एक समय ऐसा था जब इजराइल ने भारत में अपने लोगों की तलाश करने के लिए डीएनए टेस्ट किए थे! तिब्बत को चीन कितना दबाकर रखता है, यह किसी से छिपा नहीं है। चीन की कम्युनिस्ट सरकारें पिछले सात दशक से तिब्बतियों का उत्पीड़न करती आ रही हैं। ताजा रिपोर्ट है कि चीन तिब्बतियों पर नजर रखने के लिए बड़े पैमाने पर वहां लोगों का डीएनए टेस्ट करवा रहा है। मकसद है कि तिब्बतियों का बायोलॉजिकल डेटाबेस तैयार किया जाए। मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट में यह दावा किया गया है। एक न्यूज एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक, खासकर तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र के कस्बों और गांववालों से मनमाने ढंग से DNA सैंपल लिए जा रहे हैं। चीन ने ऐसा ही कुछ पूर्वी तुर्किस्तान और दक्षिण मंगोलिया में भी करने की कोशिश की है। डीएनए टेस्ट के जरिए प्रोफाइलिंग करते चीन के इरादे बिल्कुल नेक नहीं है। डीएनए टेस्ट का रास्ता इजरायल ने भी चुना है लेकिन उसका मकसद कुछ और है। वह नागरिकता चाहने वालों के पारिवारिक लिंक तलाशने के लिए डीएनए टेस्ट करता है। ऐसे ही टेस्ट्स इजरायल ने 21वीं सदी की शुरुआत में भारत में किए थे। मकसद था भारत में आ बसे यहूदी समुदायों की पहचान करना।
देश में बाहर से आने वाले शुरुआती विदेशी धर्मों में यूदावाद भी एक था। भारत में यह समुदाय अति-अल्पसंख्यक है और प्राचीन काल से रहता आया है। यहूदी भारत में कब आए, इसे लेकर अलग-अलग दावे हैं। कोचीन के यहूदी भारत के सबसे पुराने यहूदी समझे जाते हैं। कुछ भारतीय यहूदी कहते हैं कि उनके पूर्वज यूदा प्रदेश के समय भारत आए। कुछ दावा करते हैं कि वे यूदावाद से पहले के इजरायल से निर्वासित 12 जनजातियों के वंशज हैं। एक समुदाय बनी मेनाशे का भी है जो इजरायली मेनाशे जनजाति की ब्लडलाइन होने का दावा करते हैं। बनी मेनाशे समुदाय के लोग मिजोरम और मणिपुर में रहते हैं। इसके अलावा भारत में ‘बनी एफ्रेम’, ‘बनी इजरायल’, ‘बगदादी यहूदी’ समुदाय के लोग भी रहते हैं। 1938 से 1947 के बीच, नाजियों के हाथों नरसंहार से बचने के लिए करीब 2,000 यहूदियों ने भारत में शरण ली।
1948 में जब आधुनिक रूप में इजरायल देश बना तो दुनियाभर से यहूदियों की वतन वापसी शुरू हुई, भारत से भी। आने वाले कुछ सालों में बनी इजरायल समुदाय के हजारों लोग पश्चिम भारत से इजरायल गए। यहूदियों की इजरायल वापसी को ‘अलियाह’ कहते हैं। इजरायल के कई एनजीओ अपने यहां की खोई हुई जनजातियों को वापस लाने की कोशिश में जुटे हैं। 2015 के एक अनुमान के अनुसार, इजरायल में 70 हजार से ज्यादा भारतीय यहूदी रहते थे। उस वक्त भारत में करीब 5,000 यहूदी थे जिनकी ज्यादातर आबादी मुंबई और पुणे में बसी है।
21वीं सदी की शुरुआत में बनी मेनाशे समुदाय ने तेजी से इजरायल में इमिग्रेशन शुरू किया। उसी दौरान, कई इजरायली रिसर्चर्स ने भारत में रह रहे यहूदियों और इमिग्रेशन चाहने वालों का डीएनए टेस्ट शुरू किया। हैफा के इजरायल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ने बनी मेनाशे समुदाय के 350 जेनेटिक सैम्पल्स कलेक्ट किए। रिसर्च में इस बात के सबूत नहीं मिले कि इस समूह का उद्गम मध्य पूर्व में हुआ।
2004 में कोलकाता के सेंट्रल फोरेंसिंक साइंस लैबोरेट्री में चली एक भारतीय स्टडी में पता चला कि समुदाय की कुछ महिलाओं का डीएनए मिडल-ईस्ट में रहने वालों से मिलता है। हालांकि इसके पीछे इंटरमैरिज को सबसे संभावित वजह बताया गया। 2016 में बनी इजरायल समुदाय पर एक रिसर्च छपी। रिसर्चर्स ने कहा कि समुदाय के भारत आने का समय 800 ईसा पूर्व से लेकर छठी सदी के बीच कभी भी हो सकता है।
इजरायल के रास्ते हर यहूदी के लिए खुले हैं। द लॉ ऑफ रिटर्न (1950) के तहत हर यहूदी को, चाहे वह कहीं भी हो, इजरायल आने और इजरायली नागरिक बनने का अधिकार मिलता है। कानून की दृष्टि से ‘यहूदी’ वह है जिसकी मां यहूदी रहीं हों या फिर उसने यहूदी धर्म अपनाया हो और अन्य किसी धर्म को न मानता हो। ऐसे लोगों की नागरिकता इजरायल में कदम रखने के दिन से ही मान्य हो सकती है। 1970 के बाद, कानून में थोड़ा बदलाव हुआ। अब यहूदियों के बच्चे और पोते-पोतियां भी इजरायल के नागरिक बन सकते हैं। इसमें उन लोगों को शामिल नहीं किया गया है जो यहूदी थे और बाद में इच्छा से धर्म-परिवर्तन कर लिया।निवास के तहत नागरिकता का प्रावधान ब्रिटिश फलस्तीन के पूर्व नागरिकों के लिए है। 1948 में इजरायल देश बनने से लेकर 1962 में नागरिकता कानून लागू होने तक जो लोग इजरायल में रहे, वे निवास या वापसी के जरिए नागरिक बन गए। इस कानून में 1980 में संशोधन किया गया।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, तिब्बत के 14 अलग-अलग इलाकों में लोगों से DNA सैंपल लिए जाने की पुष्टि हुई है। इससे पता चलता है कि चीन कितने बड़े पैमाने पर यह काम कर रहा है। चीन ने क्राइम के मामलों की पड़ताल के लिए इसी तरह की डेटा सैंपलिंग बाकी देश में भी की है, जहां 10% पुरुषों के डीएनए सैंपल लिए गए हैं। तिब्बती मीडिया के अनुसार, चीन लंबे समय से कोशिश कर रहा है कि तिब्बत के लोगों की जिंदगी को वह अपनी मर्जी के मुताबिक चलाए।
तिब्बत के उन इलाकों में चीन के अत्याचार की खूब खबरें आई हैं, जो पूरी तरह से चीन के कब्जे में हैं। इससे पहले उसने शिंचियांग में हजारों उइगर मुसलमानों की नसबंदी करने के लिए जैविक साधनों का इस्तेमाल किया था, जिसके खतरनाक नतीजे सामने आ रहे हैं।