यह सवाल उठना लाजिमी है कि हरियाणा में बीजेपी से कांग्रेस कैसे हार सकती है ! हरियाणा और जम्मू कश्मीर चुनाव के नतीजे मंगलवार को आए, लेकिन इन नतीजों ने कांग्रेस के सिर पर सजते ताज को अचानक छीन लिया। वहीं जम्मू कश्मीर में भले ही कांग्रेस नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ सत्ता के करीब पहुंच गई हो, लेकिन इसमें उसका प्रदर्शन बेहद सीमित है। ऐसे में मंगलवार को कांग्रेस के खाते में चेहरे पर हंसी लायक कुछ खास हासिल नहीं हुआ। हरियाणा में बीजेपी के लगभग बराबर वोट (बीजेपी 39.94 फीसदी और कांग्रेस 39.09 फीसदी) पाकर भी कांग्रेस ग्यारह सीटों के अंतर पर खड़ी होकर सत्ता की रेस से बाहर हो चुकी है। जम्मू कश्मीर में कांग्रेस लगभग 12 फीसदी वोट पाकर सिर्फ छह सीटें जीत पाई। जम्मू संभाग में जहां उसे बीजेपी को रोकना था, वहां कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। यहां 29 सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस महज एक सीट जीत पाई, जबकि पांच सीटें उसे कश्मीर संभाग से मिलीं। 2014 में कांग्रेस को जम्मू में पांच सीटें मिली थीं। इन नतीजों से कांग्रेस के लिए जो सबसे बड़ा संदेश निकलता है, जीत पर पानी फेरती गुटबाजी। हरियाणा में आपसी नतीजों और गुटबाजी ने कांग्रेस की जीती हुई बाजी को पलटकर रख दिया।
सीएम पद को लेकर भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कुमारी सैलजा और रणदीप सुरजेवाला की आपसी होड़ और बयानबाजी एक बार फिर पार्टी के लिए भारी पड़ी। बता दें किइस नतीजों का असर कहीं न कहीं इंडिया गठबंधन के भीतरी समीकरणों पर भी पड़ेगा। जिस तरह से राहुल गांधी के साथ खड़ा होकर पूरा विपक्ष संसद में मोदी सरकार को घेर रहा था, बीजेपी को हरियाणा में मिली जीत से मिली संजीवनी के बाद शायद अब विपक्ष बीजेपी पर उस तरह से हावी न हो सके।इसी गुटबाजी का नतीजा रहा कि सैलजा चुनाव प्रचार में खास निकली हीं नहीं, जबकि सुरजेवाला अपने बेटे के चुनाव को लेकर कैथल में उलझे रहे। आपसी गुटबाजी व कलह ने जमीन पर लोगों के बीच कांग्रेस की जीत की संभावनाओं को धूमिल करने का प्रयास किया। इसके अलावा, जमीन पर काम करने वाले अपने वर्कर्स की अनदेखी कर चुनाव से ऐन पहले पार्टी में शामिल होने वालों को टिकट और तवज्जो देना भी पार्टी को भारी पड़ा। जीत की संभावनाओं पर फूली कांग्रेस जब चुनाव प्रचार के खत्म होने से महज कुछ घंटों पहले अशोक तंवर की वापसी कराती है तो इसे भी जमीन पर पार्टी का अति आत्मविश्वास और अहंकार माना गया। वहीं कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण नेताओं के अपने अहंकार के चलते आम आदमी पार्टी के साथ तालमेल न होना भी बना।
राहुल गांधी के कहने के बाद भी प्रदेश नेतृत्व इसके लिए तैयार नहीं दिखा। नतीजा, आम आदमी पार्टी, कांग्रेस-बीजेपी के लगभग 0.84 फीसदी के अंतर से ज्यादा 1.90 वोट ले गई। अगर तालमेल होता तो कांग्रेस शायद सरकार में होती। हुड्डा की सक्रियता के चलते जाट वोटों को साधते- साधते कांग्रेस प्रदेश की बाकी बिरादरियों पर फोकस करने से चूक गई। यही चीज कांग्रेस के लिए भारी पड़ी।
वहीं दलित वोटों को अपना मानने वाली कांग्रेस दलितों को भी पूरी तरह साधने में नाकाम रही। बीएसपी और चंद्रशेखर आजाद के साथ जाट दलों के तालमेल ने भले ही अपने लिए कोई खास करिश्मा न किया हो, लेकिन कांग्रेस का खेल जरूर बिगाड़ दिया। इन नतीजों का असर आने वाले दिनों में महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों से लेकर विपक्ष की रणनीति पर भी पड़ेगा। महाराष्ट्र और झारखंड में कांग्रेस की बारगेनिंग पावर कमजोर होगी।
महाराष्ट्र में भी कांग्रेस के पास बड़े नेताओं की फौज और उनके अहंकार हैं, जो पार्टी हितों पर भारी पड़ सकते हैं। ऐसे में कांग्रेस लीडरशिप को इनकी आंकाक्षाओं और बयानबाजियों पर रोक लगानी होगी। इतना ही नहीं, जिस तरह से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बड़ा दिल दिखाते हुए अलग-अलग राज्यों में तालमेल किया, जिसका फायदा भी हुआ। बीजेपी को रोकने के लिए कुछ वैसा ही बड़ा दिल उसे असेंबली चुनावों में दिखाना होगा।
इस नतीजों का असर कहीं न कहीं इंडिया गठबंधन के भीतरी समीकरणों पर भी पड़ेगा।वहीं कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण नेताओं के अपने अहंकार के चलते आम आदमी पार्टी के साथ तालमेल न होना भी बना। जिस तरह से राहुल गांधी के साथ खड़ा होकर पूरा विपक्ष संसद में मोदी सरकार को घेर रहा था, बीजेपी को हरियाणा में मिली जीत से मिली संजीवनी के बाद शायद अब विपक्ष बीजेपी पर उस तरह से हावी न हो सके।