यह सवाल उठना लाजिमी है कि बीजेपी नवीन पटनायक का गढ़ कैसे जीत पाई! 4 जून को लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने एनडीए की जीत की स्पीच ‘जय जगन्नाथ’ बोलकर शुरू की। बीजेपी ने ओडिशा की 21 संसदीय सीटों में से सिर्फ एक छोड़कर सभी जीत लीं और बीजू जनता दल को संसद से लगभग बाहर कर दिया। पार्टी ने विधानसभा में भी बहुमत हासिल किया 147 में से 78 सीटें, और राज्य के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे नवीन पटनायक को लगभग 25 साल बाद सत्ता से हटा दिया। पार्टी ने मंगलवार को चार बार के आदिवासी विधायक मोहन चरण माझी को राज्य के नए मुख्यमंत्री के रूप में चुना। हालांकि बीजेपी की हार एंटी-इनकंबेंसी का नतीजा हो सकती है, लेकिन खुद उसी ने ओडिशा में बीजेपी के लिए रास्ता खोला। पटनायक के ताकतवर क्षेत्रीय आंदोलन ने अरसे तक ओडिशा को नैशनल ट्रेंड्स से दूर रखा। उनके उड़िया गर्व के विजन के केंद्र में हिंदू पहचान थी, जिसके लिए उसने पुरी में जगन्नाथ मंदिर के तीर्थ यात्रा गलियारे पर 800 रुपये करोड़ खर्च किए। इसी हिंदू-ओडिया लॉजिक ने बीजेपी के राजनीतिक हिंदुत्व को जीत के लिए तैयार किया। 2024 में पार्टी ने बीजेपी को इस पर चुनौती दी कि कौन राज्य की ‘शुद्ध’ हिंदू पहचान को संजोने के लिए सबसे सही है।
मोदी ने पटनायक को कमजोर दिखाया। उन्होंने पटनायक की सेहत की जांच के लिए एक कमिटी बनाने का वादा किया। पटनायक के सबसे करीबी और तमिलनाडु में पैदा हुए पूर्व आईएएस अधिकारी वी.के. पांडियन को कठपुतली और तमिल घुसपैठिया कहा गया। चुनाव आयोग ने पांडियन की नौकरशाह पत्नी सुजाता कार्तिकेयन के ट्रांसफर का भी आदेश दिया। सुजाता ने स्वयं सहायता समूहों, हेल्थकेयर कवरेज सहित पंचायती और लोकसभा सीटों में महिलाओं के आरक्षण के जरिए बीजेडी के महिला समर्थन को मजबूत किया था।
उड़िया हिंदू गौरव’ के नारे के साथ बीजेपी ने पटनायक को उनके ही खेल में हरा दिया। बीजेपी ने जनजातीय समुदायों में गहरी पैठ बनाई। बीजेडी का उच्च जाति हिंदुओं पर निर्भर रहना उल्टा पड़ गया। ओडिशा में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति 40 प्रतिशत हैं, और ओबीसी 40 प्रतिशत। बीजेपी ने राज्य के आदिवासी समुदायों को हिंदू धर्म में लाकर अपना दायरा काफी बढ़ा लिया। अधिकतर आदिवासी वोट बीजेपी को गए, जिसमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु का गृहनगर मयूरभंज भी है। जनजातियों के हिंदूकरण ने आदिवासियों और दलितों को आमने-सामने ला खड़ा किया है। 2008 में राज्य में वीएचपी नेता की हत्या के बाद कंधमाल में ईसाई दलितों के खिलाफ नरसंहार हुआ था। यह आदिवासी-दलित विरोध बीजेपी के लिए एक सफल रणनीति साबित हुई क्योंकि आदिवासी 23 प्रतिशत हैं, जबकि दलित 17 प्रतिशत।
पटनायक की पिछली सफलता काफी हद तक इस तथ्य पर टिकी थी कि ओडिशा देश की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जो इसके प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर टिकी थी। बीजेडी के गरीब समर्थक पार्टी होने के दावों के बावजूद इसकी आर्थिक सफलता ने आदिवासियों और दलितों को बेदखल कर दिया। वेदांता के चलते डोंगरिया कोंड को उनके पवित्र पर्वत नियमगिरि के आसपास के इलाकों को छोड़ना पड़ा। जजपुर जिले के खनिज संपन्न सुकिंदा में आदिवासियों ने बीजेडी के खिलाफ मतदान किया क्योंकि अवैध खनन के चलते वहां का पानी प्रदूषित हो गया। राष्ट्रपति मुर्मु ओडिशा की संथाल आदिवासी हैं, जो राष्ट्रपति हैं। BJP इसका रणनीतिक फायदा उठाना चाहती है।
आदिवासियों की तस्वीर ‘प्रोटो-हिंदू’ जैसी पेश की गई है, जिन्हें ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ लामबंद किया जा सकता है। इससे BJP राज्य की ‘आदिवासी पार्टी’ बन गई है। बता दें कि भारत, प्रतिस्पर्धी राजनीति के एक नए फेज में प्रवेश कर रहा। नवीन बाबू का राजनीतिक दृष्टिकोण मूल्यवान सबक प्रदान करता है। हाल के दिनों में, भारत के कई संस्थान विदेशी इंस्टीट्यूट के हमले से घेरे में आए हैं। चुनाव परिणाम सहित भारत के लोकतंत्र की अखंडता पर सवाल उठाने की कोशिश की गई। ऐसा इसलिए नहीं था क्योंकि पश्चिम को स्वतंत्रता और आजादी को बनाए रखने में कट्टर रुचि है, बल्कि इसलिए कि वे भारत की वैश्विक स्थिति को कमजोर करने के लिए तथाकथित डेमोक्रेटिक की कमी को उजागर करना चाहते थे। ओडिशा के पहले BJP मुख्यमंत्री माझी भी संथाल नेता हैं। भारतीय व्यवसाय को और अधिक निशाना बनाने के प्रयास में, एग्जिट पोल से जुड़े शेयर बाजार घोटाले के बेबुनियाद आरोप लगाए जा रहे हैं। राष्ट्रीय संस्थानों पर इन हमलों के पीछे तर्क एक भयंकर युद्ध की तरह है। सत्ताधारी पार्टी को टारगेट करने के लिए देश की वित्तीय रीढ़ को नष्ट करना।अब एक साझा दलित-बहुजन-आदिवासी मंच को ओडिशा के पर्यावरण के विनाश का मुकाबला करने के लिए काम करना होगा।