हाल ही में महाराष्ट्र चुनाव में धर्म युद्ध का मुद्दा उठ चुका है! धर्मयुद्धों यानी क्रूसेड्स की यह खूनी और बर्बादी की कहानी तब शुरू होती है, जब 11वीं शताब्दी के आखिर तक प्राचीन ईसाई दुनिया के लगभग दो-तिहाई हिस्से पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया था। इसमें फिलिस्तीन, सीरिया, मिस्र और अनातोलिया के महत्वपूर्ण क्षेत्र शामिल थे। इस्लाम के प्रसार को रोकने के लिए किए गए धर्मयुद्धों में शुरुआत में यूरोप के ईसाई देशों ने सफलता पाई। फिलिस्तीन और सीरिया में एक ईसाई राज्य की स्थापना की, लेकिन इस्लाम के लगातार विकास ने आखिरकार यूरोप की बढ़त का बंटाधार कर दिया। धर्मयुद्ध ईसाई धर्म के इतिहास में एक विवादास्पद और काला अध्याय है। इन 8 धर्मयुद्धों के दौरान अनुमानित रूप से करीब 17 लाख लोग मारे गए थे, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चे थे। इन दिनों महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भी भाजपा और गैर भाजपा पार्टियों के बीच वोट जिहाद बनाम धर्मयुद्ध की चर्चा जोरों पर हैं। जानते हैं इन धर्मयुद्धों की खूनी कहानी की पहली किस्त। 11वीं शताब्दी के अंत तक पश्चिमी यूरोप अपने आप में एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरा था। हालांकि वह अभी भी भूमध्यसागरीय सभ्यताओं जैसे बैजंटाइन साम्राज्य (पूर्व में रोमन साम्राज्य का पूर्वी भाग) और मध्य पूर्व व उत्तरी अफ्रीका के इस्लामिक साम्राज्य से पीछे था। वर्षों की अराजकता और गृहयुद्ध के बाद जनरल एलेक्सियस कॉमनेनस ने 1081 में बैजंटाइन सिंहासन पर कब्जा कर लिया और सम्राट एलेक्सियस प्रथम के रूप में बाकी साम्राज्य पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।
1095 में एलेक्सियस ने पोप अर्बन द्वितीय के पास दूत भेजकर तुर्की के खतरे का सामना करने में मदद के लिए पश्चिम से भाड़े के सैनिकों की मांग की। हालांकि पूर्व और पश्चिम के ईसाइयों के बीच संबंध लंबे समय से खराब थे। वहीं, एलेक्सियस की मदद करने की अपील ऐसे वक्त आई, जब हालात सुधर रहे थे। ऐसे में एलेक्सियस को कोई मदद नहीं मिली। बाद में बैजंटाइन साम्राज्य पर आक्रमणकारी सेल्जुक तुर्कों का कब्जा हो गया। इन्ही तुर्कों ने इराक के अब्बासी खलीफो भी हरा दिया था।
नवंबर 1095 में दक्षिणी फ्रांस में क्लेरमोंट की परिषद में पोप ने पश्चिमी ईसाइयों से बैजंटाइन साम्राज्य की मदद के लिए हथियार उठाने और पवित्र भूमि को मुस्लिम नियंत्रण से वापस लेने का आह्वान किया। यहीं से यूरोप ने मुस्लिमों के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ दिया। 14वीं शताब्दी तक ऑटोमन तुर्कों ने खुद को बाल्कन में स्थापित कर लिया था और उन्हें खदेड़ने के बार-बार प्रयासों के बावजूद वे यूरोप में और भी गहराई तक घुस गए। आज तुर्की यूरोप का एक अहम देश बन चुका है। उस पर यूरोप का बीमार देश होने का जान-बूझकर तमगा लगाया जाता रहा। 1095 से लेकर 1291 तक 8 धर्मयुद्ध हुए। इसका अंत ये हुआ कि लैटिन ईसाइयों को आखिरकर सीरिया से भागना पड़ा। पवित्र भूमि, स्पेन और यहां तक कि बाल्टिक तक कई अभियान चलाए गए थे। 1291 के बाद कई शताब्दियों तक धर्मयुद्ध जारी रहे। 16वीं शताब्दी के दौरान प्रोटेस्टेंट सुधार और पुरातन ईसाई धर्म के पतन के साथ धर्मयुद्ध में तेजी से गिरावट आई।
धर्मयुद्ध से पहले ही आर्थिक जागरण हो रहा था। जंगली भूमि साफ करके खेत बनाए जा रहे थे। सीमाओं को बढ़ाया जा रहा था और बाजारों को काबू किया जा रहा था। इटली की जहाजी कंपनियां भूमध्य सागर में मुस्लिम प्रभुत्व को चुनौती देने लगी थीं। धर्मयुद्ध के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण 11वीं शताब्दी में चर्च में बदलाव ने पोप की सत्ता को भी चुनौती दी, जिससे धर्मयुद्धों की जमीन तैयार होने लगी। ग्यारहवीं शताब्दी के यूरोप में संतों के अवशेषों को रखने वाले स्थानीय तीर्थस्थलों की भरमार थी। लेकिन तीर्थयात्रा के तीन बड़े केंद्र दूसरों से अलग थे-रोम, जहां संत पीटर और पॉल की कब्रें थीं, दूसरा-उत्तर-पश्चिमी स्पेन में सैंटियागो डी कॉम्पोस्टेला और ईसा मसीह की समाधि की जगह यरूशलम।
भूमध्य सागरीय बेसिन की अन्य सभ्यताओं की तुलना में अभी भी पिछड़ा होने के बावजूद 11वीं शताब्दी के अंत तक पश्चिमी यूरोप एक महत्वपूर्ण शक्ति बन चुका था। यह कई देशों से बना था, जिन्हें मोटे तौर पर सामंती नेचर के थे। उस दौर में यूरोप में स्थानीय युद्ध होते रहते थे। लूटपाट की घटनाएं, गुलामी की प्रथाएं पूरे यूरोपीय समाज में सिर चढ़कर बोल रही थीं। वहीं, कुछ राजतंत्र ऐसे भी थे, जो पहले से ही बेहतर एकीकृत शासन प्रणाली विकसित कर रहे थे।
तीर्थयात्राओं को उस वक्त यूरोप में गंभीर पापों से मुक्ति और प्रायश्चित के रूप में भी माना जाने लगा था। यहां तक कि कभी-कभी पापी से खूब पैसे लेकर रोम का पोप उसे पापमोचक पत्र देता था। ऐसे में पापमोचक पत्र हासिल करने वालों के लिए यह सम्मान का प्रशस्तिपत्र माना जाने लगा। यह ऐसे अपराधियों के लिए गारंटी की रतह होता था।
288 सदस्यीय विधानसभा वाले महाराष्ट्र में जातियों के समीकरण को समझना होगा। 2011 की जनगणना के अनुसार महाराष्ट्र में मराठों की आबादी लगभग 32 प्रतिशत है। वहीं, दलित 14, मुस्लिम 11.54 और आदिवासी 9.35 प्रतिशत हैं। यह कुल आबादी का लगभग 65 प्रतिशत है। ये मतदाता कुल मतदाताओं के करीब 60 प्रतिशत है और उनके समर्थन से ही लोकसभा चुनाव में एमवीए को 48 में से 31 सीटें मिली थीं। वहीं, महायुति को केवल 17 सीटों से संतोष करना पड़ा था।