खालिस्तानी सोच वर्तमान में बढ़ती ही जा रही है! कुछ सप्ताह और महीनों में, खालिस्तानी समूह भारत और विदेशों दोनों जगह अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं। इन घटनाओं के पीछे बाहरी ताकतें शामिल हैं जिनमें पाकिस्तान स्पष्ट रूप से शामिल हैं। हालांकि अमृतपाल सिंह के वारिस पंजाब दे के उदय के साथ अब इसका एक लोकल एंगल भी है। ये लोग हमारे सीमावर्ती राज्य में तबाही मचाने की कोशिश कर रहे हैं। भारत के बाहर, हमारे राजनयिक मिशनों पर हमला किया गया है। इसमें हाल ही में लंदन और सैन फ्रांसिस्को में भी शामिल है। ऑस्ट्रेलिया और अन्य जगहों पर कई हिंदू मंदिरों में तोड़फोड़ की गई है। खालिस्तानी के सक्रियात में बढ़तोरी को नए संदर्भों में देखने की जरूरत है। साथ ही भारत के अंदर हिंसक गतिविधियों से मजबूती और सूक्ष्मता से निपटने की जरूरत है। वहीं, बाहर की गतिविधियों के संबंध में गलत सूचनाओं का मुकाबला करने के लिए सक्रिय कदम उठाने की जरूरत है। पिछले महीने अजनाला में पुलिस थाने पर धावा बोलने के बाद अमृतपाल सिंह सुर्खियों में छाया हुआ है। उस दौरान कई पुलिसवाले भी घायल हुए थे। मीडिया के कुछ हिस्सों में भिंडरावाले 2.0 करार दिया गया है। इस मुद्दे पर बहस की जा सकती है, क्योंकि भिंडरावाले एक घरेलू उग्रवादी सिख था। उसका उदय पंजाब में अकालियों को कम करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस पार्टी के तरफ से समर्थित था। लेकिन इस फैक्ट से इनकार नहीं किया जा सकता कि इनसे जल्दी नहीं निपटा गया तो इससे भारत और विदेशों में हिंदू-सिख सामाजिक संबंधों को भारी नुकसान हो सकता है। यहीं खालिस्तानी समूह चाहते हैं।
अस्सी के दशक में, खालिस्तानी उग्रवाद देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन गया था। इसमें हिंदुओं को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया था। 1983 में उसमें एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब भिंडरावाले के एक साथी ने पुलिस के डिप्टी आईजी ए.एस. अटवाल की हत्या कर दी। अटवाल उस समय प्रार्थना के बाद स्वर्ण मंदिर से बाहर आ रहे थे। मंदिर को चरमपंथियों से मुक्त कराने के लिए एक साल से भी अधिक समय के बाद ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू किया गया था। लेकिन सेना का प्रयोग एक गलती थी। हम जानते हैं कि इसके क्या दुखद परिणाम हुए। अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। इस मामले में सही रणनीति जूलियो रिबेरो और बाद में केपीएस गिल ने बनाई। वे जानते थे कि खालिस्तानी उग्रवाद का मुकाबला स्थानीय पुलिस की तरफ से किया जाना है। स्थानीय पुलिस न केवल चरमपंथियों और उनके संचालन के तौर-तरीकों को जानती थी, बल्कि यह भी जानती थी कि इस संकट से कैसे निपटा जाए। अमृतपाल सिंह और उनके फ्रिंज ग्रुप के साथ यही किया जाना चाहिए, जबकि वे अभी भी हाशिए पर हैं।
इस घरेलू ऐक्शन को राजनीतिक आम सहमति पर आधारित होना चाहिए। इसका मतलब है कि केंद्र, कांग्रेस, अकाली दल और सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी एक मत हों। साथ ही पुलिस फोर्स को पूरी तरह से समर्थन देना चाहिए। यदि इस तरह के प्रयास को हम राजनीति की वजह से इस प्रयास को कमजोर करते हैं तो हम केवल पंजाब में एक नया अलगाववादी फ्रेंकस्टीन पैदा कर रहे होंगे। मोदी सरकार को सभी दलों को यह समझाकर इस आम सहमति को सुगम बनाना चाहिए कि यदि खालिस्तानी समूह फिर से जीवित हो जाते हैं, तो उनकी अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता कम हो जाएगी। विदेश ( ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में केंद्रित ) में खालिस्तानी सक्रियता को एक अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता है। साथ ही कूटनीति हमारे दूतावासों की तत्काल सुरक्षा और सुरक्षा संबंधी चिंताओं से निपटने के लिए काफी अच्छी है। हमें धारणाओं से परे भारत को कमजोर करने की वैश्विक साजिश के बारे में स्पष्टीकरण खोजने की जरूरत है।
उत्तरी अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भी अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर बेहद उदार रवैया है। इसलिए, यदि खालिस्तानी भारतीय राजनयिक मिशनों या हिंदू बस्तियों के बाहर एक “जनमत संग्रह” या यहां तक कि आक्रामक विरोध का आयोजन करते हैं, तो इसे मुक्त भाषण के अधिकार के एक भाग के रूप में देखा जाता है। हमने देखा कि कैसे डेनिश और फ्रांसीसी सरकारों ने पैगंबर पर कार्टून प्रकाशित करने की अनुमति दी। स्वीडन में पुलिस ने अप्रवासी विरोधी एक राजनेता को कुरान की प्रतियां जलाने की अनुमति दी। यूरोप में हिंसा फैलाने के लिए इस्लामवादियों की तरफ से कार्टूनों का इस्तेमाल किया गया था। कुरान के जलने को तुर्की की तरफ से नाटो में स्वीडन के प्रवेश को अवरुद्ध करने के कारणों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया था। कोई कह सकता है कि पश्चिम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार बहुत दूर तक ले जा रहा है, लेकिन हमें स्थिति से वैसे ही निपटना होगा जैसे वह है।
विदेशों में खालिस्तानी तत्वों से निपटने के लिए एक सरल उपाय की आवश्यकता है। भारत में सिखों के साथ वास्तविक स्थिति क्या है, इस पर मीडिया, जनता और सांसदों के साथ अधिक समझदारी से बातचीत करना। भारत की तरफ से भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग किया जा सकता है। इसके तहत बड़ी भारतीय आबादी वाले क्षेत्र के सांसदों को भारत की तरफ से बोलने के लिए कहा जाना चाहिए। ऐसा होने के लिए, भारत को न केवल खालिस्तानी एक्टिविस्ट से जुड़ा सही डेटा और जानकारी प्रदान करनी चाहिए, बल्कि शांतिपूर्ण तरीके से समझाना भी चाहिए। भारत में हिंदू-सिख संबंधों का इतिहास ऐसा है कि दो समुदायों के बीच हमेशा ‘रोटी-बेटी’ का रिश्ता रहा है। उनके पास मजबूत वैवाहिक और सामाजिक संबंध हैं। इसी को खालिस्तानी तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।