आखिर राजनीतिक पार्टियों को कैसे मिलता है चुनाव चिन्ह?

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यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर राजनीतिक पार्टियों को चुनाव चिन्ह कैसे दिया जाता है! वर्तमान में लोकसभा चुनाव चल रहे हैं, इसी बीच आम जनता यह जरूर सोच रही होगी कि आखिर चुनाव आयोग राजनीतिक पार्टियों को चुनाव चिन्ह कैसे देता है और वह इतने सारे चुनाव चिन्ह लता कहां से है? तो आज हम आपको इसी बारे में पूरी जानकारी देने वाले हैं! 

आपको बता दें कि बात लोकसभा चुनाव की हो या फिर विधानसभा चुनाव की, सभी में चुनाव चिह्न की भूमिका काफी अहम होती है. चुनाव चिह्न के आगे बटन दबाकर ही हम किसी भी प्रत्याशी को वोट देते हैं. राष्ट्रीय पार्टियां हों या छोटी पार्टियां या फिर निर्दलीय प्रत्याशी, सभी को एक चुनाव चिह्न दिया जाता है. रजिस्टर्ड पार्टियों को जहां पहले से सिंबल मिला होता है तो वहीं निर्दलीय उम्मीदवारों को नॉमिनेशन प्रोसेस और चुनाव से कुछ दिन पहले यह चुनाव चिह्न मिल जाता है, लेकिन इसे लेने के लिए भी काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है… आइए अब जानते हैं कि चुनाव आयोग चुनाव चिन्ह कैसे देता है… बता दें भारत में चुनाव कराने से लेकर पार्टियों को मान्यता और उन्हें चुनाव चिह्न देने का काम चुनाव आयोग ही करता है… निर्वाचन आयोग को The Election Symbols, Reservation and Allotment Order, 1968 के मुताबिक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों को चुनाव चिन्ह आवंटित करने की पावर मिलती है…. चुनाव आयोग के पास इस तरह के सिंबल की भरमार होती है. वह चुनाव चिह्नों के लिए दो लिस्ट बनाकर रखता है. पहली लिस्ट में वे सिंबल होते हैं, जिनका आवंटन पिछले कुछ साल में हुआ है, जबकि दूसरी लिस्ट में ऐसे सिंबल हैं जिनका आवंटन किसी को नहीं हुआ है. बता दें कि भारत की आजादी से पहले देश में दो प्रमुख राजनीतिक दल थे। पहली थी कांग्रेस और दूसरी मुस्लिम लीग। कांग्रेस पार्टी की स्थापना के बाद दो बैलों का जोड़ा कांग्रेस पार्टी का सिंबल था। वहीं, 1906 में बनने वाली ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का अर्ध चंद्रमा और तारा पार्टी का चुनाव चिन्ह था, लेकिन इंडिया में पार्टी सिंबल या चुनाव चिन्ह के सफर की असली कहानी साल 1951 के बाद स्टार्ट हुई थी। देश के आजाद होने के बाद 28 अक्टूबर 1951 और 21 फरवरी 1952 के बीच देश में पहला आम चुनाव हुआ। इस समय देश में अशिक्षित लोगों की संख्या ज्यादा थी। अनपढ़ लोगों की चुनाव में भागीदारी बढ़ाने के लिए सिंबल का इस्तेमाल किया गया था। इस समय 14 पार्टियां मैदान में थी। 

इलेक्शन कमीशन के मुताबिक, किसी भी पार्टी को दिया जाना वाला चुनाव चिन्ह दो तरीके का होता है। पहला होता है रिजर्वड चुनाव चिन्ह और दूसरा मुक्त चुनाव चिन्ह होता है। रिजर्व चुनाव चिन्ह की बात की जाए तो यह सिर्फ एक दल का ही होता है। जैसे- बीजेपी का कमल का फूल और कांग्रेस पार्टी का हाथ। वहीं मुक्त चुनाव चिन्ह किसी दल का नहीं होता है। ये किसी नई पार्टी या उम्मीदवार को किसी निश्चित निर्वाचन क्षेत्र के लिए दिया जाता है।

चुनाव आयोग अपने पास रिजर्व में कम से कम ऐसे 100 निशान हमेशा रखता है, जो अब तक किसी को नहीं दिए गए हैं. इनमें से ही किसी भी नए दल या फिर आजाद उम्मीदवार को चुनाव चिह्न दिया जाता है. हालांकि कोई दल अगर अपना चुनाव चिह्न खुद चुनाव आयोग को बताता है और वह सिंबल किसी के पास पहले से नहीं है तो आयोग उस पार्टी को उसे अलॉट कर देता है. वहीं, राष्ट्रीय दलों को उनका रिजर्व चुनाव चिह्न मिल जाता है.. बता दें कि राष्ट्रीय दलों जैसे कांग्रेस, बीजेपी, टीएमसी, आप को जो चुनाव चिह्न मिले हैं वो रिजर्व कैटेगरी में आते हैं. इन चिह्नों को किसी और को नहीं दिया जाता है. 

क्षेत्रीय दलों को भी अपने राज्य या इलाके के लिए फिक्स चुनाव चिह्न मिलता है, लेकिन जब वह किसी और राज्य में चुनाव लड़ने जाते हैं तो वह बदल भी सकता है. यह पहले से उसकी उपलब्धता पर निर्भर करता है. जैसे महाराष्ट्र में शिवसेना का चुनाव चिह्न भी तीर-कमान था, जबकि झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का सिंबल भी यही है… चुनाव आयोग तरह-तरह के सिंबल प्रत्याशियों को अलॉट करता है, लेकिन अब पशु-पक्षी से जुड़े सिंबल कैंडिडेट्स को नहीं दिए जाते. ऐसा एनिमल राइट्स एक्टिविस्ट्स के विरोध के बाद से हुआ है. पहले जब ऐसा सिंबल मिलता था, तो उक्त प्रत्याशी उस तरह के पशु या पक्षी को लेकर परेड कराने लगते थे. इसे क्रूरता माना गया था… तो यह है वह प्रकिया और वह नियम जिसके तहत चुनाव आयोग राजनीतिक पार्टियों को चुनाव चिन्ह का आवंटन करता है!