हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता की धारा 6A पर एक बड़ा बयान दे दिया है! सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से नागरिकता कानून की धारा 6A को संवैधानिक बताया है। 4 जजों ने फैसले का समर्थन किया, जबकि जस्टिस जेबी पारदीवाला ने असहमति जताई। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि राज्यों को बाहरी खतरों से बचाना केंद्र सरकार का कर्तव्य है। आर्टिकल 355 के तहत कर्तव्य को अधिकार मानना नागरिकों और अदालतों को आपातकालीन अधिकार देगा, जो विनाशकारी होगा। सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से लिए गए अपने फैसले में नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है। ये असम में प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करती है। भारत के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस एमएम सुंदरेश और जस्टिस मनोज मिश्रा ने नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए की वैधता पर सहमति जताई। जस्टिस पारदीवाला ने धारा 6ए पर कहालागू किए जाने के समय कानून वैध हो सकता है लेकिन यह समय के साथ अस्थायी रूप से त्रुटिपूर्ण हो सकता है। सर्वोच्च अदालत ने फैसले में कहा कि असम में प्रवेश और नागरिकता प्रदान करने के लिए 25 मार्च, 1971 तक की समय सीमा सही है। किसी राज्य में विभिन्न जातीय समूहों की उपस्थिति का मतलब अनुच्छेद 29(1) का उल्लंघन नहीं है।
कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 4:1 के बहुमत से तीन फैसले सुनाए और नागरिकता कानून की धारा 6ए की वैधता बरकरार रखी। न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला ने अल्पमत का अपना फैसला सुनाते हुए असहमति जताई और नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए को असंवैधानिक करार दिया। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि किसी राज्य में अलग-अलग जातीय समूहों का होना आर्टिकल 29(1) का उल्लंघन नहीं है। याचिकाकर्ता को यह साबित करना होगा कि एक जातीय समूह अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा नहीं कर सकता क्योंकि वहां दूसरा जातीय ग्रुप भी रहता है। सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर किसी स्थिति का उद्देश्य से उचित संबंध है, तो उसे अस्थायी रूप से अनुचित नहीं ठहराया जा सकता।
कोर्ट ने कहा कि भारत में नागरिकता देने का एकमात्र तरीका रजिस्ट्रेशन नहीं है और धारा 6A को सिर्फ इसलिए असंवैधानिक नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इसमें रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया नहीं दी गई है। इसलिए मेरा भी निष्कर्ष है कि धारा 6A वैध है। कोर्ट साथ ही अब बांग्लादेशियों की पहचान और निर्वासन के काम की निगरानी भी करेगा। नागरिकता कानून की धारा 6A को 1985 में असम समझौते को आगे बढ़ाने के लिए संशोधन के बाद जोड़ा गया था। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यह केंद्र सरकार का कर्तव्य है कि वह राज्यों को बाहरी आक्रमण से बचाए। आर्टिकल 355 के तहत कर्तव्य को अधिकार मानना नागरिकों और अदालतों को आपातकालीन अधिकार देगा, जो विनाशकारी होगा। उन्होंने आगे कहा कि किसी राज्य में अलग-अलग जातीय समूहों का होना अनुच्छेद 29(1) का उल्लंघन नहीं है। याचिकाकर्ता को यह साबित करना होगा कि एक जातीय समूह अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा नहीं कर सकता क्योंकि वहां दूसरा जातीय समूह भी रहता है।
सिटीजनशिप एक्ट की धारा 6A को 1985 में असम समझौते को आगे बढ़ाने के लिए संशोधन के तहत जोड़ा गया था। इस धारा में कहा गया कि जो लोग 1985 में बांग्लादेश समेत दूसरे क्षेत्रों से जनवरी 1966 और मार्च 1971 से पहले आए हैं, उन्हें भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के लिए धारा 18 के तहत रजिस्ट्रेशन कराना होगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई का बयान सामने आया है। उन्होंने कहा, ‘मैं असम समझौते का समर्थन करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करता हूं। असम समझौता ऐतिहासिक समझौता था जिसने वर्षों के राजनीतिक आंदोलन के बाद राज्य में शांति स्थापित की। उस दौरान भारत के प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी राजनीतिक मतभेदों के बावजूद छात्र नेताओं से बातचीत करते थे। आज परिदृश्य अलग है। भाजपा प्रदर्शनकारियों को देशद्रोही और खालिस्तानी कहती है, या मणिपुर की तरह प्रधानमंत्री मोदी ऐसा दिखावा करते हैं जैसे राज्य का अस्तित्व ही नहीं है।
इस मामले में फैसला सुनाते हुए, सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि धारा 6A असम की एक अनोखी समस्या का राजनीतिक समाधान था। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश के निर्माण के बाद राज्य में बड़े पैमाने पर अवैध अप्रवासियों के आने से असम की संस्कृति और जनसांख्यिकी को गंभीर खतरा पैदा हो गया था। असम में छात्र आंदोलन के प्रमुख कारणों में से एक बांग्लादेश से भारी अवैध प्रवासन के कारण राज्य की मूल आबादी के मतदान अधिकारों का कमजोर होना था और धारा 6A ने इस विकट स्थिति को दूर करने का प्रयास किया था।