चिंता में डूबी बीजेपी अब बमबम है। कांग्रेस की खुशी इतनी जल्दी काफूर हो जाएगी, यह तो उसने भी नहीं सोचा था। लोकसभा चुनावों के दौरान यूपी और महाराष्ट्र में बिदक गए दलित मतदाताओं ने हरियाणा विधानसभा चुनावों में न केवल बीजेपी का साथ दिया बल्कि पूरी ताकत लगाकर जाट-मुस्लिम कॉम्बिनेशन को धता बता दिया। इस तरह, महज चार महीने में दलितों ने दो बार साबित कर दिया कि पलड़ा हलका और भारी करने में उसकी कोई सानी नहीं हो सकती। तो सवाल है कि हरियाणा चुनाव परिणाम से कांग्रेस को क्यों चिंता होनी चाहिए? परस्पर प्रभाव का दूसरा सवाल है कि आखिर बीजेपी को इतना खुश क्यों होना चाहिए जब उसे पता है कि दलित पाला बदल सकते हैं?

पहले कांग्रेस की चिंता की बात करते हैं। हरियाणा में चुनाव की घोषणा से बहुत पहले से ही कांग्रेस के लिए अनुकूल परिस्थितियां थीं। बीजेपी का हरियाणा में अपना मुख्यमंत्री बदलना इस बात की ठोस तस्दीक है। बीजेपी ने लोकसभा चुनावों के छह महीने पहले ही मनोहर लाल खट्टर को हटाकर हरियाणा की कमान नायब सिंह सैनी को सौंप दिया था। फिर संसदीय चुनाव हुए तो कांग्रेस ने बीजेपी से पांच यानी आधी सीटें झटक लीं। यानी बीजेपी की मुख्यमंत्री बदलो की चाल भी हरियाणा में कांग्रेस के पक्ष में बने मोमेंटम को बदल नहीं पाई। और विधानसभा चुनावों में बहुत देर भी तो नहीं हुई।

तीसरे महीने में ही 16 अगस्त को हरियाणा विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई। इस बीच बीजेपी ऐसा कुछ नहीं कर सकी थी कि मोमेंटम उसके पक्ष में हो जाए। जवान, किसान और पहलवान प्रमुख प्रदेश हरियाणा में ये तीनों फैक्टर बीजेपी के विरुद्ध बताए जा रहे थे। कांग्रेस को करना था तो सिर्फ इतना कि बीजेपी के खिलाफ नाराजगी की पकी हुई वोटों की फसल को सावधानी से समेटकर घर ले आए। लेकिन उन्हीं राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस इतना भी नहीं कर पाई जिन्हें तीन महीने पहले 4 जून के लोकसभा रिजल्ट के बाद जननायक बताने का अभियान उसने तेज कर दिया था। हरियाणा की हार ‘जननायक’ की छवि को कितना बड़ा नुकसान है, इसका अंदाजा इन बिंदुओं से लगा सकते हैं! कांग्रेस पार्टी को हरियाणा में बीजेपी से सिर्फ 0.85% वोट ही कम आए। बीजेपी को 39.94 प्रतिशत वोट मिले तो कांग्रेस ने भी 39.09 प्रतिशत वोट हासिल किया। यह इस बात की पुष्टि करता है कि हरियाणा में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बना था। फिर भी करारी हार मिली। इसका मतलब है कि कांग्रेस के स्थानीय संगठन से लेकर शीर्ष नेतृत्व तक सही रणनीति बनाने में असफल रही। उधर, जम्मू-कश्मीर में भी कांग्रेस सबसे शानदार प्रदर्शन करने वाली नैशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) का साथ पाकर भी फिसड्डी रही।

अब तो यही लगता है कि जवानों, किसानों और पहलवानों के प्रदेश हरियाणा में इन तीनों की बीजेपी से नाराजगी का नैरेटिव बिल्कुल फर्जी था। कांग्रेस ने बनावटी असंतुष्टों के कई वर्ग खड़े करके बीजेपी पर सामूहिक चोट करने की रणनीति अपनाई तो, लेकिन बिल्कुल फेल रही। यह ओलिंपिक में दमदार प्रदर्शन के दम पर फाइनल में पहुंचने और फिर स्वर्ण पदक के लिए अखाड़े में उतरने से पहले ही अयोग्य घोषित होने जैसा मामला है। यह कोई रणनीति में बिल्कुल अक्षम या असंयमित और लापरवाह या फिर अहंकार में डूबे इंसान का ही परिचायक हो सकता है। कांग्रेस का हाल भी कुछ ऐसा ही रहा।

लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने दलितों के बीच आरक्षण को लेकर जो डर पैदा किया था, उसके असर से उसकी सीटें बढ़ गईं और बीजेपी के चार सौ पार के अभियान को करारा झटका लगा। कांग्रेस के सामने दलितों को यह समझाए रखने की चुनौती थी कि बीजेपी सरकार से आरक्षण का खतरा वास्तविक है। नायब सिंह सैनी सरकार ने भी ग्रुप-ए और ग्रुप-बी के सरकारी पदों में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण 15% से बढ़ाकर 27% कर दिया। सैनी सरकार ने विधानसभा चुनावों से ठीक पहले ओबीसी की क्रीमी लेयर को ₹6 लाख से बढ़ाकर ₹8 लाख कर दिया। बावजूद इसके कांग्रेस दलितों को यह समझाने में नाकामयाब रही कि आरक्षण पर बीजेपी सरकार का रवैया ओबीसी हितैषी है, ना कि दलित हितैषी। उधर, संभावित नाराजगी को टालने के लिए बीजेपी के चतुर चुनावी प्रबंधक धर्मेंद्र प्रधान ने दलित जातियों, खासकर रविदासी, जोगी, बाजीगर और अन्य के साथ बैठकें कीं और उनकी आशंकाओं का समाधान किया।

हरियाणा में कांग्रेस पार्टी का सबसे बड़ा दलित चेहरा कुमारी शैलजा का है। उन्होंने चुनाव परिणाम आने के बाद कहा कि सभी अंडे एक ही टोकरी में रखने की नीति कभी सही नहीं मानी जाती है। उनका इशारा उम्मीदवारों के चयन प्रक्रिया में भूपेंद्र सिंह हुड्डा का पूरा दबदबा होने की तरफ है। कांग्रेस को जाटों पर हद से ज्यादा भरोसा करके बाकी जातियों को नजरअंदाज करने की कीमत चुकानी पड़ी है। अब शैलजा कह रही हैं कि शीर्ष नेतृत्व को इस रणनीति पर पुनर्विचार करते हुए हार के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान करनी चाहिए। शीर्ष नेतृत्व यह सब कर भी ले तो अब क्या? वो कहते हैं ना- अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। कांग्रेस के लिए हरियाणा में चिड़िया के खेत चुगने का नहीं, दंबंगों द्वारा जमीन ही कब्जा कर लिए जाने जैसा मामला है। इसलिए झटका सामान्य नहीं, बहुत तगड़ा है। कांग्रेस इससे कैसे उबरेगी, यह राहुल गांधी और उनकी टीम को बहुत गंभीरता से सोचना होगा।