आज हम आपको बताएंगे कि बीजेपी आखिर क्या और कहां चूक कर रही है! लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद भारत की राजनीति करवट लेने लगी है। एनडीए के 293 सांसदों के साथ तीसरी बार सरकार बनाने के बाद भी बीजेपी कॉन्फिडेंट नजर नहीं आ रही है, जबकि 234 सीटें जीतने वाले विपक्ष के हौसले बुलंद हैं। विधानसभा उपचुनाव के परिणाम ने भी बीजेपी की टेंशन बढ़ा दी है। 13 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में बीजेपी को सिर्फ दो सीटें मिलीं। कहीं न कहीं देश में माहौल मनमोहन सिंह के यूपीए-2 जैसा होने लगा है। नीट एग्जाम (NEET) और यूजीसी जैसे एग्जाम में धांधली के आरोप इसकी शुरुआत हो चुकी है। मोदी सरकार के कार्यकाल में कराए गए काम में नुस्ख निकाले जा रहे हैं और यह लोगों को पसंद भी आ रहा है। 10 साल सत्ता में रहने के बाद पीएम नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की छवि करप्शन के मामले बेदाग रही। अब पेपर लीक, ढहते पुल, दरकती सड़कें और बारिश में टपकते एयरपोर्ट पर सवाल खड़े हो रहे हैं। सरकार और पार्टी की ओर से किए जा रहे दावों को पब्लिक दरकिनार कर रही है। अगर बीजेपी छवि बदलने में सफल नहीं हुई तो इसका परिणाम बीजेपी को राज्यों के चुनावों में भुगतना पड़ेगा। अब बीजेपी को बूस्टर डोज तभी मिलेगा, जब वह नवंबर में होने वाले चुनाव में झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र में बड़ी जीत हासिल करे। फ्लैश बैक में जाकर 2014 के दौर को याद कीजिए। जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने थे, तब देश की जनता करप्शन और घोटालों की खबरों से परेशान थी। मनमोहन सिंह ऐसे प्रधानमंत्री के तौर प्रचारित हुए, जो कांग्रेस अध्यक्ष के मातहत के तौर पर काम करते हैं। विपक्ष ने बड़े घोटालों पर उनकी चुप्पी पर भी सवाल उठाए। कांग्रेस भी आरोपों का सटीक जवाब देने में सक्षम नहीं दिख रही थी। गुजरात में ब्रांड बन चुके नरेंद्र मोदी ने इस माहौल को भुनाया। बदलाव की इंतजार कर रही जनता ने समर्थन दिया और बीजेपी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। फिर 10 साल तक राष्ट्रवाद की बयार बही और नरेंद्र मोदी इसके सबसे बड़े आइकॉन के तौर पर उभरे। बीजेपी हिंदी पट्टी में पंचायत से संसद तक काबिज होती गई। नगर निगम में मिलने वाली जीत का सेहरा भी पीएम मोदी के सिर मढ़ा गया। झारखंड, बिहार, कर्नाटक में हार का ठीकरा स्थानीय नेताओं ने ले लिया। 2019 में बालाकोट एयर स्ट्राइक और सर्जिकल स्ट्राइक ने पीएम मोदी की साख बढ़ाई। जनता ने उन्हें दूसरी बार सरकार बनाने का मौका दिया। मोदी 2.0 में धारा-370 हटाने और सीएए लागू करने जैसे बुलंद फैसले भी लिए। कोरोना के दौर में भी जनता नरेंद्र मोदी के साथ खड़ी रही। उन्होंने जैसा कहा, लोगों ने वैसा ही किया। यह उनकी लोकप्रियता का चरम था, जिसे देखकर विपक्ष समेत पूरी दुनिया दंग रह गई। किसान आंदोलन और कोरोना से हुई मौतों के बाद भी यूपी में बीजेपी की वापसी हुई। पिछले साल राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी भारतीय जनता पार्टी की बनी, तो नरेंद्र मोदी को अजेय मान लिया गया।
2024 के लोकसभा चुनाव में हालात बदल गए। बेहतर चुनाव प्रबंधन और अग्रेसिव कैंपेन के बाद भी बीजेपी पूर्ण बहुमत के 273 के आंकड़े तक नहीं पहुंच सकी। राष्ट्रवाद, मुफ्त राशन और मोदी मैजिक के सहारे चुनाव में उतरी बीजेपी के 240 पर अटकने से विपक्ष का मनोबल बढ़ा। बीजेपी के नेताओं का कहना है कि वह आरक्षण खत्म करने, 10 किलो मुफ्त राशन और खटाखट 8500 रुपये देने को लेकर फैलाए गए विपक्ष के भ्रम का काट नहीं ढूंढ सके। एक्सपर्ट मानते हैं कि नरेंद्र मोदी खुद अपनी ही स्कीम की जाल में फंस गए। बीजेपी ने राम मंदिर, पांच किलो मुफ्त राशन और कैश डिलिवरी सिस्टम को जीत का रामबाण मान लिया। कोरोना के बाद वोटरों का एक ऐसा वर्ग तैयार कर दिया, जो मुफ्त की स्कीमों पर बंपर वोट करती है। लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने मुफ्त वाली स्कीम और कैश की रकम बढ़ा दी। संगठन के स्तर पर मोदी-शाह की जोड़ी ने करीब उम्र और परफॉर्मेंस के नाम पर 100 सांसदों के टिकट काटे और दूसरे दलों के आए चेहरों को टिकट दिया। मगर इस स्क्रीनिंग में बीजेपी से बड़ी चूक हुई। वह ऐसे सांसदों को टिकट दिया, जो क्षेत्र में नजर नहीं आए। उन नेताओं को भी मैदान में उतारा, जिन्हें जनता पहचानती भी नहीं थी। बीजेपी के अधिकतर उम्मीदवार पीएम नरेंद्र मोदी को चेहरे पर जीतने को लेकर आश्वस्त रहे और नतीजा अब सामने है।
केंद्र सरकार के बेहतर काम का श्रेय पीएम नरेंद्र मोदी के सिर गया। राज्यों में हो रहे डेवलेपमेंट के लिए क्रेडिट पीएम मोदी के खाते में जाता रहा। मोदी-शाह के युग में बीजेपी एक ऐसा चेहरा नहीं पेश नहीं कर सकी, जो पीएम नरेंद्र मोदी का विकल्प बन सके। कुछ ऐसा ही हाल 2004 में था, जब अटल बिहारी वाजपेयी की छवि के सामने बड़े नेताओं का कद छोटा पड़ने लगा। लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में एक चुनाव हारने के बाद दूसरा नेता बनाने में संगठन को 10 साल लग गए। पॉलिटिकल एक्सपर्ट के साथ अधिकतर लोग मान चुके हैं 2024 पीएम नरेंद्र मोदी का आखिरी चुनाव है, क्योंकि वह 2029 में 78 साल के हो जाएंगे। यह नैरेटिव बड़े ही तेज गति से जनमानस के बीच अपनी जगह बना रहा है। अगले दो साल में इसका असर भी नजर आने लगेगा। बीजेपी इसे विपक्ष की चाल कह सकती है, मगर अभी तक पार्टी की ओर से इस नैरेटिव के खिलाफ कोई तैयारी नजर नहीं आ रही है। पार्टी न ही किसी नेता को विकल्प के तौर पेश कर रही है और न ही इसका खंडन कर रही है।
शहरी मध्यम वर्ग बीजेपी का कोर वोटर रहा है, मगर पिछले 10 साल में राष्ट्रवाद की घुट्टी के अलावा मिडिल क्लास के हाथ कुछ नहीं लगा। हर खरीदारी पर टैक्स भरने वालों को इनकम टैक्स में छूट नहीं मिली। सरकारी नौकरियों में कमी की गई। ऐसा ही हाल अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में था, जब एनडीए सरकार ने सरकार के आकार छोटा किया और सरकार के खजाने को भर दिया। 2004 में सेंसेक्स उफान मार रहा था और भारत का विदेशी मुद्रा भंडार पहली बार 100 बिलियन डॉलर के पार गया था। जब सरकार बदली तो कांग्रेस ने इस खजाने से नौकरियां बांटी। आज सरकार के स्तर पर बीजेपी इसी गलती को रिपीट कर रही है। विपक्ष के हाथ बेरोजगारी और महंगाई का बड़ा मुद्दा लग चुका है। अब यह मुद्दा आम लोगों को रास भी आ रहा है।
कांग्रेस और दूसरे दलों से आयातित नेताओं को पार्टी, सरकार और संगठन में जगह दी गई, जबकि संगठन के लिए वर्षों तक मेहनत करते वाले कार्यकर्ता ही बने रहे। दूसरी पार्टियों से आने वाले अधिकतर ऐसे नेता हैं, जिन्हें बीजेपी के नेताओं ने चुनाव में पटखनी दी थी और वह अपना राजनीतिक भविष्य तलाश रहे थे। इन नेताओं को केंद्र और राज्यों में मंत्री पद भी नवाजा गया। पार्टी का यह रुख सीनियर कार्यकर्ताओं के मनोबल तोड़ने के लिए काफी था। अब दबी जुबान में नेता बीजेपी के कांग्रेसीकरण की बात कर रहे हैं।
बीजेपी के कोर समर्थक पार्टी विद डिफरेंस वाले टैगलाइन को आदर्श मानते रहे हैं। नरेंद्र मोदी सरकार को दूसरी और तीसरी इसलिए मौका मिला कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के अलावा बीजेपी के कोर मुद्दों पर लीक से हटकर फैसले लिए। पिछले एक साल से पार्टी शौचालय, मुफ्त राशन, पांचवें नंबर की आर्थिक शक्ति जैसे चंद मुद्दों को अलाप रही है, जिसे नरेंद्र मोदी लालकिला, संसद, चुनाव प्रचार अभियान और विदेशों में भी कई दफा दोहरा चुके हैं। पार्टी के प्रवक्ता भी टीवी डिबेट में उन्हीं मुद्दों को बार-बार दोहराते हैं। इनमें में अधिकतर मुद्दे आर्थिक और मुफ्त वाले मुद्दे हैं, जो निम्न और मिडिल क्लास के पल्ले नहीं पड़ते हैं। यह सर्वविदित है कि सरकार चाहे किसी की भी हो, आर्थिक उदारीकरण का दौर जारी रहेगा। इस सरकार को नए तेवर के साथ कलेवर भी बदलना होगा।