आज हम आपको बताएंगे कि पूर्व CJI चंद्रचूड़ आखिर किन मुद्दों के लिए याद आएंगे! इसके बाद भारत के 50वें मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ का कार्यकाल दो साल से ज्यादा का रहा। इस दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण फैसले सुनाए, कुछ में उन्हें सराहना मिली तो कुछ में आलोचना भी झेलनी पड़ी। उनके कार्यकाल की शुरुआत में दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग उनके कट्टर आलोचक थे। हालांकि, अब कार्यकाल के अंत तक हालात बदल गए हैं। अब तक जो लोग उनकी आलोचना कर रहे थे वही उनके बचाव में खड़े नजर आ रहे। एक नजर सीजेआई चंद्रचूड़ के कार्यकाल, उनके महत्वपूर्ण फैसलों पर। जस्टिस चंद्रचूड़ भारत के उन 14 मुख्य न्यायाधीशों में से एक हैं जिनका कार्यकाल दो साल या उससे अधिक समय का रहा है। क्या यह उनके लिए एक खोया हुआ मौका था? या फिर उनसे बहुत ज्यादा उम्मीदें लगाई जा रही थीं, यह देखते हुए कि वह एक ऐसी न्यायिक प्रणाली का हिस्सा हैं जो अक्षम है, अधिकांश मामलों में पुरानी है, और जिसकी विश्वसनीयता बेहद कम है?
मुख्य न्यायाधीश बनने से पहले जस्टिस चंद्रचूड़ ने जो फैसले सुनाए थे, उनसे उम्मीदें बहुत बढ़ गई थीं। लेकिन सीजेआई के रूप में उनसे कई लोग निराश हुए, कुछ ऐसे मामले थे जिन्हें उन्होंने अनदेखा कर दिया, और अदालत के बाहर उनका आचरण और बयान भी इसमें अहम हैं। सबसे पहले, आइए उन फैसलों पर नजर डालते हैं, जिन्होंने जस्टिस चंद्रचूड़ को उदारवादियों का पसंदीदा बना दिया! जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ उस पीठ का हिस्सा थे जिसने 1976 में उनके पिता वाईवी चंद्रचूड़ वाली पीठ की ओर से सुनाए गए एक फैसले को पलट दिया था। 1976 का फैसला, जो ADM जबलपुर मामले के नाम से मशहूर है। इसमें आपातकाल के दौरान गिरफ्तार किए गए लोगों को न्यायिक मदद लेने से रोक दिया था। अगस्त 2017 में, नौ जजों की एक पीठ ने 1976 के फैसले को ‘गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण’ बताते हुए पलट दिया। जस्टिस चंद्रचूड़ ने लिखा, ‘जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानव अस्तित्व के लिए अपरिहार्य हैं। वे प्राकृतिक कानून के तहत अधिकार बनाते हैं।’
जस्टिस चंद्रचूड़ उस पीठ का हिस्सा थे जिसने एडल्ट्री पर भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि एक महिला को उसके पति की ‘संपत्ति’ नहीं माना जा सकता है। धारा 497 में व्यभिचार को ‘किसी व्यक्ति की पत्नी के साथ उसकी सहमति या जानकारी के बिना यौन संबंध बनाना’ के रूप में परिभाषित किया गया है। हालांकि, महिलाओं को इस धारा के तहत मुकदमा चलाने से छूट दी गई थी। दो वयस्कों के बीच समलैंगिक गतिविधि को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के अपने फैसले में, जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि यह प्रावधान एक ‘ पुराना और औपनिवेशिक कानून’ था जो लोगों के जीवन और निजता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
जस्टिस चंद्रचूड़ उस पीठ का हिस्सा थे जिसने ‘लव जिहाद’ मामले में हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया था। हाईकोर्ट ने मामले की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंप दी थी। उन्होंने फैसला सुनाते हुए कहा कि एक महिला अपना जीवन कैसे जीना चाहती है यह पूरी तरह से उसके अपने फैसले की बात है। आधार अधिनियम मामले में उनके एकमात्र असहमतिपूर्ण फैसले ने इस एक्ट को पूरी तरह से यह कहते हुए रद्द कर दिया कि 2009 से आधार कार्यक्रम संवैधानिक खामियों और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से ग्रस्त है। भीमा-कोरेगांव मामले में अपने एकमात्र असहमतिपूर्ण फैसले में, जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था, ‘न्यायिक घोषणाओं में बुलंद आदेशों का नागरिक के लिए कोई अर्थ नहीं हो सकता है जब तक कि मानव स्वतंत्रता की संवैधानिक तलाश उन व्यक्तियों के लिए न्याय हासिल करने में तब्दील न हो जाए जिनकी स्वतंत्रता खतरे में है।’
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ‘रोस्टर के मास्टर’ भी होते हैं, इसका मतलब है कि वह अन्य जजों को मामले सौंपते हैं। पिछले साल दिसंबर में, तत्कालीन दूसरे मोस्ट सीनियर जज संजय किशन कौल ने पाया कि उनके केसों की लिस्ट से कुछ मामले हटा दिए गए हैं। उनसे छीने गए मामलों में से एक केस केंद्र सरकार की ओर से कॉलेजियम द्वारा रिकमेंड जजों की नियुक्तियों, पदोन्नति और ट्रांसफर पर कार्रवाई न करने के बारे में था। जस्टिस कौल और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ कुछ महीनों से मामले की सुनवाई कर रही थी और लगभग हर सुनवाई में सरकार को फटकार लगा रही थी। दरअसल, कॉलेजियम के प्रस्तावों को मंजूरी देने वाली कई सरकारी अधिसूचनाएं इन सुनवाइयों में चेतावनी दिए जाने के बाद ही जारी की गई थीं। 5 दिसंबर, 2023 को, जब मामले की फिर से सुनवाई होनी थी, तो वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण और जस्टिस कौल ने आश्चर्य व्यक्त किया कि केस को बाद वाले की मामलों की सूची से हटा दिया गया था। कथित तौर पर अदालत कक्ष में इस तरह की बातचीत हुई: जस्टिस कौल: ‘मैं बस एक बात कहूंगा। मैंने मामले को नहीं हटाया है।’ प्रशांत भूषण: ‘महोदय आपको रजिस्ट्री से स्पष्टीकरण मांगना चाहिए।’ जस्टिस कौल: ‘मुझे यकीन है कि प्रधान न्यायाधीश इससे अवगत हैं।’ प्रशांत भूषण: ‘बहुत अजीब। इसे आज सूचीबद्ध करने का न्यायिक आदेश है।’ जस्टिस कौल: ‘कल मैंने पाया कि इसे हटा दिया गया था। मैंने जांच की।’ प्रशांत भूषण: ‘बहुत ही असामान्य है।’ जस्टिस कौल: ‘कुछ बातें अनकही ही बेहतर होती हैं। मैं स्पष्ट करता हूं कि ऐसा नहीं है कि मैंने मामले को हटा दिया है या मैं मामले को लेने को तैयार नहीं हूं।’
एक मुख्य न्यायाधीश के पास अपनी पसंद के पूजा स्थलों पर जाने का पूरा अधिकार है, यहां तक कि हाई ज्यूडिशियल अधिकारियों के लिए आचार संहिता में भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं है जो उन्हें ऐसा करने से रोकता हो। लेकिन ये दौरे निजी प्रकृति के होने चाहिए या प्रचार के साथ, यह तय करना हर जज के विवेक पर निर्भर करता है। जस्टिस चंद्रचूड़ के मंदिर दौरे चर्चा का विषय बने रहे। उन्होंने अपने कार्यकाल में द्वारकाधीश मंदिर (गुजरात), राम मंदिर (अयोध्या), जगन्नाथ पुरी मंदिर (ओडिशा), पशुपतिनाथ मंदिर (नेपाल), और तिरुपति मंदिर (आंध्र प्रदेश) जैसे प्रसिद्ध मंदिरों के दर्शन किए। इन यात्राओं को लेकर काफी प्रचार भी हुआ।
पिछले साल मई में जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों वाली पीठ ने महाराष्ट्र के राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष की ओर से उठाए गए हर कदम को उस समय तक अवैध करार दिया, जब तक तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने इस्तीफा नहीं दे दिया। हालांकि, पीठ ने उद्धव ठाकरे के पक्ष द्वारा उनकी सरकार के खिलाफ बगावत करने वालों के खिलाफ दायर अयोग्यता याचिकाओं पर कोई आदेश देने से इनकार कर दिया। कुल मिलाकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ का कार्यकाल उतार-चढ़ाव भरा रहा। एक ओर उन्होंने कई ऐतिहासिक फैसले दिए, वहीं दूसरी ओर कुछ विवादों में भी रहे। उनके उत्तराधिकारी को न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करने और देश के सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा।