आज हम आपको बताएंगे कि मलयालम सिनेमा में आखिर खास बात क्या है! हाल के सालों में तेलुगू, तमिल और कन्नड़ फिल्मों का उत्तर भारत में एक अलग, उत्सवपरक स्वागत हमने देखा है। इस सिलसिले में मलयालम ने अलग ही तेवर, मिजाज़ और स्वाद के साथ खुद को दाखिल किया है। यह दखल बड़ा मानीखेज है। दूसरे शब्दों में कहें तो, पोस्ट कोविड एक भ्रम यह भी फैला कि हिंदी के समक्ष दक्षिण की चुनौती है। दरअसल यह एक तथ्यहीन सरलीकरण था, क्योंकि दक्षिण का सिनेमा 4 भाषाओं का सिनेमा है, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ के बाद, जिसका चौथा रंग अब खिलने लगा है, यह है मलयालम का सिनेमा। यूं कुल मिलाकर बुनियादी बात हो सकती है कि सुदूर दक्षिण की कहानियां धुर उत्तर तक असर कर रही हैं, अपनी बहुआयामी अलग खुशबू से हम सबको महका रही हैं। यह मुझे ऐतिहासिक भारतीयता की अंतर्निहित गर्भनाल संबद्धता का भी पुनर्जागरण लगता है। उत्तर भारतीय दर्शक पहले दक्षिण की डब फिल्में देखते थे, या कभी-कभार रीमेक। अब ओटीटी पर सबटाइटल्स के साथ ओरिजिनल मलयालम देखने की प्रवृत्ति हिंदी पट्टी में बढ़ी है। यह खास प्रवृत्ति है जिसे रेखांकित करने की जरूरत है। इससे भारतीय भाषाओं के सिनेमा और पैन इंडियन सिनेमा के आने वाले सालों में और बदलने की आहट महसूस की जा सकती है।
हालिया मलयालम सिनेमा अपने अलग से, अछूते विषयों के कारण तुरंत दर्शक को मोहता है। छोटे-छोटे विषय जिनको सामान्यतः सिनेमा का मुख्य विषय नहीं बनाया जाता, उनको उठाकर कहानी बुनी जा रही है, जैसे बाढ़ पर, गांव के छोटे-छोटे मसलों पर कहानियां बन रही हैं। शहरी जीवन पर कम मलयालम सिनेमा दिखता है। हिंदी सिनेमा का शहरीकरण तो कई दशकों में हुआ ही है, अब तो महानगरीकरण की तरफ बढ़ चुका है। इसके बरक्स मलयालम सिनेमा अपने जमीनी दर्शकों के लिए फिल्में बना रहा है।
यह बड़ा अंतर है, इसे एक दार्शनिक, दूरदर्शी और जड़ों पर केंद्रित होने की दृष्टि को चुनने की तरह देखना चाहिए। कमाल यह है कि इसका अच्छा नतीजा बॉक्स ऑफिस पर भी दिख रहा है। उन कहानियों की खूबी यह भी है कि वे कहानियों से पैदा हुई कहानियां नहीं हैं, यानी उनके रेफरेंस साहित्य या सिनेमा से नहीं उठाए गए हैं। वे कहानियां सीधे जीवन या ज़मीन से उठाई गई हैं। हिंदी सिनेमा के दर्शक के रसास्वादन का स्टीरियो टाइप टूटने की तरह भी इसे देखना चाहिए। एक दूसरा स्टीरियो टाइप और भी टूटता दिख रहा है कि पिछले कुछ सालों में जो दक्षिण के अतिनाटकीय सिनेमा ने उत्तर के दर्शकों को मोहित किया, वह रसास्वादन भी शायद कमज़ोर पड़ने लगा है। ऐसे में मलयालम का सिनेमा उनकी थाली में नई डिश की तरह आया है। क्या पता हिंदी दर्शक के चटोरेपन के ये ट्रेंड्स स्थायी न बन पाएं और वे हिंदी सिनेमा की पुरानी दाल रोटी पर लौट आएं कि वही स्थायी भाव है। इसका ठीक ठीक जवाब अभी किसी के पास नहीं होगा।
कमोबेश हाल का सारा मलयालम सिनेमा कहानी केंद्रित सिनेमा है। इस साल आई चर्चित मलयालम फिल्मों में ‘गोट लाइफ’ नाम की एक बड़ी सुंदर फ़िल्म है। बड़ी मुश्किलों से बनी है, दुबई में रिलीज पर प्रतिबंध भी लगे हैं। अरब जाने वाले प्रवासियों की कहानी है, जो सत्य घटनाओं पर आधारित है। उनके संघर्ष और सर्वाइवल की कहानी है। ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ को ही याद कीजिए, कैसे हमारे जेंडर स्टीरियो टाइप को झकझोरती हुई फिल्म थी।
अन्वेशिपिन कंडेथुम’ के बिना तो इस साल के मलयालम सिनेमा की बात ही नहीं पूरी हो सकती। इसने भी बॉक्स ऑफिस पर कमाल किया, 8 करोड़ में बनी फिल्म 40 करोड़ कमा गई। कई स्तरों की कहानी, उपकथाओं में अलग जादू है और क्लाइमेक्स और कथार्सिस के तो क्या ही कहने! बस ये समझिए कि यह फिल्म गूंगे का गुड़ है। ऐसी ही फिल्म है ‘आवेशम’। फहाद फासिल की इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर मलयालम सिनेमा के तो रेकॉर्ड तोड़े ही, इस साल भारत की सभी भाषाओं की सबसे कमाऊ फिल्मों मे अपना नाम दर्ज किया। फिल्म के गीतकार विनायक शशिकुमार को याद न करना तो गुनाह ही होगा।
एक और पहलू है जो मलयालम फिल्मों को हिंदी दर्शकों के मन के करीब लाता है, वह है संगीत। सुशिन श्याम, सूरज एस कुरूप, शान रहमान और जस्टिन वर्गीस जैसे संगीतकारों ने मलयालम फिल्मों के संगीत की धारा ही बदल दी है। इतना ही नहीं, वहां पर अनु एलिजाबेथ ऐसी गीतकार हैं जिन्होंने मलयालम फिल्मी गीतों को मेल गेज से बाहर लाने का काम किया है, लगभग वही काम हिंदी सिनेमा में कौसर मुनीर कर रही हैं। इन गीतकारों- संगीतकारों के संगीतमय कांधों पर टिकी ये फिल्में या तो न्यूनतम संगीत वाली गीत रहित फिल्में हैं या लोक के जादू से सजी, परंपरागत भारतीय गीत परंपरा के गीतों वाली फिल्में।
हिंदी में वह जगह इंडी म्यूजिक या आजाद संगीत भर रहा है। और हिंदी इंडी म्यूजिक देखते ही देखते हिंदी फिल्मी गीतों से बड़ा हो गया है, अपने प्रभाव में भी, अपने बाजारी आकार में भी। मलयालम सहित हिंदी से इतर भारतीय भाषाओं में से किसी भी भाषा के सिनेमा का बड़ा होना कुल मिलाकर सच्चे अर्थों में भारतीय सिनेमा का बड़ा होना है, उस गुलदस्ते में नए फूल का खिलकर महकना है।